श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में, भाद्र कृष्ण अष्टमी की मध्य रात्रि को, रोहिणी नक्षत्र में, 21 जुलाई, 3228 ई. पू. को हुआ। कृष्ण-देवकी की वह 8वीं संतान थे। जन्म के समय कारागार के पट स्वयं खुल गये एवं कंस से रक्षा के लिए उनके पिता वसुदेव उन्हें, एक टोकरी में रख कर, यमुना पार नंद गांव में छोड़ आये। बाल लीलाएं उन्होंने उसी नंद गांव में ही कीं, जिनमें पूतना वध, कालिय मर्दन, माखन चोरी, सुदामा से मित्रता, गोपियों के साथ रास लीलाएं आदि प्रमुख हैं। अपनी युवावस्था में ही उन्होंने, कंस का वध कर, पृथ्वी का भार हरण किया। कंस की 2 रानियां थीं- अस्ति और प्राप्ति। उन दोनों के पिता थे मगधराज जरासंघ। कंस के मरने का शोक समाचार सुन कर उन्होंने निश्चय किया कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा और उन्होंने मथुरा को चारों ओर से घेर लिया। जरासंघ ने 17 बार श्री कृष्ण से युद्ध किया। लेकिन श्री कृष्ण ने हर बार उनकी सारी सेना नष्ट कर दी। किंतु 18 वीं बार, जरासंघ को बहुत बलशाली जानते हुए, भगवान श्री कृष्ण, समस्त संबंधियों के साथ, द्व ारिका चले गये। इस प्रकार वह रणछोड़ कहलाये।
श्री कृष्ण का रुक्मिणी से विवाह हुआ एवं रुक्मिणी के गर्भ से उनके 10 पुत्र हुए- प्रभुत्व, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचंद्र, विचारु और चारु। देवर्षि नारद की सलाह पर फुफेरे भाई पांडवों के राजसूय यज्ञ में सहायता करने के लिए श्री कृष्ण भगवान इंद्रप्रस्थ पहुंचे। कौरवों के पिता धृतराष्ट्र दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनाना चाहते थे, जबकि पांडु पुत्र युधिष्ठिर को राज्य मिलना चाहिए था। पांडु पुत्रों को इस हक से दूर करने के लिए दुर्योधन ने जुए की चाल चली और उन्हें 14 वर्ष का बनवास दिलवाया। बनवास की अवधि के बाद भी जब उन्होंने युधिष्ठिर को राज्य देने से मना कर दिया, तो पांडवांे और कौरवों में महाभारत युद्ध हुआ।
महाभारत युद्ध के समय श्री कृष्ण 90 वर्ष के थे। उस समय आकाश में भयावह स्थिति थी। राहु सूर्य के निकट जा रहा था, केतु, चित्रा नक्षत्र का अतिक्रमण कर के, स्वाति पर स्थित हो रहा था। धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर दोनों सेनाओं के लिए अमंगल की सूचना दे रहा था। मंगल, वक्र हो कर, मघा में, गुरु श्रवण में एवं सूर्य पुत्र शनि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में स्थित थे। शुक्र पूर्व भाद्रपद में आरूढ़ था एवं परिघ नामक उपग्रह उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में विद्यमान था। केतु नामक उपग्रह, धूम नामक उपग्रह के साथ, ज्येष्ठा नक्षत्र पर स्थित था। एक तिथि का क्षय हो कर 14 वें दिन, तिथि क्षय न होने पर 15 वें दिन
और एक तिथि की वृद्धि होने पर अमावस्या का होना तो देखा गया है, लेकिन 13 वें दिन अमावस्या का होना नहीं देखा जाता। पूर्णिमा के बाद अमावस्या, जो 15 दिन बाद आती है, वह, तिथियों के क्षय होने के कारण, 13 दिन बाद ही आ गयी थी एवं 13 दिनों के अंदर चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों लग गये। राहु ने चंद्र और सूर्य दोनों को ग्रस रखा था। ग्रहण की यह अवस्था राजा और प्रजा दोनों का संहार दर्शा रही थी। चारों ओर धूल की वर्षा हो रही थी।
भूकंप होने के कारण चारों सागर, वृद्धि को प्राप्त हो कर, अपनी सीमा को लांघते हुए से जान पड़ते थे। कैलाश, मंदराचल तथा हिमालय से शिखर टूट-टूट कर गिर रहे थे। इस प्रकार संपूर्ण पृथ्वी, जल एवं आकाश संसार के विनाश को दर्शा रहे थे। अंततः मार्गशीर्ष अमावस्या के अगले दिन, मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को, मूल नक्षत्र में महाभारत युद्ध 21 अक्तूबर, 3138 ई. पू. को प्रारंभ हुआ। युद्ध आरंभ होने पर अर्जुन ने जब दूसरी ओर अपने सभी भाई-बंधुओं एवं गुरुओं को खड़े देखा, तो वह विचलित हो उठा और श्री कृष्ण से कहने लगा कि युद्ध जीत कर भी हार है। अतः मैं युद्ध नहीं लडूंगा। इसपर श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया और बताया कि यह देह सर्वदा नाशवान है और आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। कर्म तो मनुष्य को अपने स्वभाव के कारण करना पड़ता है। अतः बिना फल की इच्छा के कर्म करना ही मनुष्य का कर्तव्य है।
कहा जाता है कि 10 वें दिन भीष्म पितामह को अर्जुन के बाणों ने वेध दिया और महाभारत, केवल 18 दिन में पूरी पृथ्वी को तहसनहस कर, समाप्त हो गया। भीष्म पितामह, जिनको इच्छा मृत्यु का वरदान था, सूर्य के उत्तरायण में आने की प्रतीक्षा करते रहे और 58 रातें उन्होंने उसी बाण शैय्या पर बितायीं। तत्पश्चात माघ शुक्ल अष्टमी को, मध्याह्न के समय, रोहिणी नक्षत्र में वह परमात्मा में विलीन हो गये।महाभारत के 35 वर्ष उपरांत 36वें वर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन, 18 फरवरी 3102 ई. पू. को श्री कृष्ण ब्रह्मस्वरूप विष्णु भगवान में लीन हो गये। उस समय श्री कृष्ण 125 वर्ष पूर्ण कर 126 वें वर्ष में चल रहे थे। जिस दिन भगवान पृथ्वी को छोड़ स्वर्ग सिधारे, उसी दिन महाबली कलि युग आ गया। केवल एक कृष्ण के भवन को छोड़, जनशून्य द्वारिका को समुद्र ने डुबो दिया।
अर्जुन सभी द्वारिकावासियों को पंचनद (पंजाब) देश में बसाने के लिए ले चले। रास्ते में लुटेरों ने, उनपर धावा बोल कर, उन्हें लूट लिया। हारे हुए से अर्जुन अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ आये और वहां व्यास जी को संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। व्यास जी ने अर्जुन को समझाया कि प्राणियों की उन्नति और अवनति का कारण काल ही है। संपूर्ण चराचर काल के ही रचे हुए हैं और काल से ही क्षीण हो जाते हैं। तदोपरांत अर्जुन, व्यास जी के कथनानुसार, अपने भाइयों सहित संपूर्ण राज्य को छोड़ कर, परीक्षित को अभिषिक्त कर स्वयं हिमालय को चले गये। इन्ही राजा परीक्षित का संवाद भागवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो मुत्यु लोक के संपूर्ण कष्टों का निवारण करने में सक्षम है।
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