सनातन हिंदू धर्म बहुत सारे संस्कारों पर आधारित है, जिसके द्वारा हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को पवित्र और मर्यादित बनाने का प्रयास किया था। ये संस्कार ना केवल जीवन में विशेष महत्व रखते हैं, बल्कि इन संस्कारों का वैज्ञानिक महत्व भी सर्वसिद्ध है। गौतम स्मृति में कुल चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है, वहीं महर्षि अंगिरा ने पच्चीस महत्वपूर्ण संस्कारों का उल्लेख किया है तथा व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है जोकि आज भी मान्य है। माना जाता है कि मानव जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक प्रमुख रूप से सोलह संस्कार करने चाहिए। वैदिक काल में प्रमुख संस्कारों में एक संस्कार गर्भाधान माना जाता था, जिसमें उत्तम संतति की इच्छा तथा जीवन को आगे बनाये रखने के उद्देश्य से तन मन की पवित्रता हेतु यह संस्कार करने के उपरांत पुंसवन संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे माह में किया जाने वाला संस्कार गर्भस्थ शिशु के स्वस्थ्य और उत्तम गुणों से परिपूर्ण करने हेतु किया जाता था, गर्भाधान के छठवे माह में गर्भस्थ शिशु तथा गर्भिणी के सौभाग्य संपन्न होने हेतु यह संस्कार किये जाने का प्रचलन है। उसके उपरांत नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म करने का विधान वैदिक काल से प्रचलित है जिसमें दो बूंद घी तथा छ: बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर नौ मंत्रों का विशेष उच्चारण कर शिशु को चटाने का विधान है, जिससे शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना की जाती थी। जिसके उपरांत प्रथम स्तनपान का रिवाज प्रचलित था। उसके उपरांत शिशु के जन्म के ग्यारवहें दिन नामकरण संस्कार करने का विधान है। यह माना जाता है कि ‘‘राम से बड़ा राम का नाम’’ अत: नामकरण संस्कार का महत्व जीवन में प्रमुख है। अत: यह संस्कार ग्यारहवें दिन शुभ घड़ी में किये जाने का विधान है। नामकरण के उपरांत निस्क्रमण संस्कार किया जाता है, जिसे शिशु के चतुर्थ माह के होने पर उसे सूर्य तथा चंद्रमा की ज्योति दिखाने का प्रचलन है, जिससे सूर्य का तेज और चंद्रमा की शीतलता शिशु को मिले, जिससे उसके व्यवहार में तेजस्व और विनम्रता आ सकें। उसके उपरांत अन्नप्राशन शिशु के पंाच माह के उपरांत किया जाता है जिससे शिशु के विकास हेतु उसे अन्न ग्रहण करने की शुरूआत की जाती है। चूड़ाकर्म अर्थात् मुंडन संस्कार पहले, तीसरे या पांचवे वर्ष में किया जाता है, जोकि शुचिता तथा बौद्धिक विकास हेतु किया जाता है। जिसके उपरांत विद्यारंभ संस्कार का विधान है जिसमें शुभ मुहूर्त में अक्षर ज्ञान दिया जाना होता है। उसके उपरांत कर्णेभेदन, यज्ञोपवीत तथा केशांत जिससे बालक वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढऩे तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके। गुरु शंकराचार्य के अनुसार ‘‘संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोशापनयनेन वा’’ अर्थात मानव को गुणों से युक्त करने तथा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे ही संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों के बिना एक मानव के जीवन में और किसी अन्य जीव के जीवन में विशेष अंतर नहींं है। ये संस्कार व्यक्ति के दोषों को खत्म कर उसे गुण युक्त बनाते हैं। महान विद्वान चाणक्य ने कहा था कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को सिर्फ प्यार से समझा कर सिखाना चाहिए। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान देने की कोशिश करना चाहिए। बाद में ये बात कई वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च में साबित की कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को जो भी सिखाया जाए वो हमेशा याद रहता है। लेकिन बच्चों को सिखाने की ये बात सिर्फ किताबों तक सीमित नहींं होनी चाहिए। बच्चे अक्षर या अंकों का ज्ञान तो लेंगे ही, लेकिन इसी उम्र में उनमें संस्कार और आचरण की नींव डालना भी बेहद ज़रूरी है। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जैसा रूप देना चाहें, दे सकते हैं। उनके अच्छे भविष्य और उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए सही परवरिश जरूरी है। अधिकतर अभिभावक के लिए परवरिश का अर्थ केवल अपने बच्चों की खाने-पीने, पहनने-ओढऩे और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना है। इस तरह से वे अपने दायित्व से तो मुक्त हो जाते हैं लेकिन क्या वे अपने बच्चों को अच्छी आदतें और संस्कार दे पाते हैं, जिनसे वे आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बन सकें।
हर बच्चा अलग होता है। उन्हें पालने का तरीका अलग होता है। बच्चों की सही परवरिश के लिए हालात के मुताबिक परवरिश की जरूरत होती है। सवाल यह है कि बच्चे के साथ कैसे पेश आएं कि वह अनुशासन में रहे और जीवन में सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, सभी का सम्मान करें, अपने जीवन में सदाचार बनाये रखें। अक्सर अभिभावक इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हम अपने बच्चों की परवरिश किस तरह से करें तो हम आपको बताते हैं आपके बच्चे की कुंडली में क्या योग बन रहे हैं और उन योगों के अनुसार आप अपने बच्चे के कौन से गुणों को उभार सकते हैं और कौन से ऐसे दोष हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता हो सकती है या उसमें बदलाव लाना होगा। कुछ ऐसे ज्योतिषीय तरीके जो आपकी मदद करेंगे आपके बच्चे को योग्य और सामथ्र्यवान बनाने के साथ सुखी और खुशहाल बनाने में सहयोगी होते हैं। आप सबसे पहले अपने बच्चे की कुंडली किसी योग्य ज्योतिषाचार्य को दिखायें और देखें कि उसके जन्मांग में कौन-कौन से योग हैं जो उन्हें भटका सकते हैं और कौन से योग हैं जिन्हें उभारने की जरूरत है। जिनमें से देखें कि कुछ योग इस प्रकार हो सकते हैं-
* कुंडली में मंगल-शुक्र की युति के कारण बच्चों राह से भटकते है। कुंडली में शुक्र चन्द्र की युति से काल्पनिक होने से पढ़ाई में बाधा आती है तथा बच्चे-बच्चियों को अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षित करते हैं। चंद्रमा कमजोर हो तो बच्चा बहुत भावुक होता है। ऐसे बच्चो को कुछ स्वार्थी लोग बच्चे/बच्चियां ब्लैकमेल करते हैं।
* कुंडली में चन्द्र राहु की युति हो तो बच्चे के मन में खुराफातें उपजती हैं। चन्द्र राहु की युति होने से कई प्रकार के भ्रम आते हैं और उन भ्रमों से बाहर निकलना ही नहीं हो पाता है।
* मंगल शनि की युति हो और मंगल बहुत बली हो तो बच्चा किसी को भी हानि पहुँचाने से नहींं डरेगा। गुरु खराब हो, नीच, अस्त, वक्री हो तो बच्चा अपने माता-पिता, बड़े बुजुर्ग किसी की भी इज्जत नहींं करेगा।
* पांचवें भाव, पांचवें भाव का स्वामी और चंद्रमा भावनाओं को नियंत्रित करता है, अत: ये ग्रह खराब स्थिति में हों तो आत्मनियंत्रण में कमी होती है।
लग्न, पांचवें या सातवें भाव पर उनके प्रभाव से व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है।
* तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह और मंगल साहस का कारक हैं। यदि ये ग्रह छठे, आठवे या बारहवे स्थान में हों तो अतिवादी होने से लड़ाई होने की संभावना बहुत होती है।
* राहु तथा बारहवें और आठवें भाव के स्वामी सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* शुक्र, चंद्रमा, आठवें भाव लग्न या सातवें भाव के साथ जुड़ कर सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* राहु, शुक्र और भावनाओं और साहस के कारकों के साथ जुडक़र प्यार के लिए जुनून दिखाता है। बच्चा उम्र की अनदेखी, सभी सामाजिक मानदंडों की अनदेखी कर सुख की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता हैं। शुक्र और सप्तम घर की कमजोरी अतिरिक्त योगदान करता है। पंचम की स्थिति सातवें या आठवें भाव में हो तो विपरीत सुख के लिए झुकाव देता है। प्यार और लगाव के लिए जिम्मेदार ग्रह शनि, चंद्रमा, शुक्र और मंगल ग्रह और पंचम या सप्तम या द्वादश स्थान में होने से बचपन में ही स्थिति खराब हो जाती है।
* मोह, हानि, आत्महत्याओं के लिए अष्टम भाव को देखा जाता है। मन के संतुलन के हानि के लिए 12वां भाव और बुध गृह को देखना होता है। मन का भटकाव मंगल, राहु, बुध, शुक्र और चंद्रमा ग्रह की दशा और 5, 7वीं, 8वीं और 12वीं भाव के साथ संबंध हो तब होता है।
* आठवें भाव जो की वैवाहिक जीवन, विधवापन, पापों-घोटालों, यौन अंग, रहस्य मामलों तथा अश्लील हरकतों के लिए देखा जाता है।
* जब शनि और राहु की स्थिति विपरीत हो तो अनुशासन में रहना सिखाएं।
* बच्चा जब बड़ा होने लगता है तब ही से उसे नियम में रहने की आदत डालें। ‘‘अभी छोटा है बाद में सीख जाएगा यह रवैया खराब है।’’ उन्हें शुरू से अनुशासित बनाएं। कुछ पेरेंट्स बच्चों को छोटी-छोटी बातों पर निर्देश देने लगते हैं और उनके ना समझने पर डांटने लगते हैं, कुछ माता-पिता उन्हे मारते भी हैं। यह तरीका भी गलत है। वे अभी छोटे हैं, आपका यह तरीका उन्हें जिद्दी और विद्रोही बना सकता है। यदि आपके बच्चे की कुंडली में लग्र, द्वितीय, तीसरे या एकादश स्थान में शनि हो तो आपका बच्चा शुरू से ही जिद्दी होगा, अत: ऐसी स्थिति में उसे शुरू से ही अनुशासन में रहने की आदत डालें, इसके लिए उसे प्यार से समझाते हुए अनुशासित करें एवं उसकी जिद्द के उचित और अनुचित होने का भान कराते हुए भावनाओं को नियंत्रण में रखना सिखायें।
* जब तृतीयेश, छठे, आठवे या बारहवे स्थान में या क्रूर ग्रहों अथवा राहु से पापाक्रांत होकर बैठा हो तो उनके साथ दोस्ताना व्यवहार करें।
* अगर आपके बच्चे में यदि तीसरा स्थान कमजोर या नीच का होगा तो उसे कमजोर मनोबल वाला व्यक्तित्व देगा, जिससे यदि वह किसी गलत व्यक्ति के उपर भरोसा कर लें तो गलत आदतें सीख सकता है। अत: इसके लिए आप अपने बच्चे के स्वयं अच्छे दोस्त बनें और उसे साकारात्मक दिशा में प्रयास करने के लिए प्रेरित करें।
* यदि आपके बच्चे का लग्रेश और गुरू अथवा सूर्य या चंद्रमा कमजोर हो तो ऐसा जातक कमजोर आत्मविश्वास का होता है इसके लिए उसे आत्मनिर्भर बनाएं।
* बचपन से ही उन्हें अपने छोटे-छोटे फैसले खुद लेने दें। जैसे उन्हें डांस क्लास जाना है या जिम। फिर जब वे बड़े होंगे तो उन्हें सब्जेक्ट लेने में आसानी होगी। आपके इस तरीके से बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा और वे भविष्य में चुनौतियों का सामना डट कर, कर पाएंगे। ऐसे बच्चों को उसके छोटे-छोटे निर्णय लेने में सहयोग करें किंतु निर्णय उसे स्वयं करने दें। साथ ही ये शिक्षा भी दें कि क्या गलत है और क्या उनके लिए सही। इसके लिए उन्हें ग्रहों की शांति तथा मंत्रों के जाप का सहारा लेने की आदत डालें और सही गलत का फैसला स्वयं करने दें।
* यदि आपके बच्चे के एकादश एवं द्वादश स्थान का स्वामी विपरीत या नीच को हो तो गलत बातों पर टोकें।
* बढ़ती उम्र के साथ-साथ बच्चों की बदमाशियां भी बढ़ जाती है। जैसे- मारपीट करना, गाली देना, बड़ों की बात ना मानना आदि। ऐसी गलतियों पर बचपन से ही रोक लगा देना चाहिए ताकि बाद में ना पछताना पड़े। ऐसे बच्चों की कुंडली बचपन में देखें कि क्या आपके बच्चे का तीसरा, एकादश एवं पंचम स्थान दूषित तो नहींं है, ऐसी स्थिति में इन आदतों पर बचपन से काबू करने की कोशिश करें, इसके लिए कुंडली में ग्रहों की शांति का भी उपाय अपनायें।
* यदि दूसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह होकर कमजोर हो तो बच्चों के सामने अभद्र भाषा का प्रयोग ना करें।
* बच्चे नाजुक मन के होते हैं। उनके सामने बड़े जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही वे सीखेंगे। सबसे पहले खुद अपनी भाषा पर नियंत्रण रखें। सोच-समझकर शब्दों का चयन करें। आपस में एक दूसरे से आदर से बात करें। धीरे-धीरे यह चीज बच्चे की बोलचाल में आ जाएगी। कुंडली में स्थित कुछ योगों से पता चल सकता है की बच्चा किस प्रकार का है और उसी के अनुसार ही बच्चे पर ध्यान देना जरुरी है।
* इसके अलावा आप अपने बच्चे को शुरूआत से ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर उसकी कुंडली के दोषों को दूर करने एवं गुणों को बढ़ाने के उपाय कर सकते हैं।
* मंगल-केतु के लिए बच्चे को खेलकूद में डालें, जिससे उसकी उर्जा का सही उपयोग होगा, जिससे उसमें लडऩे-झगडऩे की नौबत नहींं आयेगी और उसकी उर्जा का सदुपयोग होगा।
* बच्चों की कुंडली में यदि लग्र के दूसरे, तीसरे या पंचम स्थान में शुक्र, चंद्रमा या राहु हो तो इस तरह के योग में उसे संगीत, डांस, पेंटिंग आदि किसी कला में डाले, जिससे भटकाव की संभावना कम होगी।
* यदि आपके बच्चे की कुंडली में गुरू विपरीत स्थान में हो तो उसे बड़ों का आदर करना सिखाएं, अपने बुजुर्गों का आदर करने से गुरु ग्रह मजबूत होगा।
जीवन में अनुशासन बनाये रखने एवं सही मार्ग पर बने रहने के लिए भगवान हनुमान और गणेश की पूजा, हनुमान चालीसा का पाठ तथा ध्यान करने की आदत डालें।
इस प्रकार बचपन से ही बच्चों की सही परवरिश में यदि जन्म कुंडली का सहारा लिया जाकर उसके ग्रहों के दोषों के अनुरूप प्रयास किया जाए तो आपका बच्चा ना केवल एक अच्छा नागरिक बनेगा अपितु सफलता की हर उचाई को भी छू लेगा। इसके साथ वयस्क होते बच्चे की कुंडली में यदि राहु-शुक्र या शनि की दशा चले तो भृगुकालेन्द्र पूजा करायें।
Pt.P.S.Tripathi
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