कहा तो यहां तक जाता है कि जिस व्यक्ति के प्रारब्ध में कष्ट लिखा होता है उसका जन्म विपरीत ग्रह नक्षत्र एवं कष्टित परिवार में होता है। गरूड पुराण में वर्णन है कि किंतु देखने में यह भी आया है कि जिनके प्रारब्ध उत्तम नहीं होते उन्हें बचपन से ही कष्ट सहना होता है। उनका जन्म परिवार के विपरीत परिस्थितियों में होता है और जिन्हें बड़ी उम्र में कष्ट सहना होता है, उनका कार्य व्यवसाय या बच्चों का भाग्य बाधित हो जाता है। इससे जाहिर होता है कि आपका प्रारब्ध कभी ही आप पर असर दिखा सकता है।
हिंदु रिवाज है कि पूर्वजो के किसी प्रकार के अशुभ या नीति विरूद्ध आचरण का दुष्परिणाम उनके वंशजो को भोगना पड़ता हैं। माना जाता है कि व्यक्ति का अपना प्रारब्ध ही उसके जन्म का आधार बनता है, जिसके तहत उसका पालन-पोषण तथा संस्कार निर्धारित होते हैं। जातक द्वारा पूर्व जन्म में किए गए या इसी जन्म में पूर्वजों द्वारा किए गए गलत, अशुभ, पाप या अधर्म का फल जातक को कष्ट, हानि, बाधा तथा पारिवारिक दुख, शारीरिक कष्ट, आर्थिक परेशानी के तौर पर भोगना होता हैं यह प्रभाव पितृदोष के हैं यह पता लगाने के लिए जातक या परिवारजनों के जीवनकाल में विपरीत स्थिति या घटना जिसमें अकल्पित असामयिक घटना-दुर्घटना, जन-धन हानि, वाद-विवाद, अशांति, वंश परंपरा में बाधक, स्वास्थ्य, धन अपव्यय, असफलता आदि की स्थिति बनने पर पितृदोष का कारक माना जा सकता है। पितृदोष का प्रत्यक्ष कुंडली में जानकारी प्राप्त करने हेतु जातक के जन्म कुंडली के द्वितीय, तृतीय, अष्टम या भाग्य स्थान में प्रमुख ग्रहों का राहु से पापाक्रांत होना पितृदोष का कारण माना जाता हैं माना जाता है कि प्रमुख ग्रह जिसमें विशेषकर शनि यदि राहु से आक्रांत होकर इन स्थानों पर हो तो जीवन में कष्ट का सामना जरूर करना पड़ सकता हैं। इसके निवारण के लिए किसी नदी के किनारे स्थित देवता के मंदिर में किसी भी माह के शुक्लपक्ष की पंचमी अथवा एकादशी अथवा श्रवण नक्षत्र में विद्वान आचार्य के निर्देश में अज्ञात पितृदोषों की निवृत्ति के लिए पलाश विधि के द्वारा नारायणबलि, नागबलि तथा रूद्राभिषेक कराना चाहिए। किंवदति है कि यह पूजा किसी विशेष स्थान पर ही हो सकती है पर ऐसा नहीं है। यह पूजा किसी भी नदी के किनारे संभव है परंतु इस विषय में ग्रंथ का अभाव है इस स्थिति में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जिन आचार्यो से आप पूजा करा रहे हैं, उनके पास यह पूजा विधि अवश्य हों। ऐसा करने से संतति अवरोध, वंश परंपरा में बाधा, अज्ञात रोगों की व्याप्ति, व्यवसायिक असफलता तथा पारिवारिक अशांति व असमृद्धि जैसे पीड़ा से मुक्ति पाई जा सकती है। ऐसा धर्म सिंधु ग्रंथ में तथा कौस्तुभ ग्रंथों में लिखा है। इस विधि द्वारा गर्भ में आने वाले शिशु के सुखद और उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती है अत: उचित उपाय अपनाते हुए अपने पितरों द्वारा की गई भूल या हुई चूक के दोष को दूर कर अपने आने वाली पीढिय़ों को सुख, समृद्धि तथा ऐश्वर्यशाली बनाया जा सकता है।