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असुरों के गुरू शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?

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असुरों के गुरू शुक्र ग्रह के अस्त होने पर विवाहादि कार्य क्यूं वर्जित किए जाते हैं ?
“यत्पिण्डे च ब्राह्मंडे” अर्थात जो कुछ भी इस भौतिक शरीर में मौजूद है, वही इस ब्राह्मंड में भी विधमान है। ये वाक्य कोई परिकल्पना नहीं है, अपितु एक शाश्वत सत्य है। वेद, पुराण इत्यादि समस्त शास्त्रों की रचना और उनमें छिपे इस सृ्ष्टि के अनन्त रहस्यों का मूल केवल एक यही वाक्य है। किन्तु इस प्रकार के किसी श्लोक के माध्यम से जब बात ज्योतिष जैसे गूढ शास्त्र को समझने या किसी दूसरे व्यक्ति को समझाने की आती है तो जटिलता सदैव एक सीढ़ी ऊपर खड़ी दिखाई देती है। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने दृष्टिकोण के स्तर को ऊंचा उठाना पडेगा। इतना ही नहीं संदेह के आवरण को सरका कर इस तथ्य मे विश्वास दिखाना पड़ेगा कि शास्त्र ज्ञान का अथाह भंडार है तो फिर चाहे कोई भी क्षेत्र हो या उस क्षेत्र से जुड़े किसी भी विषय पर चर्चा हो तो इस दुनिया के लिए इसमें विखरे ज्ञान को समेटना ही अपने आपमें एक चुनौती बन जाएगा। शुक्र ग्रह जिसे कि असुर जाति का गुरूपद प्राप्त है, तो फिर उन्हे लोकजीवन में मांगलिक कार्यों का मसीहा क्यूं माना जाता है और क्यूं शुक्र अस्त के समय विवाह इत्यादि कार्य वर्जित किए जाते हैं।”
सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि बृ्हस्पति को देवताओं का तथा शुक्र को असुरों का गुरू कहने का क्या तात्पर्य है। यत्पिंडे च ब्राह्मंडे का ये सिद्धान्त ये कहता है कि जो कुछ आपके भीतर है, वही इस अनन्त ब्राह्मंड में विधमान है अर्थात ये जो ग्रह, नक्षत्र, तारे, लोक-परलोक, भिन्न भिन्न योनियां है, उन सब का एक प्रतिरूप हम सब के अन्दर ही मौजूद है। ज्योतिष में बृ्हस्पति तथा शुक्र के जिस गुरूतत्व (देव और असुरों के गुरू होने) का वर्णन किया गया है, यहां एक स्थूल एवं बाह्य वास्तविक स्वरूप न होकर उसके प्रतिरूप (शरीर में मौजूद) की बात की जाती है।
शास्त्रों में मुख्यतय: तीन प्रकार की योनियां बताई गई हैं—–
1.देव योनि
2. असुर योनि
3. मनुष्य योनि।
वैदिक ज्योतिष अनुसार “बृ्हस्पति” धर्म और मोक्ष का तथा “शुक्र” अर्थ और काम (वासना) का प्रतिनिधित्व करता है। जैसा कि सर्वविदित है कि प्रत्येक मनुष्य में देव और आसुरी दोनों ही प्रकार की प्रवृ्तियां समान रूप में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति में जो प्रवृ्ति ज्यादा प्रबल मात्रा में होगी, उसी तरह का उसका जीवन होगा। अर्थात अगर किसी का धर्म पक्ष (नीति/अनीति का ज्ञान,सात्विकता,सदाचार इत्यादि गुण) प्रबल है और जो मोक्ष प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानकर चल रहा है तो ऎसा व्यक्ति देव श्रेणी में आता है। यहां बृ्हस्पति उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका का निर्वहन करता है। किन्तु अगर व्यक्ति का भौतिक पक्ष ज्यादा प्रबल हुआ तो वो असुर श्रेणी का जीव हुआ। यहां “शुक्र” उसके लिए गुरू (मार्गदर्शक) की भूमिका निभाता है।
अगर जीव में धर्म पक्ष (बृ्हस्पति) अति प्रबल हुआ तो उसकी भौतिक तौर पर उन्नति संभव नहीं है। क्योंकि भौतिकता गुरू के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। वो आपको सांसारिक ज्ञान दे सकता है, दिव्य आन्तरिक ज्ञान दे सकता है, आपको जन्म-मरण से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखा सकता है, किन्तु भौतिक जीवन की उपलब्धियां नहीं प्रदान कर सकता। क्यों कि भौतिकता तो एक प्रकार से ज्ञान और मुक्ति की राह में एक बडी बाधा ही मानी जाती है।
अगर कहीं किसी व्यक्ति में शुक्र का प्रभाव अधिक हुआ तो भौतिकता ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। अगर ऎसा व्यक्ति धर्म, पूजा पाठ, दान पुण्य इत्यादि का भी आश्रय लेगा तो उसमें भी उसका उदेश्य सिर्फ यश/ धन/संपदा/वासना इत्यादि जैसी कोई भौतिक कामना की पूर्ती ही होगा। क्योंकि वो इस भौतिक जीवन के अतिरिक्त कुछ ओर सोच ही नहीं पाता। उसे यदि धन और ज्ञान में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाए तो वो सदैव धन का ही चुनाव करेगा। इसी को हमारी संस्कृ्ति और शास्त्रों में “आसुरी प्रवृ्ति” कहा गया है। अब इन भौतिक कामनाओं की पूर्ती हेतु जो मार्गदर्शक (गुरू) का कार्य करता है वो है शुक्र। इसीलिए शुक्र ग्रह को असुरों का गुरू कहा जाता है। क्यों कि एक गुरू का कार्य होता है, अपनी शरण में आए हुए का मार्गदर्शन करना जिसे कि शुक्र ग्रह बखूबी अंजाम देता है। किन्तु जो जीव इन दोनों से इतर मध्यमार्ग का चुनाव करता है अर्थात अपने जीवन में धर्म पक्ष और भौतिक पक्ष का सामंजस्य बना कर चलता है -वो है “मनुष्य”। क्योंकि जब ईश्वर ने हमें इस धरती पर उत्पन किया है तो जीवित रहने तथा अपने पारिवारिक/ सामाजिक उत्तरदायित्वों के भली भांती निर्वहण के लिए “अर्थ्” और “काम” भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि जीवन बंधन से मुक्ति के लिए “धर्म”।
इस प्रकार से ये देव, असुर और मनुष्य ये तीनों ही योनियां हम सब में निवास करती हैं। अब जिस व्यक्ति ने ज्ञान और धर्म का रास्ता चुन लिया, वो देव योनि का। जो सिर्फ भौतिक संसाधनों की पूर्ती में ही निमग्न है, वो “असुर योनि” और जो इन दोनों मार्गों के मध्य का मार्ग चुनता है– वो “मनुष्य योनि” में जी रहा है।
ज्योतिष का ये एक मूलभूत नियम है कि ग्रह जब सूर्य के अति निकट आ जाता है तो उसे अस्त मान लिया जाता है अर्थात वो अपना प्रभाव देने के नैसर्गिक गुण को खो देता है।शुक्र अस्त के समय वो कार्य वर्जित किए जाते हैं,जिनका उदेश्य भौतिक इच्छाओं (विवाह, धन कमाने का साधन जैसे नवीन रोजगार प्रारंभ इत्यादि) की पूर्ति होता है तथा बृ्हस्पति अस्त के समय सिर्फ वो कार्य वर्जित माने जाते हैं, जिनमे भौतिक प्राप्तियों के अतिरिक्त कोई अन्य कामना निहित रहती है। परन्तु विवाह जैसे मांगलिक कार्य में इन दोनों का ही विशेष महत्व है। चूंकि भारतीय संस्कृ्ति में विवाह दैहिक, भौतिक एवं दैविक अर्थात शारीरिक, सम्पति-परक तथा आध्यात्मिक इन तीनों ही कामनाओं की पूर्ती का द्वार माना गया है। इसलिए विशेष रूप से विवाह जैसे अति महत्वपूर्ण कार्य हेतु बृ्हस्पति और शुक्र इन दोनों ही ग्रहों के अस्त काल को त्याज्य कहा गया है। इन कार्यों की सफलता हेतु जिनका कि हमें गुरूतुल्य मार्गदर्शन चाहिए होता है, वे ग्रह जब स्वयं ही निस्तेज है तो फिर कार्य सिद्धि कैसे संभव होगी अर्थात इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों में ही असफलता।
आशा करता हूं कि यदि अपने पूर्वाग्रहों का परित्याग कर चुके हों तो इस विषय में कोई शंका उत्पन हुई होगी तो उसका निवारण हो चुका होगा। किन्तु अगर फिर भी किसी के मन में कोई भी प्रश्न शेष रह गया हो अथवा किसी अन्य प्रकार की शंका/जिज्ञासा हो तो आप उसे निसंकोच यहां व्यक्त कर सकते हैं। एक बात जो कि विशेष तौर पर यहां सभी से कहना चाहूंगा कि आप ज्योतिष, आध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान इत्यादि किसी भी विषय आधारित आपके मन में कोई विचार हो तो अवश्य व्यक्त करें।