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गंड अरिष्टादि

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आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृत्तिका ये छह नक्षत्र ‘मूल संज्ञक’ नक्षत्र कहलाते हैं। 27 नक्षत्र को तीन भागों में बांटने पर 9 नक्षत्रों का एक भाग प्राप्त होता है जिनमें प्रत्येक नक्षत्र 9 ग्रहों से प्रत्येक का अधिपत्य रखता है। मेष, सिंह, धनु राशि का प्रारंभ केतु के नक्षत्रों से होता है। कर्क, वृश्चिक, मीन का अंत बुध के नक्षत्रों में होता है। कर्क का समाप्ति, सिंह का प्रारंभ काल, वृश्चिक का समाप्ति काल, धनु का प्रारंभ काल तथा मीन का अंत, मेष का प्रारंभ काल का जोड़ गंड कहलाता है। अर्थात जिस समय राशि तथा नक्षत्र का एक साथ अंत होता है वह समय गंड कहलाता है। आश्लेषा का अंत और मघा के प्रारंभ का काल रात्रि गंड कहलाता है। ज्येष्ठा का अंत मूल का प्रारंभ दिवा गंड कहलाता है। रेवती की समाप्ति व अश्विनी का प्रारंभ संध्या गंड कहलाता है। ज्योतिष मर्मज्ञों ने ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में पैदा हुए जातकों के बारे में यहां तक लिखा है कि इन नक्षत्रों के किसी भी अंश में उत्पन्न हुए जातक अनिष्ट करते हैं। ज्येष्ठा का अंतिम 1 घटी (2) घंटा) मूल का प्रारंभ 2 घटी (5 घंटा) तो इतना बुरा माना गया है कि ऐसे जन्म के उपरांत नौ वर्ष बाद ही पिता पुत्र का मुख देखे। अश्विनी का गंड दोष होने पर 16 वर्ष, मघा का 8 वर्ष, मूल का 4 वर्ष, आश्लेषा का 2 वर्ष, ज्येष्ठा का 1 वर्ष, रेवती का 1 वर्ष पर्यंत अनिष्ट का भय रहता है। यदि प्रातःकाल अथवा संध्या के समय जन्म हो और संध्या गंड दोष हो तो उस बालक को अरिष्ट होता है। रात्रि काल में जन्म होने से रात्रि गंड दोष से जातक की माता को अरिष्ट होता है। दिवा गंड में दिन में जन्म होने से पिता को अरिष्ट होता है। दिन में जन्म होने से रात्रि गंड और रात्रि में जन्म होने से दिवा गंड अरिष्टकारी नहीं होता है। दिवा गंड में कन्या का और रात्रि गंड में पुरुष का जन्म होने से गंड दोष नहीं लगता है। वैशाख, श्रवण और फाल्गुन में गंड दोष आकाश वासियों को लगता है। आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष और ज्येष्ठ में गंड दोष मनुष्य को तथा चैत्र, भाद्रपद अश्विन और कार्तिक में गंड दोष पाताल वासियों को लगता है। माघ में गंड दोष मृत्युकारक है। यदि आषाढ़, पौष, मार्गशीर्ष, ज्येष्ठ और माघ में गंड दोष हो तो जातक को गंड दोष होता है अर्थात शेष के मासों में गंड दोष का प्रभाव नहीं होता। चित्रा नक्षत्र में प्रारंभ में दो चरण ही कन्या राशि है, पुष्य के चारों चरण जो कर्क राशि है और पूर्वाषाढ़ के चारों चरण जो धनु राशि है, इनमें जन्म होने से क्रमशः माता-पिता तथा मामा के लिए अनिष्टकारी होता है। हस्त नक्षत्र व मघा के तीसरे चरण में माता-पिता के लिए कष्टकारी होता है। तीनांे उत्तरा नक्षत्रों का प्रथम चरण जातक स्वयं के लिए कष्टकारी होता है। चित्रा, विशाखा और हस्त नक्षत्रों में जन्म होने से माता पिता के लिए कष्टकारी होता है। मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में पिता, द्वितीय में माता, तृतीय में जन्म होने से पूरे परिवार के लिए कष्टकारी होता है, परंतु चतुर्थ चरण में जन्म हो तो उन्नति प्रदान करता है। आश्लेषा का प्रथम चरण सुखदायी है, द्वितीय चरण परिवार को, तृतीय माता को, चतुर्थ चरण पिता को कष्टकारी होता है। इन सभी अशुभ फलों का नाश लग्न में किसी बली ग्रह के विराजमान से हो जाता है। जिस नक्षत्र में जातक का जन्म हो वह जन्म नक्षत्र कहलाता है। उस नक्षत्र से दसवां नक्षत्र कर्मक्र्ष कहलाता है। जन्म नक्षत्र से 16वां नक्षत्र संघातिका, 18वां समुदाय, 19वां आघान, 23वां वैनाशिक, 25वां जाति, 26वां देश, 27वां अभिषेक कहलाता है। यदि जन्म समय इन नक्षत्रों पर पाप ग्रह स्थित हो तो जातक की मृत्यु तक हो सकती है। परंतु शुभ ग्रह का होना शुभ फलदायी होता है।