मेरे अनुभव में मंगल जैसा मंगलकारी ग्रह कोई नहीं हो सकता। तभी तो कहा गया है-धरणी गर्भ संभूतं पिद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्ति हस्तं मंगलं प्रणाम्यहम।।
अर्थात्- जो धरती के गर्भ से उत्पन्न हुये हैं, जिनकी प्रभा बिजली के समान लाल है। जो कुमार हैं तथा अपने कर में शक्ति
लिये हुये हैं उन मंगल को मैं नमस्कार करता हूँ।
मानव को सफलता हेतु जितना आवष्यक परिश्रम हैं उतनाही आवष्यक हमारा घरेलु योगदान हैं ,हमे हमारे घर का वातावरण कब शांत तथा सोहार्दपूर्ण मिल सकता है, जब हमारी अघोगिनी सुलक्षणा हो, गृहस्थ धर्म जानती हो, पति को उसके हर सुख-दुख में साथ देने वाली हो, त्याग, सेवा, धैर्य, क्षमा तथा सहिष्णुता जानती हो और इनके द्वारा पती को हरदम उन्नती कि और अग्रेसर करने का प्रयास करती हों।
सौरमण्डल की प्रथम राषि मेष का स्वामी मंगल है। मेष राषि अग्नि तत्व राषि है। अतएव इसका स्वामी मंगल भी अग्नि ग्रह है। यह शौर्य का कारक है। यह सेनापति का भी कारक है। इसका रंग सिंदूरी है। यह भूमि का भी कारक है। ‘मंगल’ का नाम सुनते ही मनुष्यो में हलचल मच जाती है क्योंकि इसके द्वादष, प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम भाव में होने पर जातक या जातिका मंगली कहलाते हैं। मंगली प्रभाव के संबध में प्रथक से विवेचना की जायेगी। प्रस्तुत आलेख में मंगल का दाम्पत्यसुख पर क्या अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा उसका ही विवेचन किया जा रहा है।विवाह एवं दाम्पत्य सुख हेतु सप्तम भाव,सप्तमेश,कारक ग्रह इन के साथ साथ सम्पम भाव में उपस्थित ग्रह भी सत्य को उजागर करते है, महर्षि पाराशर के अनुसार सप्तम भाव विवाह, यौन संबंध और पति-पत्नी के आपसी विचारों को प्रस्तुत करता हैं, कुछ ग्रह सप्तमेश होकर परम सुख प्रदान करते तो कुछ निस्टता प्रदान करता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का ज्यिोतीष शास्त्र के सभी विद्वानों का मानना है कि सप्तम भाव का मंगल अशुभ फलदाई होता है, ऐसे जातक को स्त्री झगडालु, रोगी,कुरूप,पराजित कराने वाली, कुलक्षणी निर्धन तथा दुराचरणी मिलती हैं। जिस कारण जातक का दाम्पत्य जीवन दुख भरा होता हैं, मिथुन,कन्या,वृच्छिक,मकर,सिंह तथा धनु राशि वाले जातकों के जन्म कंुडली में सप्तम भाव में मंगल हो तो ऐसे जातकों की स्त्री संताप प्राप्ती हेतु व्याभिचार करती हैं, मंगल यदि कर्क या मिन का हो तो ऐसे जातक की स्त्री का स्वभाव बहुत ही कठोर होता हैं। जिस कारण जातक का दांपत्य जीवन दुःखदाई हो जाता हैं, ऐसे जातकोकी रूचि अपके से कम उम्र की कन्याओं में होती है, जातक के जन्म कुंडली में मंगल पर यदि शनि की दृष्टि हो तो ऐसे जातक रति क्रिया में उटपंताग हरकते करते हैं जिस कारण जातक के पत्नी की अपने पति में रूची खत्म हो जाती हैं तथा ऐसे जातक का दांपत्य जीवन बदतर बन जाता हैं। सप्तम भाव का मंगल जातक को प्रबल मंगली बनाता तथा ऐसे जातक को मंगली लडकी से ही विवाह करना चाहिए जिससे उनका दांपत्य जीवन सुखि रहता हैं।
लग्ने व्यये च पाताले-जामित्रे-चाष्टमे,
कुजे कन्या मर्तृ विनाशाय भर्ता कन्या निवाशकः।।
मंगल के मारकत्व हेत यह श्लोक प्रचलित हैं अर्थात जिस जातक के जन्म कुंडली में लग्न, चतुर्थ, सप्तमया द्वादश भाव में मंगल विराजमान हो तो ऐसे में कन्या के पति की मृत्यु निश्चित हैं इस योग के अनेकों अपवाद भी हैं, जातक के जन्म कुंडली में लग्न में मेष, चतुर्थ में वृश्चिक सप्तम में मकर, अष्टम में कर्क तथा द्वादश भाव में धनु राशि हो तब वैधन्य योग नहीं बनता तात्पर्य सप्तम भाव य मंगल जातक का वैवाहिक जीवन सामान्य नहीं रखता हैं। सुखमय दापत्य जीवन व्यतीत करने के लिये वर-वधु चुनाव, उनके गुण-दोषों का विचार उनकी रूची, प्रकृति समानता आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन कर सुखमय दाम्पत्य जीवन हेतु कुछ नियम बना रखे हैं।
1. यदि किसी जातक/जातिका की अन्य कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में हो तो जातक किसी रजस्वला स्त्री से
संभोग करता है। कतिपय विद्वान ज्योतिषियों ने महिला की कुण्डली में मंगल सप्तम भाव में होने पर बांझ होना कहा है। हमारे
अनुभाव में आया है कि पुरुष की कुण्डली में मंगल द्वितीयेष षष्टेष या अष्टमेष होकर सप्तम भाव में हो तो पत्नी बांझ या
गर्भ को गिराने की इच्छुक रहती है। महिला के सप्तम् भाव में मंगल उसे बांझ बनाता है। यह शोध का विषय है। मंगल रज
का कारण हैं षिषु पर मांस, मंगल ग्रह से ही चढ़ता है।
2. यदि जातक/जातिका की कुण्डली में मंगल एवं बुध सम-विषम राषियों में बैठकर एक दूसरे को देखे तो पुरुष
जातक नपुंसक तथा जातिका षण्डत्व दोष से पीड़ित होंगे। यहां सम विषम राषियों से तात्पर्य यथा मंगल मेष का हो तथा
बुध कर्क राषि का हो। यह योग जन्म कुण्डली में किसी भी भाव में घटित हो सकता है। स्त्रियों में आयुर्वेद के अनुसार षण्डत्व
दोष होता है। इस दोष से पीड़ित स्त्री में ठण्डापन होता है। वह पुरूष संग के लिये उत्तेजित नहीं होती हैं। पुरुष उसके इस
दोष को जान नहीं पाता है, वह यौन क्रिया के लिये उत्कृष्ठित नहंीं रहती।
3. इसी प्रकार का फलित मंगल और सूर्य एक दूसरे को देखे अर्थात मंगल और सूर्य समसप्तक हो तो भी पुरुष से
नपंुसकता के लक्षण रहते हैं। इस योग में मंगल और सूर्य दोनों ही अग्नि ग्रह होते हैं। जो पुरुषत्व की ऊर्जा को कम करते
हैं। संभव है कि जातक शरीर से हृष्ठ-पुष्ठ हो परन्तु उसकी जननेंद्रिय में उत्तेजना कम रहती है।
4. यदि किसी महिला की जन्म कुण्डली मे सप्तम भाव में मंगल की राषि या मंगल का नवांष हो तो जातिका का
पति पर स्त्री गामी हो सकता है। क्योंकि पति पूर्ण पौरुष वाला होता है। जातिका को इस प्रकार का अनुभव मंगल की महादषा
में देखने को मिल सकता है? यदि यह दषा विवाह से पूर्व या जन्म से पूर्व ही निकल गयी हो तो अंतरदषा। प्रत्यंतर दषा
में संभव है। जातिका का लग्नेष कमजोर होगा तो पति उसको दबाकर रखेगा तथा उसकी यौन लिप्तता में वृद्धि रहेगी।
5. मंगल सप्तम भाव में हो तो जीवन साथी की मृत्यु 30 वर्ष की आयु में हो सकती है। यदि मंगल 10 से 20 अंष
के मध्य हो कथित योग घटित हो सकता है। मंगल विच्छेदात्यक ग्रह है अतएव विवाह विच्छेद की परिस्थितियाँ बन सकती
है। पति-पत्नी अलग-अलग रह सकते हैं। मंगल के साथ सूर्य या बुध या दोनों हों तो विवाह में एक साल के अंदर ही उक्त
फलित में से कोई एक फल अवष्य अनुभव में आयेगा।
6. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के
लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं। किन्तु मैं मकर राषि में चंद्र के ऐसे फल से सहमत नहीं हँू। इसी राषि में मंगल उच्च का तथा शनि स्वक्षेत्री होता है। जो चरित्र नहंी गिरने देता है।पाठक शोध करें।
7. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तमेष होकर 6, 8 या 12 वें भाव में हो तथा शनि सूर्य एक साथ कहीं भी हो एवं लग्न भाव में राहू हो तो जातिका शीध्र ही निष्चित रूप से विघवा हो जाती है। सप्तमेष का जिस भाव में बैठना सप्तम भाव के फल को नष्ट
करता हैं वैधव्य कारक राहू का लग्न में होना भी सप्तम भाव के फल को बिगाड़ता है। सौर मंडल की प्राकृतिक कुण्डली में सूर्य तुला राषि में नीच का होता है उसका शनि के साथ बैठना भी उत्तम फल नहीं देता है। क्योंकि दोनों परस्पर शत्रु ग्रह है।
8. किसी जातिका की द्विस्वभाव लग्न हो तथा मंगल और चन्द्र दोनों सम सप्तम होकर लग्न सप्तमभाव में स्थित होकर परस्पर देख रहे हो तो जातिका शीध्र ही विधवा हो जाती है। मंगल चंद्र का सम सप्तक होना दाम्पत्य सुख में बाधक होता है।
9. यदि किसी पुरूष जातक की जन्मकुण्डली में मंगल तथा सूर्य कर्क राषि के होकर सप्तम भाव में हो तो जातक की पत्नी उसके निर्देष पर पर पुरूष से यौन संम्बंध स्थापित करती हैं। कर्क राषि में सूर्य अष्टमेष होकर मंगल से पुष्टि करता है। अष्टमेष जहां भी बैठता है उस
भाव की शुचिता को शंकास्पद बना देता है। सुखेष का सप्तम भाव में स्थित होना भी अधिक सुखद स्थिति नहीं है। दोनों में संबध विच्छेद की जिम्मेदारी भी मंगल सूर्य पर रहती है। जातक धन या पुत्र प्राप्ति के उद्देष्य से अपनी पत्नी से इस प्रकार का अवैध कृत्य कराता है।
10. किसी जातिका की जन्म कुण्डली में मंगल तथा शनि एक दूसरे के नवांष मे हो तो जातिका बहुत अधिक कामुक रहती है। यहां तक की एक महिला दूसरी महिला के साथ समलैंगिक संबन्ध रखती हैं पर पुरुष गामिनी होना तो उसके लिये सहज है। (मंगल और षनि एक दूसरे की राषि में हो तब भी कथित फल अवष्य घटित होता है। यदि मंगल और शनि एक दूसरे के नक्षत्र में हो तब भी समलैंंिगकता पुर्व
पर पुरूष गामिनी होते देखा गया है।
11. यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली में मंगल सप्तम या अष्टम भाव में दो पापग्रहों के साथ स्थित हो परन्तु इस योग में सप्तमेष सप्तम भाव में न हो तो जातक की पत्नी की मृत्यु विवाह के पष्चात दो से पांच वर्ष के अन्दर हो जाती हैं यही योग किसी महिला की कुण्डली में भी हो तो उसके साथ भी यही फलित होगा। ग्रहों की बलवत्ता भी फल कथन के लिये विचार में रखना अत्यंत आवष्यक हैं यदि कोई कुयोग जिस प्रकार लिखा गया है। उसी प्रकार हो तब तो जीवन कथित फल अवष्य घटित होते हैं परन्तु किसी कुयोग पर शुभ ग्रह के फल के अवसर जुटाकर पूर्णतः घटित नहीं होने देगा। उसी प्रकार कोई सुयोग कुण्डली में हो तथा पाप ग्रह उसे प्रभावित कर रहे हो तो पष्चात् हताष हो जाने पर मिलेगा। यह सर्वत्र विचारणीय है।
12. इसी प्रकार मंगल तथा शुक्र किसी जातिका की जन्म कुण्डली में समसप्तक हो तो भी इस प्रकार के योग वाली दो महिलाओं के मध्य समलैंगिक संबध रहते हैं। मंगल और शुक्र दोनों ही समसप्तक होने पर महिला जातकों को यौन क्रीड़ा के लिये उत्तेजित करते हैं। दुष्चरिचत्र होना अंसभव नहंी है। पर पुरुष से अतिषय कामुकता की पूर्ति हेतु संबंध रखती है। पुरुष के षिषन का भी चुंबन तक कर लेती हैं।
13. यदि किसी जाति का मंगल, वृष राषि को हो तो भी जातिका में अतिषय कामुकता रहती है। यह योग किसी भाव में हो जातिका को यौन संतुष्टि के लिये उकसाता हैं कोई भी पुरूष जातक समान्य स्तर तक अपनी पत्नी की यौन संतुष्टि कर सकता है। फलतः स्त्री अपनी तृप्ति के
लिये पर पुरुष का या अन्य स्त्री के साथ कृत्रिम साधनों से काम तृप्ति करती है।
14. मंगल, सूर्य तथा राहू लग्न में स्थित हों तो जीवन साथी की मृत्यु शीध्र हो जाती है। या लम्बें समय के लिये दोनों के यौन सम्पर्क टूट जाते हैं साथ ही यदि द्वितीय भाव में शुक्र स्थित हो तो जातक के किसी अन्य स्त्री/पुरूष से अनैतिक यौन सम्बन्ध रहे।
15. यदि किसी जातिका की जन्म कुण्डली में चंन्द्रमा, मंगल या शनि की राषि में हो तथा जातिका के लग्न भाव में स्थित होकर, किसी पाप ग्रह से दृृष्ट हो तो जातिका की माता भी दुष्चरित्र होती है। फलतः माता के संग के कारण जातिका का भी चरित्र गिर जाता है। वृष्चिक
राषि में चंद्रमा नीच का होकर विकृति विचारों की ओर प्रेरित कर सकता हैं। मेष राषि तथा कुंभ राषि में भी यौन सम्पर्क अन्य पुरूषों से बढ़ सकते हैं।
दाम्पत्य जीवन में मन व प्रेम की विशेष भूमिका रहती हैं। यदि मंगल दोष विद्यमान हो लेकिन अपने मन को नियंत्रित कर जीवन साथी से प्रेम भाव बढ़ा दिया जावे तो दाम्पत्य जीवन अच्छा रहता हैं। लेकिन प्रतिरोध की स्थित अशुभ ही करती हैं। अतः मन के कारक चंद्र व शुक्र जो प्रेम कारक हैं से भी मंगल दोष बन रहा हो तो जातक अपने अंह स्वभाव, जिद्दिपन एव जीवनसाथी से प्रेम की कमी,
घृणा के कारण मंगल दोष अपना प्रभाव अवश्य दिखाता हैं।