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कर्म और भाग्य

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ज्योतिष कर्म एवं भाग्य की सही व्याख्या करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के आधीन रहता है इसलिए उसे कर्म अवश्य करना है और जीवन का सार यही है। प्रत्येक कर्म का प्रतिफल होता है- यह एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक विचारधारा यह बताती है कि कर्म और उसका प्रतिफल एक साथ कार्य नहीं करते। हमें अकसर किसी कर्म का फल बहुत अधिक समय के बाद फलित होता दिखाई देता है। कर्म और कर्मफल को जानना एक गुप्त रहस्य है। इसे केवल ज्योतिष के आधार पर जाना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छाओं का मेल अपनी योग्यताओं से करना चाहिए। 1. पुनर्जन्म 2. कर्म: मनुष्य कर्म करने से बच नहीं सकता, यह संभव ही नहीं कि मनुष्य कर्म न करे। 3. कर्म प्रतिफल के अंतर्गत अच्छे या बुरे कर्मों का भोग यही कर्म चक्र है। स्मृति में कहा गया है: अवश्यमनु भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। ना भुक्तं क्षीयते कर्म कतप कोटि शतैरपि।। अर्थात प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का अच्छा या बुरा फल अवश्य भोगता है। पुनर्जन्म के विषय हिंदू वैदिक ज्योतिष की आस्था है। तभी तो भगवत् गीता में भगवान ने कहा है ‘‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्यु र्धुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्ये न त्वं शोचितुर्महसि।।’’ अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। उसी प्रकार जो मर गए हैं उनका जन्म निश्चित है। कर्मांे के सिद्धांत का अर्थ इस प्रकार से हो सकता है- एक विचार को बोना किसी कार्य को काटना, किसी कार्य को बोना किसी आदत को काटना, किसी आदत को बोना किसी चरित्र को काटना और किसी चरित्र को बोकर अपने भाग्य का निर्माण करना, कुंडली में दशम का व्यय स्थान भाग्य स्थान होता है। भाग्यरूपी बीज से जो वृक्ष तैयार होता है वह कर्म है। प्रकरांतर से कर्म वृक्ष का बीज भाग्य है। इस बीज को प्रारब्ध कहा गया है। बीज तीन प्रकार के होते हैं। 1. वृक्ष से लगा अपक्व बीज (क्रियमाण कर्म) 2. वृक्ष से लगा सुपक्व बीज जो बोने के लिए रखा है (संचित कर्म) 3. क्षेत्र में बोया गया बीज जो कि अंकुरित होकर विस्तार प्राप्त कर रहा है (प्रारब्ध कर्म) इससे स्पष्ट है कि कर्म ही भाग्य है। जो कर्म किया जा रहा है और पूरा नहीं हो पाया है वह क्रियमाण कर्म है। जो कर्म किया जा चुका है किंतु फलित नहीं हुआ है वह संचित कर्म है। यही जो संचित हो चुका है, जब फल देने लगता है, तो प्रारब्ध कहलाता है। यह दिखाई नहीं देता क्योंकि यह पूर्व कर्मों का अच्छा या बुरा फल है। यह अदृष्ट है, यही भाग्य है। कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह दशम भाव ‘क्षेत्र’ में बोया जाता है, बढ़ता और फैलता है और पक कर पूर्ण होता है। तब यह नवम भाव में आकर पूर्णरूप से संरक्षित होता है। कालांतर में परिणामशील होकर भाग्य नाम से जाना जाता है। सम्यक प्रकार से किया गया कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता, उसका फल मिलना निश्चित है। अतः संकल्पपूर्वक कर्म करना चाहिए। यही कारण है कि धार्मिक कर्मकांडों में संकल्प पूर्व में पढ़ा जाता है। यह संकल्प कर्म व्यक्ति का पीछा करता रहता है। जब तक कर्ता नहीं मिल जाता तब तक वह उसे ढंूढता रहता है, भले ही इसमें पूरा युग ही क्यों न लग जाए। सैकड़ों जन्मों तक कर्ता को अपने कर्म फल का भोग करते रहना पड़ता है, इससे पिंड नहीं छूटता। शास्त्र में कहा गया है: यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्व कृतं कर्म कर्तारम अनुगच्छति।। अर्थात जिस प्रकार हजारों गौओं के झुंड में बछड़ा अपनी माता का ठीक ठाक पता लगा लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। जन्म कुंडली में दशम भाव कर्म स्थान है, कर्म का पराक्रम जन्म कुंडली का व्यय भाव होता है। कर्म का व्यय शुभ या अशुभ, दशम भाव का व्यय नवम भाग्य या धर्म के रूप में जन्म समय से ही अदृष्ट रूप से छिपा रहता है। दशम भाव का सुख भाव या चतुर्थ से जाया का संबंध है और व्यय अर्थात 12वां भाव, जो कर्म का पराक्रम है, चतुर्थ भाव से पुत्रकारक संबंध रखता है, अतः जैसा कर्म किया जाएगा वैसा ही फल का भोग किया जाएगा। क्योंकि जन्म कुंडली का अष्टम भाव, जो कि कर्म भाव से एकादश है, रंध्र है। एक अत्यंत गंभीर विचारशील भाव है दशम भाव से सातवां भाव चतुर्थ और चतुर्थ या जाया कारक से पांचवां भाव जन्म कुंडली का अष्टम भाव जो चतुर्थ का गर्भ स्थान है और श्रेष्ठ गर्भ अच्छी संतान को जन्म देता है, जो कि जन्म कुंडली का द्वितीय भाव या वाणीकारक दशम भाव का संतान कारक भाव होता है अच्छी वाणी ही अच्छे संस्कार का दर्पण है। द्वितीय भाव से पंचम भाव जन्म कुंडली का छठा भाव, पंचम भाव से पंचम शत्रु रोग बुद्धि का धन आदि के रूप में जाना जाता है। इसी कारण व्यक्ति के जीवन में दूसरे, छठे और दसवें भावों का प्रमुख स्थान है। लेकिन मूल में तो केवल दशम भाव ही होता जो गर्भरूपी अष्टम भाव में छिपे रहते हैं। गर्भ में भी नौ मास का समय लगता है। उपर्युक्त वातावरण आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। इस तरह जन्म कुंडली के अष्टम भाव में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं, यह परीक्षण स्थान है। यदि अष्टम भाव से व्यय पर ध्यान दें जन्म कुंडली सप्तम भाव और नवम भाव या भाग्य स्थान जो अष्टम का खरा सोना रूपी धर्म है यही तो भाग्य है। इस कारण दशम भाव से दशम सप्तम भाव भावत भावम् कर्म बनता है। दशम भाव का व्यय भाव और अष्टम का सुरक्षित धन भाग्य होता है, इस कारण अष्टम भाव में रहस्य है। चूंकि भाग्य भाव से पंचम भाव स्थम् लग्न कंुडली होती है क्योंकि भाग्य की संतान व्यक्ति या जातक होता है, इस कारण कर्मों का फल जातक शरीर प्राप्ति के बाद भोगता है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- जो विधिना ने लिख दिया छठी रात्रि के अंक। राई घटै न तिल बढ़ै रह रे जीव निशंक।।