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कुंडली में धन योग

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भारतीय सनातन ज्योतिष में प्राकृतिक कुण्डली की अवधारणा वास्तविक ग्रहों, पिण्डों पर नहीं वरन् उनके द्वारा चराचर जगत पर डाले जाने वाले विभिन्न प्रभावों के मानव जीवन पर आकलन के लिए कल्पित की गई है। ज्योतिष शास्त्र में धन की दृष्टि से शुभ तथा अशुभ भावों एवं ग्रहों के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को विस्तार से बताया गया है।
जन्म कुंडली के बारह भावों को मुखय रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है- एक शुभ भाव, दूसरा अशुभ भाव। शुभ भावों में लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम एवं एकादश का समावेश है जबकि अशुभ भावों में तृतीय, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश को सम्मिलित किया गया है। यह वर्गीकरण केवल आर्थिक दृष्टिकोण से है अपितु सुख, भाग्य आदि को भी दर्शाता है।
अतः लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम आदि भावों के स्वामी जब केंद्र अथवा त्रिकोण आदि शुभ स्थानों में स्थित होकर शुभ युक्त अथवा शुभ दृष्ट होंगे। तो जातक को धन, सुख, भाग्य आदि की प्राप्ति होगी अथवा इसका समर्थन होगा और इसके विपरीत जब तृतीय, षष्ठ, अष्ठम आदि भावों के स्वामी केंद्रादि में बलवान होंगे तो अभाव, दरिद्रता, रोग आदि की प्राप्ति अथवा वृद्धि होगी। इस प्रकार जब द्वितीय चतुर्थ, पंचम, नवम आदि भावों के स्वामी निर्बल होंगे। तो धन आदि का नाश होगा। यद्यपि एकादशेश को महर्षि पाराशर ने पापी माना है परंतु जहां तक लाभ (आय) आदि की प्राप्ति का प्रश्न हो, यह धन दायक ही सिद्ध होगा।
जन्मकुंडली/चंद्र कुंडली में धन लाभ आदि हेतु लग्न द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम एवं एकादश भावों की प्रधानता है।
विशेष धन योग-
जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश धन भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एकत्र हों और भाग्येश (नवमेश) द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनवान होगा।
शुक्र यदि द्वितीय भाव में तुला/वृष राशि में स्थित हो और एकादशेश अथवा धनेश द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनवान होता है। शुक्र की द्वितीय भाव में स्थिति को बहुत महत्व दिया गया है। एक फारसी ज्योतिषी ने कहा कि-
”चश्मखोरा मालखाने, यदा मुस्तरी कर्कटे कमाने तदा ज्योतिषि क्या पढ़ेगा, क्या देखेगा, वो बालक बादशाह होगा”
”मालखाने चश्म खोरा, हरम खाने मुस्छरी जमीं खाने जमीं फर्जन, हिल हिलावे में मैधानी।
कहने का तात्पर्य यह है कि चश्मखोरा (शुक्र) द्वितीय (मालखाने) भाव में हो और बृहस्पति सप्तम भाव, चतुर्थेश चतुर्थ भाव में स्थित हो तो जातक राजा के समान सम्मान पाने वाला होता है।
पंचमेश एकादश भाव में एवं एकादशेश पंचम भाव में स्थित हो और नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो जातक अत्यधिक धनवान एवं संपत्तिवान होता है।
यदि नवमेश शुक्र हो और लाभेश, धनेश बृहस्पति द्वारा दृष्ट हो तो जातक धनी होता है।
चंद्रमा एवं मंगल की केंद्र/त्रिकोण में युति हो तो लक्ष्मी योग होता है। लाभेश, नवमेश तथा द्वितीयेश (धनेश) इनमें से कोई एक भी ग्रह लग्न अथवा केंद्र में स्थित हो और बृहस्पति द्वितीय, पंचम अथवा एकादश भाव का स्वामी होकर उसी प्रकार केंद्र में हो तो जातक धनी एवं स्थायी साम्राजय का स्वामी होता है।
लग्न से नवमेश तथा दशमेश युति, दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा परस्पर संबंधित हों और बलवान होकर एक दूसरे से केंद्र में हों तो जातक उत्तम दर्जे का धनी होता है।
जब हम भाग्येश पर विचार करते हैं तो ऐसे सर्वोत्तम शुभ ग्रह पर विचार करते हैं जो भाग्य का प्रतिनिधि होने से राज्य धन आदि की खान है। अतः ऐसे भाग्याधिपति का संबंध द्वितीयेश जो स्वयं धन भाव का स्वामी है एवं लग्नेश जो लाभ दिलवाता ही है, ऐसे ग्रह से होने से यदि प्रचुर मात्रा में धन/लाभ मिले तो अतिश्योक्ति नहीं। इस प्रकार पंचमेश भी भाग्येश की भांति फलदायक है क्योंकि उत्तर कालामृत के प्रसिद्ध भावात्-भावम के सिद्धांत के अनुसार पंचम भाव, नवम भाव से नवम होने के कारण भाग्येश का भी प्रतिनिधित्व करता है।
नवमेश तथा दशमेश ग्रह परस्पर युति दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा संबंधित हों ओर बलवान होकर एक दूसरे से केंद्र में (1-4-7-10) स्थित हों और ये ग्रह यदि शुक्र और बृहस्पति हों तो जातक उत्तम दर्जे का धनी एवं राज्यधिकरी होता है। ऐसे योग में साधारण परिवार में जन्म लेकर भी जातक अत्यधिक संपति का मालिक होता है।