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राहु के सम्बन्ध में समुद्र मंथन वाली कथा से प्राय: सभी परिचित है, एक पौराणिक आख्यान के अनुसार राहु दैत्यराज हिरण्यकशिपु की पुत्री सिंहिका का पुत्र था, उसके पिता का नाम विप्रचित था। विप्रचित के सहवास से सिंहिका ने सौ पुत्रों को जन्म दिया उनमें सबसे बड़ा पुत्र राहु था।
देवासुर संग्राम में राहु भी भाग लिया। समुद्र मंथन के फलस्वरूप प्राप्त चौदह रत्नों में अमृत भी था, जब विष्णु सुन्दरी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पान करा रहे थे, तब राहु उनका वास्तविक परिचय और वास्तविक हेतु जान गया। वह तत्काल माया से रूप धारण कर एक पात्र ले आया, और अन्य देवतागणों के बीच जा बैठा, सुन्दरी का रूप धरे विष्णु ने उसे अमृत पान करवा दिया, तभी सूर्य और चन्द्र ने उसकी वास्तविकता प्रकट कर दी, विष्णु ने अपने चक्र से राहु का सिर काट दिया, अमृत पान करने के कारण राहु का सिर अमर हो गया, उसका शरीर कांपता हुआ गौतमी नदी के तट पर गिरा, अमृतपान करने के कारण राहु का धड़ भी अमरत्व पा चुका था। इस तथ्य से देवता भयभीत हो गये, और शंकरजी से उसके विनास की प्रार्थना की, शिवजी ने राहु के संहार के लिये अपनी श्रेष्ठ चंडिका को मातृकाओं के साथ भेजा, सिर देवताओं ने अपने पास रोके रखा, लेकिन बिना सिर की देह भी मातृकाओं के साथ युद्ध करती रही।
अपनी देह को परास्त होता न देख राहु का विवेक जागृत हुआ, और उसने देवताओं को परामर्श दिया कि इस अविजित देह के नाश के लिये उसे पहले आप फाड दें, ताकि उसका अमृत रस निवृत हो जाये, इसके उपरांत शरीर क्षण मात्र में भस्म हो जायेगा, राहु के परामर्श से देवता प्रसन्न हो गये, उन्होंने उसका अभिषेक किया, और ग्रहों के मध्य एक ग्रह बन जाने का ग्रहत्व प्रदान किया, बाद में देवताओं द्वारा राहु के शरीर की विनास की युक्ति जान लेने पर देवी ने उसका शरीर फाड़ दिया, और अमृत रस को निकालकर उसका पान कर लिया।
ग्रहत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी राहु, सूर्य और चन्द्र को अपनी वास्तविकता के उद्घाटन के लिये क्षमा नहीं कर पाया, और पूर्णिमा और अमावस्या के समय चन्द्र और सूर्य के ग्रसने का प्रयत्न करने लगा।
राहु के एक पुत्र मेघदास का भी उल्लेख मिलता है, उसने अपने पिता के बैर का बदला चुकाने के लिये घोर तप किया, पुराणों में राहु के सम्बन्ध में अनेक आख्यान भी प्राप्त होते है।
अपनी देह को परास्त होता न देख राहु का विवेक जागृत हुआ, और उसने देवताओं को परामर्श दिया कि इस अविजित देह के नाश के लिये उसे पहले आप फाड दें, ताकि उसका अमृत रस निवृत हो जाये, इसके उपरांत शरीर क्षण मात्र में भस्म हो जायेगा, राहु के परामर्श से देवता प्रसन्न हो गये, उन्होंने उसका अभिषेक किया, और ग्रहों के मध्य एक ग्रह बन जाने का ग्रहत्व प्रदान किया, बाद में देवताओं द्वारा राहु के शरीर की विनास की युक्ति जान लेने पर देवी ने उसका शरीर फाड़ दिया, और अमृत रस को निकालकर उसका पान कर लिया।
ग्रहत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी राहु, सूर्य और चन्द्र को अपनी वास्तविकता के उद्घाटन के लिये क्षमा नहीं कर पाया, और पूर्णिमा और अमावस्या के समय चन्द्र और सूर्य के ग्रसने का प्रयत्न करने लगा।
राहु के एक पुत्र मेघदास का भी उल्लेख मिलता है, उसने अपने पिता के बैर का बदला चुकाने के लिये घोर तप किया, पुराणों में राहु के सम्बन्ध में अनेक आख्यान भी प्राप्त होते है।
ज्योतिष शास्त्र में राहु:
ज्योतिष शास्त्रों में राहु और केतु को अन्य ग्रहों के समान महत्व दिया गया है, पाराशर ने राहु को ‘तमो अर्थात ‘अंधकार युक्त ग्रह कहा है, उनके अनुसार धूम्र वर्णी जैसा नीलवर्णी राहु, वनचर, भयंकर, वात प्रकृति प्रधान तथा बुद्धिमान होता है, नीलकंठ ने राहु का स्वरूप शनि जैसा निरूपित किया है।
सामन्यत: राहु और केतु को राशियों पर आधिपत्य प्रदान नहीं किया गया है, हां उनके लिये नक्षत्र अवश्य निर्धारित हैं। तथापि कुछ आचार्यों ने जैसे नारायण भट्ट ने कन्या राशि को राहु के अधीन माना है, उनके अनुसार राहु मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है।
राहु एक छाया ग्रह है, जिसे चन्द्रमा का उत्तरी ध्रुव भी कहा जाता है, इस छाया ग्रह के कारण अन्य ग्रहों से आने वाली रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, और जिस ग्रह की रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, उनके अभाव में पृथ्वी पर तरह-तरह के उत्पात होने चालू हो जाते हंै, यह छाया ग्रह चिंता का कारक ग्रह कहा जाता है।
राहु को देवी सरस्वती के रूप में जाना जाता है, इसका रंग नीला है और अनन्त भावपूर्ण है, यह सूर्य और चन्द्र को भी अपने घेरे में ले लेता है, राहु की सीमा का कोई विस्तार नहीं है, आसमान में दिखाई देने वाला नीला रंग ही इसके रूप में जाना जाता है, विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में राहु कल्पित ग्रह है और कल्पना से संबंधित सभी विषय का संबंध राहु से है चाहे वह ग्लैमर इंडस्ट्री हो, या कंप्यूटर से संबंधित माध्यम हो, आईटी या उड्डयन भी राहु की सीमा में आते हैं। रिश्तेदारी में राहु को पूर्वज माना जाता है, इसका विस्तार ससुराल खानदान से भी सम्बन्ध रखता है, कालसर्प-दोष में राहु के पास वाले ग्रह प्रताणित होते हंै, और केतु की तरफ वाले ग्रह सुरक्षित होते हैं।
राहु नशा देता है, वह जिस भाव का मालिक होता है उसी भाव का नशा दिमाग में छाने लगता है और धीरे-धीरे वह उसी प्रकार के काम करने का नशा दिमाग में इस कदर फैला देता है कि दिमाग अन्य कहीं काम करने का नाम ही नहीं लेता है। राहु, गुरु, शनि और केतु जो कुछ भी होते हैं, अपना असर अपने से छोटों पर या फिर अपने पुत्र-पुत्रियों पर और अपने जानकार और जीवन साथी पर साथ ही अपने कुल के ऊपर डालते है, केवल शनि कुल पर अपना असर इसलिये नहीं दे पाता क्योंकि जो जैसा करता है वह वैसा फल प्राप्त करता है, कर्म का फल कर्मानुसार ही मिलता है।
गुरु जीव है और राहु उसका सिर, केतु उसका धड़, शुक्र उसकी जननेद्रियां, चन्द्र उसके शरीर का पानी, उसकी सोच और उसके जान पहिचान के लोग। शुक्र-चन्द्र का मतलब है कि माता के द्वारा प्राप्त किया जाने वाला धन और भौतिक सम्पत्ति। केतु का मतलब है उसकी रखवाली करना, केतु कुत्ता है, तो कुत्ते की भांति उस भौतिक संपत्ति पर नजर रखना।
सूर्य पिता भी है और पुत्र भी, पत्नी के भाव से दूसरे भाव में (अष्टम) सूर्य के आने से अपने को पिता की तरह से दिखाना और अपना नाम रोशन करना पत्नी के कुटुंब के अन्दर ही समझ में आता है, पत्नी से नवें भाव में केतु का आना, धर्म पुत्र की तरह से अपने को चलाना, पत्नी के द्वारा जनता के अन्दर अपने को धार्मिक रूप से प्रदर्शित करना, बुध वक्री होने से संतान के रूप में पत्नी की बहिन के पुत्र को संभालना और उसकी ही देखभाल करना आदि कारण माने जाते हैं।
राहु की पूजा का समय किसी भी माह के श्रावण नक्षत्र, अश्विन नक्षत्र के कृष्ण पक्ष में की जाती है, भारत में यह पूजा श्राद्ध के रूप में मान्य है, राहु को पितरों के रूप में माना जाता है और वैदिक विवेचना के अनुसार इस समय में पृथ्वी पर चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग से सीधी किरणें आती हैं और जो भी पितरों के लिये तर्पण किया जाता है, उसे ग्रहण करती हैं। इसके अलावा दोपहर के दो बजे रोजाना यह किरणें पृथ्वी की तरफ आती है, और जो भी दिन रात में पितरों के लिये किया जाता है, वह इन किरणों के माध्यम से चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग में श्रद्धा के रूप में चला जाता है।
उपरोक्त सभी प्रकार के राहु से ग्रसित ग्रहों के दोष अर्थात पितृ दोष शान्ति हेतु नारायण बलि, नाग बली, पिण्ड दान के साथ नवग्रह शान्ति, रूद्राभिषेक के विधान का वर्णन वेदों में मिलता है। इसे लगातार तीन से पांच बार कराना चाहिए जिससे जातक एवं उसके परिवार में पितृ-दोष दूर होकर सुख-समृद्धि, शांति, स्वास्थ्य, यश इत्यादि की प्राप्ति होती है।
ज्योतिष शास्त्रों में राहु और केतु को अन्य ग्रहों के समान महत्व दिया गया है, पाराशर ने राहु को ‘तमो अर्थात ‘अंधकार युक्त ग्रह कहा है, उनके अनुसार धूम्र वर्णी जैसा नीलवर्णी राहु, वनचर, भयंकर, वात प्रकृति प्रधान तथा बुद्धिमान होता है, नीलकंठ ने राहु का स्वरूप शनि जैसा निरूपित किया है।
सामन्यत: राहु और केतु को राशियों पर आधिपत्य प्रदान नहीं किया गया है, हां उनके लिये नक्षत्र अवश्य निर्धारित हैं। तथापि कुछ आचार्यों ने जैसे नारायण भट्ट ने कन्या राशि को राहु के अधीन माना है, उनके अनुसार राहु मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है।
राहु एक छाया ग्रह है, जिसे चन्द्रमा का उत्तरी ध्रुव भी कहा जाता है, इस छाया ग्रह के कारण अन्य ग्रहों से आने वाली रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, और जिस ग्रह की रश्मियां पृथ्वी पर नहीं आ पाती हैं, उनके अभाव में पृथ्वी पर तरह-तरह के उत्पात होने चालू हो जाते हंै, यह छाया ग्रह चिंता का कारक ग्रह कहा जाता है।
राहु को देवी सरस्वती के रूप में जाना जाता है, इसका रंग नीला है और अनन्त भावपूर्ण है, यह सूर्य और चन्द्र को भी अपने घेरे में ले लेता है, राहु की सीमा का कोई विस्तार नहीं है, आसमान में दिखाई देने वाला नीला रंग ही इसके रूप में जाना जाता है, विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में राहु कल्पित ग्रह है और कल्पना से संबंधित सभी विषय का संबंध राहु से है चाहे वह ग्लैमर इंडस्ट्री हो, या कंप्यूटर से संबंधित माध्यम हो, आईटी या उड्डयन भी राहु की सीमा में आते हैं। रिश्तेदारी में राहु को पूर्वज माना जाता है, इसका विस्तार ससुराल खानदान से भी सम्बन्ध रखता है, कालसर्प-दोष में राहु के पास वाले ग्रह प्रताणित होते हंै, और केतु की तरफ वाले ग्रह सुरक्षित होते हैं।
राहु नशा देता है, वह जिस भाव का मालिक होता है उसी भाव का नशा दिमाग में छाने लगता है और धीरे-धीरे वह उसी प्रकार के काम करने का नशा दिमाग में इस कदर फैला देता है कि दिमाग अन्य कहीं काम करने का नाम ही नहीं लेता है। राहु, गुरु, शनि और केतु जो कुछ भी होते हैं, अपना असर अपने से छोटों पर या फिर अपने पुत्र-पुत्रियों पर और अपने जानकार और जीवन साथी पर साथ ही अपने कुल के ऊपर डालते है, केवल शनि कुल पर अपना असर इसलिये नहीं दे पाता क्योंकि जो जैसा करता है वह वैसा फल प्राप्त करता है, कर्म का फल कर्मानुसार ही मिलता है।
गुरु जीव है और राहु उसका सिर, केतु उसका धड़, शुक्र उसकी जननेद्रियां, चन्द्र उसके शरीर का पानी, उसकी सोच और उसके जान पहिचान के लोग। शुक्र-चन्द्र का मतलब है कि माता के द्वारा प्राप्त किया जाने वाला धन और भौतिक सम्पत्ति। केतु का मतलब है उसकी रखवाली करना, केतु कुत्ता है, तो कुत्ते की भांति उस भौतिक संपत्ति पर नजर रखना।
सूर्य पिता भी है और पुत्र भी, पत्नी के भाव से दूसरे भाव में (अष्टम) सूर्य के आने से अपने को पिता की तरह से दिखाना और अपना नाम रोशन करना पत्नी के कुटुंब के अन्दर ही समझ में आता है, पत्नी से नवें भाव में केतु का आना, धर्म पुत्र की तरह से अपने को चलाना, पत्नी के द्वारा जनता के अन्दर अपने को धार्मिक रूप से प्रदर्शित करना, बुध वक्री होने से संतान के रूप में पत्नी की बहिन के पुत्र को संभालना और उसकी ही देखभाल करना आदि कारण माने जाते हैं।
राहु की पूजा का समय किसी भी माह के श्रावण नक्षत्र, अश्विन नक्षत्र के कृष्ण पक्ष में की जाती है, भारत में यह पूजा श्राद्ध के रूप में मान्य है, राहु को पितरों के रूप में माना जाता है और वैदिक विवेचना के अनुसार इस समय में पृथ्वी पर चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग से सीधी किरणें आती हैं और जो भी पितरों के लिये तर्पण किया जाता है, उसे ग्रहण करती हैं। इसके अलावा दोपहर के दो बजे रोजाना यह किरणें पृथ्वी की तरफ आती है, और जो भी दिन रात में पितरों के लिये किया जाता है, वह इन किरणों के माध्यम से चन्द्रमा के ऊध्र्व भाग में श्रद्धा के रूप में चला जाता है।
उपरोक्त सभी प्रकार के राहु से ग्रसित ग्रहों के दोष अर्थात पितृ दोष शान्ति हेतु नारायण बलि, नाग बली, पिण्ड दान के साथ नवग्रह शान्ति, रूद्राभिषेक के विधान का वर्णन वेदों में मिलता है। इसे लगातार तीन से पांच बार कराना चाहिए जिससे जातक एवं उसके परिवार में पितृ-दोष दूर होकर सुख-समृद्धि, शांति, स्वास्थ्य, यश इत्यादि की प्राप्ति होती है।