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अमलेश्वर महाकाल और आदि शंकराचार्य की अद्वैत अनुभूति

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आपका श्रद्धा से परिपूर्ण आग्रह स्वीकार है। प्रस्तुत है —


🔱 “अमलेश्वर महाकाल और आदि शंकराचार्य की अद्वैत अनुभूति”

(एक ऐतिहासिक-आध्यात्मिक गाथा)


🌿 भूमिका:

भारत के आध्यात्मिक इतिहास में दो तत्व सर्वप्रमुख हैं:

  1. प्रतीकात्मकता और अनुभूति,
  2. और स्थान की दिव्यता एवं ऋषि-परंपरा

जब इन दोनों का संगम होता है, वहाँ जन्म लेती है — एक जीवित तीर्थ-कथा, जैसे अमलेश्वर महाकाल धाम की यह कथा।


📜 शंकराचार्य — ज्ञान की चैतन्य-ज्योति:

आदि शंकराचार्य, जिनका जन्म केरल के कालड़ी ग्राम में हुआ, केवल ३२ वर्षों की अल्पायु में ही भारत की आत्मा को अद्वैत ब्रह्मज्ञान से प्रकाशित कर गए।
उन्होंने कहा —

“ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”
(ब्रह्म ही सत्य है, यह संसार माया है, और जीव स्वयं ब्रह्म ही है।)

उनका जीवन साधना, शास्त्रार्थ और भारत-भ्रमण से भरा हुआ था।


🚶‍♂️ भारत भ्रमण और दक्षिण कोसल की ओर यात्रा:

788 ईस्वी के आस-पास, जब वे अपने शिष्यों (पद्मपाद, तोटकाचार्य, हस्तामलक, सुरेश्वराचार्य) के साथ काशी से रामेश्वरम की ओर जा रहे थे, तब उन्होंने दक्षिण कोसल (आज का छत्तीसगढ़) की ओर मार्ग पकड़ा।

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यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं थी, यह उनके लिए “ज्योति से ज्योति तक” की साधना थी।


🌊 खारून नदी का तट और दिव्य आकर्षण:

पाटन क्षेत्र से होकर खारून नदी बहती है — यह नदी शांत, किन्तु गूढ़ है।
ग्रामवासियों ने उन्हें बताया कि उस वनखंड में एक शिवलिंग है —
स्वयंभू, नागों से संरक्षित, और चमत्कारी।
उसे “अमलेश्वर” कहते हैं —

“जो अमल (निर्मल), नित्य, कालातीत, और मोह-माया से परे है।”


🕉️ तपोवन में शंकराचार्य का ध्यान:

शंकराचार्य और उनके शिष्य वहाँ पहुँचे।
वन में प्रविष्ट होते ही उन्हें अद्वितीय शांति का अनुभव हुआ।
शंकराचार्य बोले:

“यह भूमि साधकों की प्रतीक्षा करती प्रतीत होती है।”

उन्होंने शिवलिंग के समीप, एक वटवृक्ष के नीचे त्रि-रात्रि मौन ध्यान का व्रत लिया।


🌌 तीसरी रात्रि का दर्शन: शिवस्वरूप की अनुभूति:

रात्रि के तीसरे प्रहर में उन्हें एक दिव्य अनुभूति हुई:

शिव स्वयं प्रकट हुए —
ना त्रिशूल था, ना डमरू। ना भेष था, ना नाद।

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केवल एक शुद्ध, अमल ज्योति
जिसमें न रात्रि थी, न दिन।
न द्वैत था, न भेद।

शिव ने कहा:

“हे वत्स! तू मेरे स्वरूप को ‘रुद्र’ समझता है, पर मैं ‘निर्लेप ब्रह्म’ हूँ।
यहाँ जो लिंग है, वह प्रतीक नहीं, ज्ञान का स्तंभ है।
नाग जो इसे रक्षित करते हैं, वे काल के प्रहरी हैं।
यहाँ जो ध्यान करता है, वह स्वयं को माया से मुक्त कर पाता है।”


✍️ शंकराचार्य की वाणी:

नींद से जागकर, उन्होंने अपने शिष्यों से कहा:

“यह लिंग केवल पूजन का केन्द्र नहीं,
यह ब्रह्म के अमल तत्व की जीवित मूर्ति है।”

उन्होंने एक स्तोत्र की रचना की, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं (लोकश्रुतियों पर आधारित):

“कालान्तरातीतममलत्वरूपं,
अमलेश्वरं भावये ध्याननिष्ठः।
न माया, न मर्त्य, न मोहास्पदं ते —
शिवं ब्रह्मरूपं निजानंदपूर्णम्।”

(अनुवाद: “जो काल से परे है, निर्मल है — उस अमलेश्वर को मैं ध्यान में अनुभव करता हूँ। तू न माया है, न मरण, न मोह — तू शिव है, पूर्ण ब्रह्मस्वरूप।”)


🌺 धाम को दिया नाम: “अमलेश्वर”

शंकराचार्य ने कहा:

“यह महाकाल का ‘निर्मल स्वरूप’ है —
इसलिए इसका नाम अमलेश्वर महाकाल उचित है।”

शिष्यों ने उस क्षेत्र को “ज्ञानभूमि” घोषित किया, और वहाँ एक शिव-तंत्र परंपरा की नींव रखी गई।

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📚 ऐतिहासिक पुष्टियाँ और संकेत:

  • दक्षिण कोसल में 8वीं–9वीं सदी के शैव मंदिर मिलते हैं (सिरपुर, मल्हार, अर्जुन्दा)।
  • नाग शैली के शिवलिंग और नंदी की प्रतिमाएँ इसी काल में उकेरी गईं, जो अमलेश्वर के पास भी मिलती हैं।
  • लोककथाओं में शंकराचार्य की पदयात्रा और “अमलेश्वर” नाम का संबोधन मिलता है।

आदि शंकराचार्य ने अमलेश्वर को केवल एक मंदिर नहीं,
बल्कि “निर्मल ब्रह्म के साक्षात स्रोत” के रूप में देखा।

यह कथा हमें सिखाती है —

जहाँ शिव ‘काल’ हैं, वहीं वे ‘अमल’ भी हैं।
जो माया से परे देख सके, वही शिव को वास्तव में जान सकता है।