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सप्तमभाव लग्न कुंडली में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। लग्न से सातवाॅ भाव ही दांपत्य व विवाह का ग्रह माना जाता है। इस भाव एवं इस भाव के स्वामी के साथ स्थिति ग्रहों की स्थिति और दृष्टि संबंध के अनुसार जातक का वैवाहिक जीवन के सुख-दुख का निर्धारण किया जाता है। विवाह से संबंधित विष्लेषण करते समय तीन बातें महत्वपूर्ण होती हैं, पहला सप्तमभाव, दूसरा सप्तमाधिपति, तीसरा कारक ग्रह जोकि कालपुरूष का शुक्र है। अन्य विचारयोग्य बातें हैं सप्तमस्थ ग्रह तथा सप्तमेष ग्रह से अन्य ग्रहों की संबंध स्थापना कैसी है। सातवां भाव में यदि नवमेष या राषिस्वामी संबंधित है तो वैवाहिक सुख प्राप्त होगा, सप्तमभाव किसी प्रकार से द्वितीय, सप्तम या ग्यारहवें भाव से संबंधित हो तो पति-पत्नी को सभी प्रकार का सुख मिलेगा तथा जीवनसाथी भाग्यषाली होगा। किंतु सातवाभाव किसी प्रकार से छः आठ बारह भाव से संबंधित हो तो जीवन में वैवाहिक कष्ट, विवाद तथा अलगाव की स्थिति निर्मित होती है। इसी प्रकार सप्तमाधिपति यदि उत्तम स्थिति में हो तो जीवनसाथी से आनन्द, सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा भौतिक सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। सप्तमाधिपति यदि बुरी स्थिति में हो तो हर प्रकार से वैवाहिक जीवन कष्टकारी होता है। इसी प्रकार सुख तथा समृद्धि का कारक ग्रह शुक्र को माना जाता है जोकि द्वितीय तथा सप्तम स्थान का स्वामी होता है अतः हर प्रकार के सुख हेतु शुक्र की अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति पर विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। सप्तमभाव, सप्तमाधिपति अनुकूल होने पर भी शुक्र की अनुकूल तथा प्रतिकूल स्थिति वैवाहिक जीवन में सुख तथा अन्य सुविधा प्राप्ति हेतु महत्वपूर्ण होता है।
सप्तमस्थ शनि से प्रभावित वैवाहिक जीवन
सप्तम भाव में यदि शनि स्थित होता है तो जातक का विवाह में विलंब व बाधा का संकेत माना जाता है। यदि सप्तम भाव में षनि हो तो या सप्तमेष से युक्त शनि हो तो जातक का वैवाहिक जीवन पारिवारिक सदस्यों के कारण बाधित होता है। वहीं पर यदि शनि के साथ चंद्रमा हो तो जातक का अपने जीवनसाथी के प्रति लगाव ना होकर अन्य किसी से प्रेम संबंध जातक के वैवाहिक जीवन में दुख का कारण बनता है। यदि सप्तम स्थान में शनि के साथ सूर्य की युति बनती हो तो जातक का अविवाहित बनने का योग बन जाता है। यदि शनि से युत राहु हो तो जातक का वैवाहिक जीवन एक रहस्य की तरह असफल माना जाती है। सप्तम स्थान पर शनि मंगल के होने से जातक को जीवनसाथी से प्रताडित होने के योग बनते हैं। इस प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेष का शनि से युत होने पर वैवाहिक जीवन बाधित ही होता है। किंतु सप्तमभाव में शनि शुक्र या बृहस्पति के साथ हो तो वैवाहिक जीवन में प्यार एवं आपसी समझ दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में वैवाहिक विलंब तथा कष्ट का कारण शनि हो तो बाधा को दूर करने हेतु सौभाग्याष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् का पाठ किसी विद्वान आचार्य के द्वारा कराया जाकर हवन, तर्पण, मार्जन आदि कराने से वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है।
सप्तम भाव में यदि शनि स्थित होता है तो जातक का विवाह में विलंब व बाधा का संकेत माना जाता है। यदि सप्तम भाव में षनि हो तो या सप्तमेष से युक्त शनि हो तो जातक का वैवाहिक जीवन पारिवारिक सदस्यों के कारण बाधित होता है। वहीं पर यदि शनि के साथ चंद्रमा हो तो जातक का अपने जीवनसाथी के प्रति लगाव ना होकर अन्य किसी से प्रेम संबंध जातक के वैवाहिक जीवन में दुख का कारण बनता है। यदि सप्तम स्थान में शनि के साथ सूर्य की युति बनती हो तो जातक का अविवाहित बनने का योग बन जाता है। यदि शनि से युत राहु हो तो जातक का वैवाहिक जीवन एक रहस्य की तरह असफल माना जाती है। सप्तम स्थान पर शनि मंगल के होने से जातक को जीवनसाथी से प्रताडित होने के योग बनते हैं। इस प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेष का शनि से युत होने पर वैवाहिक जीवन बाधित ही होता है। किंतु सप्तमभाव में शनि शुक्र या बृहस्पति के साथ हो तो वैवाहिक जीवन में प्यार एवं आपसी समझ दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में वैवाहिक विलंब तथा कष्ट का कारण शनि हो तो बाधा को दूर करने हेतु सौभाग्याष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् का पाठ किसी विद्वान आचार्य के द्वारा कराया जाकर हवन, तर्पण, मार्जन आदि कराने से वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है।