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राहु-केतु इतने प्रभावी क्यूँ

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राहु-केतु छाया ग्रह हैं। इनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, इसीलिए ये जिस ग्रह के साथ बैठते हैं उसी के अनुसार अपना प्रभाव देने लगते हैं। लेकिन राहु-केतु की दशा-महादशा काफी प्रभावशाली मानी जाती है। यदि कुंडली में उनकी स्थिति ठीक हो तो जातक को अप्रत्याशित लाभ मिलता है और यदि ठीक न हो तो प्रतिकूल प्रभाव भी उतना ही तीव्र होता है। पढ़िए इस आलेख में राहु-केतु के स्वरूप एवं प्रभाव का विशद् वर्णन…
सार मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अपने-अपने अंडाकार पथ पर निरंतर परि क्रमा करते रहते हैं। सूर्य से बढ़ती दूरी के क्रम में ग्रह हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु और शनि। चूंकि हम पृथ्वी पर निवास करते हैं इसलिए पृथ्वी पर ग्रहों के प्रभावों के आकलन के लिए पृथ्वी के स्थान पर सूर्य को ज्योतिष शास्त्र में ग्रह माना गया है।
राहु-केतु के संबंध में पुराणों में कथा आती है कि दैत्यों और देवताओं के संयुक्त प्रयास से हुए सागर मंथन से निकले अमृत के वितरण के समय एक दैत्य अपना स्वरूप बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और उसने अमृत पान कर लिया। उसकी यह चालाकी जब सूर्य और चंद्र देव को पता चली तो वे बोल उठे कि यह दैत्य है और तब भगवान विष्णु ने चक्र से दैत्य का मस्तक काट दिया। अमृत पान कर लेने के कारण उस दैत्य के शरीर के दोनों खंड जीवित रहे और ऊपरी भाग सिर राहु तथा नीचे का भाग धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये दोनों सूर्य और चंद्र से प्रबल शत्रुता रखने के कारण उन्हें समय-समय पर ग्रहण के रूप में ग्रसित करते रहते हैं।
राहु-केतु का सौर मंडल में अपना कोई भौतिक अस्तित्व और स्वरूप न होने से ये दोनों वस्तुतः छाया ग्रह हंै और इसलिए इनकी अपनी कोई राशि नहीं है। दैत्य कुल के होने के कारण इनका रंग काला, स्वभाव क्रूर, वर्ण म्लेच्छ एवं प्रवृत्ति तमोगुणी (पापी) मानी गई है। राहु-केतु की तुलना सांप से भी की गई है। राहु सांप का मुंह है और केतु उसकी पूंछ। यह सांप गहन अंधकार और धुएं का भी प्रतीक है।
राहु-केतु सदैव वक्री गति से भ्रमण करते हैं और सदैव एक दूसरे से 1800 पर रहते हैं। इनका एक राशि का भ्रमण लगभग 18 माह का तथा संपूणर्् ा राशि चक्र का 18 वर्षों का माना गया है। अगर कोई ग्रह राहु-केतु से अंशों में कम हो तो भ्रमण के दौरान उसे इन दोनों का सामना करना पड़ेगा जिसके फलस्वरूप उस ग्रह की शक्ति क्षीण हो जाएगी। राहु-केतु के अंशों से अधिक अंशों वाले किसी ग्रह को इन दोनों के बीच से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा, और ये दोनों उत्प्रेरक के रूप में उस ग्रह के प्रभाव पर असर डालेंगे।
चूँकि राहु-केतु की अपनी कोई राशि नहीं है इसलिए ये जिस भाव और राशि में स्थित होते हैं तथा जिस भावेश के साथ बैठते हैं या संबंध रखते हैं, उसी से संबंधित फल देते हैं। राहु-केतु संबंधित ग्रह के प्रभाव में उत्प्रेरक का कार्य करते हैं अथर्¬ात यदि ये योगकारक ग्रह के साथ हों तो योगकारक और यदि मारक ग्रह के साथ हों तो मारक हो जाते हैं। चूंकि इन ग्रहों (राहु केतु) का स्वभाव अनिश्चयात्मक है इसलिए ये अप्रत्याशित रूप से संबंधित ग्रह के फल में वृद्धि करते हैं किंतु बाद में उसे छीन भी लेते हैं।
राहु में शनि तथा केतु में मंगल के समान गुण पाए जाते हैं। गुरु के समान राहु-केतु की उनकी स्थिति से पंचम, सप्तम और नवम भावों पर पूर्ण दृष्टि मानी गई है। पापी स्वभाव के होने के कारण ये जन्मकुंडली के केंद्र स्थान ( 1, 4, 7, 10) में उदासीन रहते हैं। लग्न तथा त्रिकोण (5, 9 ) स्थान में शुभ, द्वितीय और द्वादश में उदासीन (न शुभ न अशुभ) त्रिषडाय ( 3, 6, 11) में पापी और अष्टम भाव में महापापी होते हैं। ये यदि केंद्र (4, 7, 10) में स्थित होकर त्रिकोण (5, 9) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या त्रिकोण (5, 9) में स्थित होकर केंद्र (4, 7, 10) के स्वामी से संबंध स्थापित करें या लग्न में स्थित होकर लग्न, त्रिकोण् ोश या केन्द्रेश से संबंध स्थापित करें तो राहु-केतु बहुत शुभ फल देते हैं। सूर्य और चंद्र राहु-केतु के प्रबल शत्रु हैं। इसलिए इनसे युक्त होने या संबंध स्थापित होने पर ये दोनों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं। अष्टम भाव में यदि अष्टमेश या अन्य किसी पापी ग्रह के साथ राहु-केतु हांे तो परम अशुभ होकर मृत्यु या उसके जैसा कष्ट देते हैं।