किसी व्यक्ति का व्यवहार मधुर होने के लिए उसका लग्नेष तथा तृतीयेष की बलवान और शुभ स्थान पर स्थिति होना चाहिए, जिससे पारस्परिक आनंद का कारण बनता है। किसी दो व्यक्ति का लग्नेष, तृतीयेष एवं सप्तमेष का जन्म कुंडली में शुभ भावों में युति या दृष्टि संबंध हो अथवा दोनों का एक दूसरे के नवांष में हों तो परस्पर प्रगाढ़ प्रेम होता है। इन पर किसी भी ग्रह की क्रूर दृष्टि का ना होना उनके रिष्तों में कभी भी मतभेद नहीं ला सकता है। लग्नेष, तृतीयेष एवं सप्तमेष एक दूसरे से 6, 8 या 12 भाव में हो तो परस्पर शत्रु भाव से रिष्तो में कटुता आती है तथा जीवन बाधित होता है। 6, 8 या 12 भाव के स्वामी होकर तृतीय या सप्तम भाव से संबंध स्थापित होने पर सुख में बाधा का कारण बनता है। इसके अलावा लग्नेष, तृृतीयेष या सप्तमेष का निर्बल होकर क्रूर स्थान या क्रूर ग्रहों के साथ होना भी मित्रवत् तथा मधुर रिष्तों में दुख तथा कष्ट का कारण बनता है। द्वितीय, पंचम, सप्तम, अष्टम या द्वादष भाव पर क्रूर ग्रह का होना भी मधुरता को कम करने का कारण बनता है। यदि किसी के जीवन में किसी विषेष रिष्तों में कटुता तथा कष्ट उत्पन्न हो रहा हो तो उसे अपने जीवन में मधुर तथा सामंजस्य लाने हेतु विधि पूर्वक नकुल मंत्र का जाप कराना चाहिए या स्वयं करना चाहिए। जिस प्रकार नकुल ने अहि का विच्छेद करके सत्य का रूप धारण किया उसी प्रकार अपने जीवन में मधुरता की कामना से नकुल मंत्र -‘‘ यथा नकुलो विच्छिद्य संदधात्यहिं पुनः। एवं कामस्य विच्छिन्नं स धेहि वो यादितिः।। का जाप दुर्गादेवी के षोडषोपचार पूजन के उपरांत विधिवत् संकल्प लेकर इस मंत्र का जाप करने से रिष्तों की समस्त विषमाताएॅ समाप्त होकर जीवन में सुख प्राप्त होता है।
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