व्यक्ति अपने जीवन में विध्या-न-किसी संवेग का अनुभव करता है। प्रेम, क्रोध, भय, हर्ष आदि भावनात्मक अनुभव संवेग के ही उदाहरण है। सवेरा और अथिप्रेश्या। में घनिष्ट संम्बन्ध है। जिस प्रकार अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को सक्रिय करता है उसी प्रकार संवेग भी व्यवहार को ऊर्जा प्रदान करते है। क्रोध, भय, प्रसन्नता दुख आदि को संवेग कहते है किन्तु ,भूख, प्यास , थकान आदि अवस्थाओं को प्रेरक कहते है। संवेग और प्रेरक के मध्य अतर इस आधार पर किया जा सकता है कि संवेग बाह्य उधिपकों से उत्पन्न होते है तथा संवेगात्मक व्यवहार आत्मगत तथा भावात्मक होते है जबकि प्रेरक प्राय: आंतरिक उद्धिप्कों से उत्पन्न होते है तथा परिवेश के कुछ निश्चित वस्तु की ओंर निर्देशित होते है जैसे भोजन, पानी आदि तीव्र संवेगात्मक व्यवस्था में व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है जिससे उसके अनुभव व्यवहार तथा शारीरिक क्रियाएँ सामान्य से भिन्न प्रकार की हो जाती है। यहीं नहीं संवेगावस्था में व्यक्ति के शारीरिक प्रकमों की गति तथा तीव्रता में भी परिवर्तन हो जाता है और व्यक्ति भिन्न तथा विशेष प्रकार का व्यवहार प्रकट करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संवेगावस्था एक विशेष प्रकार की जटिल अवस्था है जो प्राणी के सम्पूर्ण शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं को प्रभावित करती है।
मानसिक विकारों के कारकों के रूप में पहले संवेगों को कोई स्थान नहीं प्राप्त था, लेकिन आधुनिक मनोविकृत विज्ञान में असामान्य व्यवहारों का कारण दोषपूर्ण संवेगात्मक (भावात्मक ) विकास माना जाने लगता है क्योकि, व्यक्ति के संज्ञान से महत्त्वपूर्ण उससे उत्पन्न संवेग है जो प्राणी में तीव्र उपद्रव उत्पन्न करते है तथा जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा इसमें व्यवहार, चेतन, अनुभव तथा आतरावयव क्रियाएँ सम्मिलित है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संवेग अनियंत्रित और असुखद होता है, जो प्राणी में होने वाले समान्यीकृत बाधाएँ व झकझोर की स्थिति की ओर संकेत करता है, इसीलिये ब्लुलर ने अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है कि सभी मनोविकृत रोगी सर्वाग विकृत रोगी ही होते है |इनके मतानुसार व्यक्ति के मनोविकुत होने में मानसिक कारकों की भूमिका नहीं होती हैं , वरन सवेगात्मक कारकों के ही कारण मनोंविकृत पाई जाती है। अत: संवेगात्मक कारकों पर नियन्त्रण आवश्यक है क्योंकि निषेधात्मक संवेगों यथा भय हैं क्रोध, आदि के कारण प्राणी के क्रुसमायेत्कान पाया जा सकता है। अत इस बात का प्रयास करना चाहिये कि निषेधात्मक संवेगों के स्थान पर सुखद संवेगों का जाम हो जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व में विघटन न पाया जाय और उसके व्यक्तित्व का समुचित विकास हो सके | व्यक्ति के समुचित विकास के लिये संवेगात्मक संतुलन का होना आवश्यक है।
संवेगात्मक प्रक्रमों से संबंधित असामान्यताओं का वर्णन निम्नलिखित है
1. उदासीनता -व्यक्ति में कभी-कभी इस प्रकार की प्रवृत्ति दिखाई पडती है कि परिवार, व्यवसाय तथा संसार के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपना लेता है। यही नहीं सुख-सुविधाओं के प्रति भी उनमें उदासीनता दिखाई पडती है। इस अवसाद एवं उदासीनता के कारण व्यक्ति का शारीरिक स्वभाव संतोषजनक हो जाता है व्यक्ति न तो उसका पाचन तन्त्र ठीक से कार्य करता है और न उसके अन्य शारीरिक अंग शारीरिक असंतुलन के कारण व्यक्ति में उदासीनता पाई जाने लगती है।
2. अतिसंवेदिता-जब व्यक्ति किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति समान्य अनुक्रिया प्रकट करने में उदासीनता प्रकट करे तो व्यक्ति का व्यवहार उदासीन माना जाता है लेकिन जब व्यक्ति में भौतिक तथा सामाजिक घटनाओं के प्रति तीव्र उन्माद अथवा अवसाद पाया जाय तो उसे अतिसंवेदित की संज्ञा दी जाती है। ऐसे व्यक्तियों में तीव्र विचारों की उडान पाई जाती है तथा शारीरिक क्रियाओं में उत्तेजना एवं शीघ्रता भी पाई जाती है। इन लोगों में प्रचण्ड संवेदनशीलता स्पष्टत: दिखाई पडती है। ऐसे व्यक्ति सामान्यतया अप्रसन्नत्ता अनुभव करते है। अव्यवस्थित तथा उद्वेलित होते है लेकिन अवसाद की यह स्थिति तब तक ही बनी रहती है जब तक घटनाएँ इन्हें याद रहती है। भूल जाने पर अवसाद का प्रभाव भी समाप्त हो जाता है लेकिन कभी-कभी विषाद की स्थिति इतनी तीव्र हो जाती है कि व्यक्ति को अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है, तथा ऐसे व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेते है।
3. दुर्भिती -व्यक्ति में अतिसंवेदशीलता के कारण ही दुर्भिती की स्थिति परिलक्षित होती है जिससे व्यक्ति में असामान्य व्यवहार दिखाई पड़ते है जो उनके समायोजन में अवशेष उत्पन्न करते है।दुर्भिती के कारण व्यक्ति में असामान्य मानरिस्क स्थिति पाई जाती है तथा उसे अपने भय का कारण नहीं ज्ञात होता है। उसका भय काल्पनिक होता है। इस स्नायुविकार का कोई अर्थ नहीं होता है। दुभीति के विकास के कारण व्यक्तित्व में विघटन पाया जाता है। ऐसा रोगी शारीरिक दुर्बलत्ता, कमर दर्द तथा पेट की गडबडी अनुभव करता है। ऐसे व्यक्तियो की स्वभाविक दिनचर्या गड़बड़ हो जाती है उनमें आत्महीनता विकसित हो जाती है। जब परिवार के लोग उसके अकारण भय के बारे में उसे बताते है, तो वह इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि वह अकारण भय से ग्रस्त है।
4 अतिशय साहस -कभी-कभी व्यक्ति के व्यवहार में अभूतपूर्व साहस का लक्षण दिखाई देता है। वह व्यक्ति जोखिम पूर्ण कार्यों को मुस्कराकर करना चाहता है। परन्तु यह व्यवहार सामान्य व्यवहार की श्रेणी में नहीँ आता है। क्योंकि सामान्य जोखिम पूर्ण कार्य करने से पहले उसके लाभ व हानि के विषय में विचार करता है। परन्तु अभूतपूर्व साहस पूर्ण कार्य आवेग की स्थिति में करना एक प्रकार का असामान्य व्यवहार है ऐसे व्यवहारों का कारण व्यक्ति में अपने कर्तव्यों के प्रति तीव्र बोध है।
5. दुश्चिन्ता-दुयिचन्ता का स्वरूप विषयनिष्ठ रहना है, दुश्चिन्ता की स्थिति में व्यक्ति अपने भावी संकट वे, प्रति अत्यधिक चिंतित रहता है त्तथा इसके कारण ही वह भावी संकटों के प्रति अत्यधिक निन्दित रहता है ऐसे व्यक्ति में अनेक प्रकार की आशंकाएं पाई जाती हैं ऐसे व्यक्ति की दुश्चिन्ता केवल एक विषय पर ही न केन्दित रहकर अनेक वस्तुओं एवं विषयों पर बदलती रहती है जिससे व्यक्ति में मुक्त दुश्चिन्ता पाई जाती है। व्यक्ति की दुश्चिन्ता उसके भविष्य, सम्पति, सुरक्षा, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित होती है। ऐसे व्यक्ति पर सदविचारों एवं उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब तक भय समाप्त नहीं होता है तब तक व्यक्ति के दुश्चिन्ता रहने की संभावना पाई जाती है। परिणामस्वरूप उसके अमामान्य व्यवहार पाये जाने लगते हैँ।
6. चिड़चिड़ापन -जब व्यक्ति के उपयुक्त पारिवारिक प्रशिक्षण नहीं प्राप्त होता हैं तो व्यक्ति में असामान्य व्यवहार पाया जाता है। उसे विभिन्न व्यक्तियों के प्रति उपयुक्त सामाजिक अनुक्रिया का ढंग नहीं मालूम होता है। परिणामस्वरूप उसमें थोड़ी-सी अप्रिय बात सहन करने की क्षमता का अभाव पाया जाता है । वह नापसंद आने वाली बात पर सरलता में कुछ हो जाती है | चिड़चिड़े व्यक्ति कब क्रोधित हो जायेगे, यह नहीं कहा जा सकता है | मिरगी का रोगी भी छोटी-छोटी बातों पर क्रुद्ध हो जाता है। चिड़चिड़े व्यक्तियों पर जब कोई प्रतिबंध है हैं तो प्रतिबन्धों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। फलस्वरूप उनमें उतेजना अधिक पाई जाती है और वे अपने व्यवहार में क्रोध और चिढ़चिढ़ापन दिखाते हैं।
7) स्वाभाव उग्रता -कुछ माता-पिता बाल्यावस्था में अपनी संतान की सभी इच्छाओं को पूरा करते है चाहे उनके प्रयास करने है चाहे उनको पूरा करने के लिये उसे भले ही कठिनाई उठानी पड़े। ऐसो अवस्था में बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये माता-पिता पर दबाव डालता है और उनसे जिद करता है और अपनी मागों को पूरा कराता है लेकिन जब उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती हैं तब उनका स्वाभाव उग्र हो जाता है। जब बालक प्रौढ़ होता है तो उस समय भी वह अपनी बात मनवाने का प्रयास करता है ऐसा न होने पर वह अपनी प्रतिष्ठा पर आघात अनुभव करता है और उसका स्वाभाव उग्र हो जाता है।
8. प्रेम -बच्चे अपने माता-पिता से प्रेम भी प्राप्त करते है और दण्ड भी, जो उनके विकास प्रक्रिया क्रो महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है, बच्चा उन्हीं कार्यों को ही करना चाहता है जिससे उसे सुखद अनुभूति हो, वह उन कार्यों को त्याग देता है जो उनके दुखद अनुभूति के करण होते है। बच्चा सदैव अपने व्यवहार अभिव्यक्ति में इस बात का प्रवास करता है कि उसे संतोष और आनन्द प्राप्त होता रहे। जब व्यक्ति अपने स्वाभाविक गतियों को बनाये रखता है तो अन्य शारीरिक क्रियाएँ भी संतुलित प्रवर से घटित होती है। जो व्यक्ति के सामान्य व्यव्हार को व्युत्पन्न करती है परन्तु जब व्यक्ति को अपने वातावरण से असंतोष होता है, तो शारीरिक क्रियाओं में असंतुलन पाया जाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति में असामान्य व्यवहारों की उत्पत्ति होती है जो उसे असमायोजित बनाती है। अस्तु बच्चे में प्रेमभाव विकसित करने का सक्रिय प्रयास मातापिता को करना चाहिये जिससे वह एक सभ्य नागरिक बन सके और राष्ट्र का कर्णधार बन सके।
10. घृणा -जब व्यक्ति को किसी अनुक्रिया (व्यवहार) के परिणामस्वरूप दुखद अनुभूति होती है तब घृणा की अनुभूति होती है। घृणा में प्रेम के विपरीत अनुभूति होती है जो व्यक्ति एल उधिपक के प्रति आकर्षण नहीं वरन् विकर्षण का भाव विकसित करता है। प्रेम का भाव व्यक्ति में सदगुणों का विकास करता है जबकि घृणा दुर्गुणों को विकसित करता है जो बाद में व्यक्ति में असमान्य व्यवहार के रूप में पाये जाते है।
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