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श्रावणी पूर्णिमा – रक्षा का पावन पर्व

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श्रावणी पूर्णिमा – रक्षा का पावन पर्व  –

श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा बंधन के रूप में मनाने की परंपरा हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से है। प्राचीन समय में देवताओं और दानवों में बारह वर्ष तक घोर संग्राम चला। इस संग्राम में राक्षसों की जीत हुई और देवता हार गए। दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वष में कर लिया तथा अपने को भगवान घोषित किया। दैत्यों के अत्याचारों से सभी लोकों में हाहाकार मच गया। तब भगवान इंद्र ने गुरू बृहस्पति से विचार कर रक्षा विधान करने को कहा। श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातःकाल रक्षा का विधान संपन्न किया गया जिसमें ‘‘येन बद्धोबली राजा दानवेंद्रा महाबलः, तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल’’ मंत्रोच्चार से रक्षा विधान किया उसके उपरांत धर्मिणी इंद्राणी के साथ वृत्र संहारक इंद्र ने बृहस्पति की वाणी का अक्षरषः पालन किया। इंद्राणी ने ब्राम्हण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन करा कर इंद्र के दायें हाथ में रक्षा सूत्र बांध दिया। इसी रक्षा सूत्र के बल पर इंद्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की। इसी परंपरा में द्रौपदी ने एक बार भगवान कृष्ण के हाथों से बहते रक्त को रोकने के लिए अपनी साड़ी उनके हाथ में बांधी जिसके ऋण के कारण कृष्ण ने चिरहरण के समय द्रौपदी की रक्षा की। जिसके फलस्वरूप रक्षा बंधन का पर्व हिंदूओं का प्रमुख पर्व बना। इस पर्व में बहनें भाईयों की कलाईयों में रक्षासूत्र बांधकर अपनी रक्षा का वादा अपने भाईयों से प्राप्त करती हैं। इस प्रकार श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा बंधन के रूप में मनाया जाता है।

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