
भारतीय ऋषि-परंपरा में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनका जीवन तप, त्याग और आध्यात्मिक साधना का अनुपम उदाहरण है। इन्हीं महान ऋषियों में एक नाम है महर्षि मतंग। वे केवल एक तपस्वी ऋषि ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, करुणा और आत्मिक शुद्धता के प्रतीक भी थे। रामायण, पुराणों और लोककथाओं में महर्षि मतंग का विशेष स्थान है। उनका आश्रम, उनका जीवन संघर्ष, शबरी से संबंध और ऋषि दुर्वासा को दिया गया शाप—ये सभी घटनाएँ उन्हें भारतीय संस्कृति में अमर बना देती हैं।
महर्षि मतंग कौन थे?
महर्षि मतंग प्राचीन भारत के एक महान तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी और सिद्ध पुरुष थे। वे वैदिक परंपरा के ऋषि माने जाते हैं, परंतु उनका महत्व केवल वेदों तक सीमित नहीं है। वे ऐसे ऋषि थे जिन्होंने कर्म, तपस्या और सद्भाव को जीवन का मूल आधार बनाया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, महर्षि मतंग का जन्म एक साधारण या निम्न समझे जाने वाले कुल में हुआ था, किंतु अपनी कठोर तपस्या और आत्मिक शुद्धता के कारण उन्होंने ऋषि पद प्राप्त किया। यह तथ्य स्वयं में भारतीय दर्शन की उस महान भावना को दर्शाता है कि व्यक्ति की महानता जन्म से नहीं, कर्म से तय होती है।
कथाओं के अनुसार, मतंग ऋषि का प्रारंभिक जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण था। कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि वे प्रारंभ में पशुपालक या सेवक वर्ग से जुड़े थे। समाज उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता था, लेकिन उनके भीतर ज्ञान प्राप्ति की तीव्र इच्छा थी।
उन्होंने अपने जीवन में यह सिद्ध किया कि—
“तपस्या और साधना से कोई भी व्यक्ति ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।”
यही कारण है कि उनका जीवन भारतीय समाज में सामाजिक समानता का एक सशक्त उदाहरण बन गया।

महर्षि मतंग की तपस्या और साधना
महर्षि मतंग ने घोर तपस्या की। उन्होंने वर्षों तक—
- उपवास
- मौन व्रत
- ध्यान
- प्रकृति के साथ एकाकार होकर जीवन
जैसे कठिन साधनाएँ कीं। वे वन में रहकर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते थे। उनकी तपस्या इतनी प्रबल थी कि देवता भी उनसे प्रभावित हुए।
उनकी साधना का उद्देश्य—
- आत्मशुद्धि
- ब्रह्मज्ञान
- लोककल्याण
था, न कि किसी सांसारिक सिद्धि की प्राप्ति।
महर्षि मतंग का आश्रम कहाँ था?
महर्षि मतंग का आश्रम दंडकारण्य क्षेत्र में स्थित था। यह वही पवित्र वन क्षेत्र है जिसका उल्लेख रामायण में बार-बार मिलता है।
दंडकारण्य का परिचय
दंडकारण्य प्राचीन भारत का एक विशाल वन क्षेत्र था, जो वर्तमान में—
- छत्तीसगढ़
- ओडिशा
- महाराष्ट्र
- आंध्र प्रदेश
के कुछ हिस्सों में फैला हुआ माना जाता है।
मतंग ऋषि का आश्रम विशेष रूप से कहाँ था?
रामायण के अनुसार, महर्षि मतंग का आश्रम ऋष्यमूक पर्वत के निकट स्थित था। यही वही क्षेत्र है जहाँ—
- शबरी निवास करती थीं
- भगवान राम और लक्ष्मण ने शबरी से भेंट की
- सुग्रीव और हनुमान से राम का मिलन हुआ
ऋष्यमूक पर्वत को आज भी दक्षिण भारत में एक अत्यंत पवित्र स्थल माना जाता है।
दुर्वासा ऋषि को दिया गया शाप
एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार—
ऋषि दुर्वासा एक बार महर्षि मतंग के आश्रम में आए। दुर्वासा अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे। किसी कारणवश उन्होंने आश्रम की मर्यादा का उल्लंघन किया। इससे महर्षि मतंग अत्यंत दुखी हुए।
उन्होंने दुर्वासा को शाप दिया कि—
“जो भी इस पर्वत पर अनुचित आचरण करेगा, उसका विनाश होगा।”
इसी शाप के कारण—
- बाली ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जा सका
- सुग्रीव ने वहीं शरण ली
शबरी और महर्षि मतंग का संबंध
महर्षि मतंग का सबसे प्रसिद्ध संबंध शबरी से जुड़ा है।

शबरी कौन थीं?
शबरी एक साधारण वनवासी स्त्री थीं, जिन्हें समाज में अधिक सम्मान प्राप्त नहीं था। लेकिन उनमें भक्ति की अपार शक्ति थी।
मतंग ऋषि और शबरी
महर्षि मतंग ने शबरी को अपने आश्रम में शरण दी और उन्हें—
- सेवा
- भक्ति
- धैर्य
- प्रेम
का मार्ग दिखाया।
महर्षि मतंग ने अपने देह त्याग से पहले शबरी से कहा—
“भगवान श्रीराम स्वयं तुम्हारे आश्रम में आएंगे। तुम्हारी भक्ति को स्वीकार करेंगे।”
यही भविष्यवाणी आगे चलकर सत्य सिद्ध हुई।
महर्षि मतंग का देह त्याग
जब महर्षि मतंग को यह ज्ञात हुआ कि उनका जीवन उद्देश्य पूर्ण हो चुका है, तब उन्होंने—
- योगाग्नि द्वारा
- ध्यान अवस्था में
अपने शरीर का त्याग किया।
उनका देह त्याग मोक्ष प्राप्ति का प्रतीक माना जाता है। वे अपने पीछे एक ऐसी परंपरा छोड़ गए जो भक्ति और कर्म की समानता सिखाती है।
महर्षि मतंग का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व
1. कर्म की प्रधानता
मतंग ऋषि का जीवन यह सिखाता है कि—
जन्म नहीं, कर्म व्यक्ति को महान बनाता है।
2. भक्ति और सेवा
उन्होंने शबरी जैसी साधारण स्त्री को भी ईश्वर भक्ति का सर्वोच्च स्थान दिलाया।
3. सामाजिक समरसता
मतंग ऋषि जाति, वर्ग और ऊँच-नीच से ऊपर उठकर मानवता का संदेश देते हैं।
4. रामायण की कथा में योगदान
यदि मतंग ऋषि न होते—
-
शबरी की कथा अधूरी रहती
-
सुग्रीव को शरण न मिलती
-
राम-हनुमान मिलन संभव न होता
निष्कर्ष
महर्षि मतंग केवल एक ऋषि नहीं थे, वे भारतीय संस्कृति के जीवंत आदर्श थे। उनका आश्रम दंडकारण्य में स्थित था, लेकिन उनकी शिक्षाएँ पूरे भारतवर्ष में फैलीं। उन्होंने यह सिद्ध किया कि तपस्या, भक्ति और करुणा से कोई भी व्यक्ति ईश्वर के निकट पहुँच सकता है।
उनका जीवन हमें आज भी यह संदेश देता है कि—
“ईश्वर का मार्ग सबके लिए खुला है, बस श्रद्धा और समर्पण चाहिए।”





