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सृष्टि के आरंभ से ही नर और नारी में परस्पर आकर्षण विद्यमान रहा है, जिसे प्राचीन काल में गंर्धव विवाह के रूप में मान्यता प्राप्त थी। आज के आधुनिक काल में इसे ही प्रेम विवाह का रूप माना जा सकता है। इस विवाह में वर-वधु की पारस्परिक सहमति के अतिरिक्त किसी की आज्ञा अपेक्षित नहीं होती। पुराणों में वणिर्त पुरूष और प्रकृति के प्रेम के साथ आज के युग में प्रचलित प्रेम विवाह देष और काल के निरंतर परिवर्तनषील परिस्थितियों में प्रेम और उससे उत्पन्न विवाह का स्वरूप सतत रूपांतरित होता रहा है किंतु एक सच्चाई है कि सामाजिकता का हवाला दिया जाकर विरोध के बावजूद आज भी यह परंपरा अपारंपरिक तौर पर मौजूद है। अतः इसका ज्योतिषीय कारण देखा जाना उचित प्रतीत होता है।
जन्मांग में प्रेम विवाह संबंधी संभावनाओं का विष्लेषण करते समय सर्वप्रथम पंचमभाव पर दृष्टि डालनी चाहिए। पंचम भाव से किसी जातक के संकल्प-षक्ति, इच्छा, मैत्री, साहस, भावना ओर योजना-सामथ्र्य आदि का ज्ञान होता है। सप्तम भाव से विवाह, दाम्पत्य सुख, सहभागिता, संयोग आदि का विचार किया जाता है। अतः प्रेम विवाह हेतु पंचम एवं सप्तम स्थान के संयोग सूत्र अनिवार्य हैं। सप्ताधिपति एवं पंचमाधिपति की युति, दोनों में पारस्परिक संबंध या दृष्टि संबंध हेाना चाहिए। प्रेम विवाह समान जाति, भिन्न जाति अथवा भिन्न धर्म में होगा इसका विचार करने हेतु नवम भाव पर विचार किया जाना चाहिए। स्फुट रूप से एकादष और द्वितीय स्थान भी विचारणीय है, क्योंकि एकादष स्थान इच्छापूर्ति और द्वितीय भाव पारिवारिक सुख संतोष के अस्तित्व को प्रकट करता है। चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। प्रेम विवाह हेतु चंद्रमा की स्थिति प्रबलता, ग्रहयुति आदि का भी प्रभाव पड़ता है। जिनके जीवन में इस प्रकार के प्रभाव से विवाह में रूकावट या कष्ट हों उन्हें षिव-पावर्ती की पूजा सोमवार का व्रत करते हुए करना चाहिए तथा शंकर मंत्र का जाप करने से बाधा दूर होती है।