मार्गषीर्ष शुक्ल- पक्ष नवमी को श्री महानंदा नवमी व्रत किया जाता है। माना जाता है कि इस दिन श्री की देवी का पूजन करने से दारिद्रय सामाप्त होकर संपन्नता तथा विष्णुलोक की प्राप्ति होती हैं इस दिन पूजनस्थल के मध्य में एक बड़ा अखण्ड दीपक जलाकर रात्रि जागरण एवं ओं हृीं महालक्ष्म्यै नमः इस महालक्ष्मी मंत्र का जप करना चाहिए तथा ब्रम्ह मूहुर्त में घर का कूड़ा रखकर सूपे में रखकर बाहर ले जाना चाहिए, इसे अलक्ष्मी का विसर्जन कहते हैं तथा हाथ-पैर धोकर दरवाजे पर खडे़ होकर महालक्ष्मी का आवाहन करना चाहिए। रात्रि में पूजन के उपरांत व्रत का पारण करना तथा कुॅवारी कन्या से आषीर्वाद लेना विषेष शुभ होता है।
एक बार की बात है कि एक साहूकार की बेटी पीपल में पूजा करती थी। उस पीपल में लक्ष्मीजी का वास था। लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से मित्रता कर ली। एक दिन लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी को अपने घर ले जाकर खूब खिलाया पिलाया और ढेर सारे उपहार दिये। जब वो लौटने लगी तो लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से पूछा कि तुम मुझे कब बुला रही हो। अनमने भाव से उसने लक्ष्मीजी को अपने घर आने का निमंत्रण तो दे दिया किंतु उदास हो गई। साहूकार ने जब पूछा तो बेटी ने कहा कि लक्ष्मीजी के तुलना में हमारे यहाॅ तो कुछ भी नहीं है। मैं उनकी खातिरदारी कैसे करूंगी। साहूकार ने कहा कि हमारे पास जो है हम उसी से उनकी सेवा करेंगे। बेटी ने चैका लगाया और चैमुख दीपक जलाकर लक्ष्मीजी का नाम लेती हुई बैठ गई। तभी एक चील नौलखा हार लेकर वहाॅ डाल गया। उसे बेचकर बेटी ने सोने का थाल, साल दुशाला और अनेक प्रकार के व्यंजन की तैयारी की और लक्ष्मीजी के लिए सोने की चैकी भी लेकर आई। थोड़ी देर के बाद लक्ष्मीजी गणेशजी के साथ पधारीं और उसकी सेवा से प्रसन्न होकर सब प्रकार की समृद्धि प्रदान की।
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