सूर्य को ग्रहों का राजा कहा जाता है। जो ग्रह सूर्य से एक निष्चित अंषों पर स्थित होने पर अपने राजा के तेज और ओज से ढंक जाता है और क्षितिज पर दृष्टिगोचर नहीं होता तो उसका प्रभाव नगण्य हो जाता है। भारतीय फलित ज्योतिष में ग्रहों की दस अवस्थाएं हैं। दीप्त, स्वस्थ, मुदित, शक्त, षान्त, पीडित, दीन, विकल, खल और भीत। जब ग्रह अस्त हो तो विकल कहलाता है। अस्त होने का दोष सभी ग्रहांे को है। सूर्य से ग्रह के बीच एक निष्चित अंषों की दूरी रह जाने पर उस ग्रह को अस्त होने का दोष माना जाता है। चन्द्रमा जब सूर्य से 12 अंष के अंतर्गत होता है तो अस्त माना जाता है। इसी प्रकार मंगल 7 अंषों पर, बुध 13 अंषों पर, बृहस्पति 11 अंषो पर, शुक्र 9 अंष और शनि 15 अंष में आ जाने पर अस्त होते हैं। ये प्राचीन मान्यताएं हैं। वर्तमान में कुछ विद्वानांे का मत है कि ग्रह को तभी अस्त मानना चाहिये जबकि वह सूर्य से 3 अंष या इससे कम अंषों की दूरी पर हो। जो ग्रह सूर्य से न्यूनतम अंषों से पृथक होगा उसे उसी अनुपात में अस्त होने का दोष लगेगा। चन्द्रमा और बुध अस्त होने की स्थिति:- बुध प्रायः अस्त रहता है क्योंकि वह सूर्य के निकट रहता है। यही कारण है कि इसे अस्त होने का दोष नहीं लगता। बुध और सूर्य की युति को बुधादित्य योग के नाम से जाना जाता है। यह एक शुभ योग है। चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। प्रत्येक माह की पूर्णिमा के उपरांत चंद्रमा और सूर्य के मध्य के अंष कम होने लगते हैं। अमावस्या के समय चन्द्रमा और सूर्य लगभग समान अंषों पर होते हैं। चंद्रमा जब सूर्य से 12 अंषांे से कम दूर होता है तो अस्त होने का दोष माना जाता है परन्तु चन्द्रमा को तभी शुभ फलदायी समझना चाहिये जबकि वह न्यूनतम 70 अंष दूर हो। यदि चंद्रमा और सूर्य के बीच इससे कम अंषांे का अन्तर होता है तो चंद्रमा स्वयं बली न होकर उस राषि या ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है जिस से कि वह प्रभावित हो। यह शुभ स्थिति नहीं है। चंद्रमा जितना सूर्य के निकट होगा उतनी उसकी कलायें कम होंगी। अस्त ग्रह जीवन के दो पहलुओं पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। जन्म लग्न में विभिन्न भावांे से अलग-अलग पहलुओं को देखा जाता है। जब कोई ग्रह अस्त होता है तो उसके नैसर्गिक गुण प्रभावित होते हैं। साथ ही वह जिस भाव का स्वामी होता है उसके फलांे में भी विलंब करता है। जैसे यदि बृहस्पति अस्त है और वह सप्तमेष है तो न केवल स्त्री सुख में बाधा बल्कि जातक में भी विवेकषीलता का अभाव होगा। इस प्रकार जब शुक्र चतुर्थेष होकर अस्त हो और अष्टमस्थ हो तो जातक में यौन शक्ति का अभाव होता है। यौन रोग होते हैं, माता के सुख में न्यूनता आती है। वाहन और भवन सुख में भी कमी आती है। अस्त ग्रह को बली नहीं समझना चाहिये। यदि सूर्य से अस्त ग्रह का अंषात्मक अंतर 3 अंष से अधिक है तो अस्त होने का दोष नष्ट हो जाता है। अस्त ग्रह सदैव दुष्फल देते हैं। कुछ स्थितियां ऐसी भी होती हैं जबकि अस्त ग्रह जिसका वह स्वामी है, के लिये शुभ स्थिति मंे होता है। सभी भावों में गुण दोष होते हैं परन्तु त्रिक भावांे में अषुभ फलांे की अधिकता होती है। हमारे विद्वानों का मानना है कि अस्त ग्रह त्रिक भावांे 6-8-12 में हों तो फलांे की वृद्धि होती है अर्थात ये भाव अपने अषुभ परिणामों को प्रकट नहीं कर पाते। इसका दूसरा पक्ष भी है। जब इन भावों अर्थात 6-8-12 के स्वामी अस्त हों तो समृद्धि आती है और सफलता मिलती है। यह स्थिति विपरीत राजयोग होती है।
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