मृत्यु के पश्चात् इस जीवन का क्या होता है? यह प्रश्न आदिकाल से मनुष्य के मस्तिष्क को कचोटता रहा है। वेदों के अनुसार यह शरीर इस जीव का केवल एक चोला मात्र है एवं मृत्योपरांत जीव इस चोले को छोड़ दूसरे चोले में चला जाता है, अर्थात पुनर्जन्म हो जाता है। जो जीव इस मनुष्य शरीर में रहते हुए, लौकिक संपदा से अपने को अलग कर लेते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता है और वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। वेदानुसार जो (जीव) मनुष्य को सुख दुःख का अनुभव कराता है, वह केवल अंगुष्ठ मात्र है।
शरीर से किये हुए कर्म जीव के साथ चलते हैं एवं उन्हीं शुभाशुभ कर्मानुसार जीव की गति होती है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को प्राप्त करती है। जीव अपने कर्मो के अनुसार या तो भूलोक से ऊपर की ओर अथवा नीचे की ओर जाता है।
पृथ्वी लोक से ऊपर सात लोक हैं – 1. सत्य लोक 2. तप लोक 3. महा लोक, 4. जन लोक, 5. स्वर्ग लोक, 6. भुवः लोक 7. भूमि लोक । भूमि लोक में जीवात्मा के साथ भूत, प्रेत एवं क्षुद्र आत्माएं निवास करती हैं। भुवः लोक में पितरों का विचरण स्थल माना गया है। स्वर्ग लोक में दिव्य आत्माएं, जन लोक में यज्ञ कर्ता की आत्माएं, महालोक में समाधि लेने वाले जातक की आत्माएं, तप लोक में सर्वोत्तम आत्माएं एवं सत्य लोक में ईश्वरीय, रक्षक एवं पालक महाशक्तियां निवास करती हैं।
पृथ्वी के नीचे 1. तल, 2. अतल, 3. सुतल, 4. तलातल, 5. महातल, 6. रसातल 7. पाताल लोक हैं। यहां पर निकृष्ट से निकृष्टतम जीव निवास करते हैं।
मृत्योपरांत जीव पुनर्जन्म से पहले प्रेत योनि को प्राप्त होता है, तदुपरांत पितृ योनि को प्राप्त होता है। पुनर्जन्म होने के पश्चात तो जीव को अपने कर्म या भोग के अनुसार फल प्राप्त होते हैैं, लेकिन प्रेत या पितृ योनि में इस जीव को कोई कष्ट न हो इसके लिए ‘श्राद्ध’ किया जाता है।
अर्थात पितृ लोक में जल की मात्रा न होने के कारण पितरों को उनके संबंधियों द्वारा श्राद्ध में दिया गया जल ही उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध में ब्राह्मणों को दिया गया भोजन पितरों को प्राप्त होता है, जिससे उन्हें शांति मिलती है। इस प्रकार ये तृप्त पितृ जातक को आशीर्वाद रूप में धन, धान्य एवं सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। इस आशीर्वाद को प्राप्त करने हेतु एवं अतृप्त पितरों से किसी प्रकार के नेष्ट बचाने हेतु ही ‘श्राद्ध’ कर्म किये जाते हैं।
पुनर्जन्म की वैज्ञानिक मान्यता कुछ भिन्न ही है। इसके अनुसार जीवन एक जैव रासायनिक क्रिया है एवं शरीर पंचधातु का बना एक जैविक पदार्थ है। चेतनता सर्वदा पदार्थ में विद्यमान है जाग्रत या सुषप्त। जैविक क्रियाओं के कारण यह शरीर बड़ा होता है और अहस्तांतरित क्रिया (पततमअमतेपइसम तमंबजपवदे) के कारण मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्योपरांत पंचभूतों से बना शरीर पंचभूत में मिल जाता है। जैसे लहर के समुद्र में समा जाने के बाद उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता, या उसी लहर का पुनर्जन्म नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार इस शरीर का इस पंचभूत में समा जाने के बाद इसका पुनर्जन्म नहीं होता है। केवल इस शरीर से मोह हमें पुनर्जन्म के बारे में सोचने को प्रेरित करता है। जिस प्रकार से माली अनेक पौधे लगाते हैं, कुछ बहुत अच्छे बनकर खिलते हैं एवं कुछ बीज उगते ही नहीं या कुछ को पानी एवं भोजन तक नहीं मिल पाता। इसी प्रकार कुछ मनुष्य बहुत ऊंचाईयों पर पहुंच जाते हैं और कुछ बिल्कुल पिछड़े ही रह जाते हैं। मनुष्य कर्म भी भाग्यानुसार बनते हैं एवं आवश्यक नहीं कि कर्म के अनुसार फल प्राप्त हों। कर्म और फल में अंतर को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर समझा दिया जाता है, जबकि वैज्ञानिक मतानुसार यह अंतर प्राकृतिक होता है।
यदि पुनर्जन्म नहीं है और केवल प्रकृति ही भौतिक रुप में काम कर रही है, तो वेदों में पुनर्जन्म के बारे में क्यों दिया गया है? क्या वेद गलत हैं? वैज्ञानिक मतानुसार शायद वेदों में जीवन को जीने की कला दी गई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जीवन को जीने के लिए कुछ आधार चाहिए, क्योंकि बिना आधार के जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन हो जाता है। उसी आधार को देने के लिए वेदों में पुनर्जन्म की स्थापना की गई है। पूर्वजों में आस्था एवं उनसे मानसिक लगाव के कारण एवं उनसे आर्शीवाद प्राप्त करने हेतु ही, मनुष्य श्राद्ध कर्म करता है। अन्ततः कुछ भी सच हो, वेद या विज्ञान, यह सच है कि, पुनर्जन्म को मानने से ही मनुष्य अपने आपको समाज के बंधन में महसूस करता है एवं कोई गलत कार्य करने से डरता है, जो कि समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।