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अमलेश्वर वट-ग्वाल कथा

❖ अमलेश्वर वट-ग्वाल कथा ❖   श्री महाकाल अमलेश्वर धाम, खारून नदी तट, छत्तीसगढ़ कालखंड:प्राचीन युग के उत्तरार्ध — जब ऋषियों का तप और श्राप एक साथ लोक-जीवन को आकार देते थे। कथा का प्रारंभ एक समय अमलेश्वर धाम के समीपवर्ती गांवों में कुछ ग्वाले (ग्वाल-बाल)रहते थे — चंचल, हँसमुख, परंतु धर्म-विरुद्ध कृत्यों की ओर उन्मुख। वे महाकाल की तपस्थली में नित्य शोर करते, ऋषियों की समाधि भंग करते और वटवृक्ष की शाखाओं पर क्रीड़ा करते। धाम में उस समय एक *परम तपस्वी ऋषि "वरुणकेतु"* तपस्यारत थे, जिन्होंने सात पीढ़ियों...
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“निषाद कन्या और महाकाल का वरदान”

"निषाद कन्या और महाकाल का वरदान" बहुत समय पहले, जब खारून नदी अपने तटों पर शांति बिखेरती थी और श्रीअमलेश्वर महाकाल मंदिर तपस्वियों की साधना से गुंजायमान रहता था, उस वनांचल में एक निषाद कन्या नलिनी रहती थी। निषादों का जीवन कठिन था, पर नलिनी जन्म से ही अत्यंत तेजस्विनी, परम भक्त और सरल स्वभाव की थी। उसकी भक्ति महाकाल के प्रति इतनी गहरी थी कि वह प्रतिदिन खारून नदी में स्नान कर "ॐ नमः शिवाय" का जाप करते हुए अमलेश्वर धाम की परिक्रमा करती। एक बार, आषाढ़ की अंधेरी...
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तपस्वी विश्वामित्र और अमलेश्वर की गाथा

 तपस्वी विश्वामित्र और अमलेश्वर की गाथा आत्मसम्मान बनाम अपमान प्राचीन काल में एक प्रतापी क्षत्रिय राजा थे—कौशिक, जो युद्धकला के महारथी और धर्मनिष्ठ राजर्षि थे। किंतु एक दिन उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में कामधेनु के चमत्कार देखे। वशिष्ठ के एक मन्त्र से संपूर्ण सैन्यशक्ति निष्फल हो गई। यह दृश्य कौशिक के आत्मसम्मान को चुभ गया। उनका मन भीतर तक काँप गया— “मैं सब कुछ जानता हूँ, पर क्या ब्रह्मतेज के बिना मेरी शक्ति अधूरी है?” श्लोक (शार्दूलविक्रीडित):* वशिष्ठगौकार्याद् मन्दोऽहं किंचित् भ्रान्तो हृदि मया । “कर्मज्ञोऽहं भव” इति संकल्प्य महाकालं...
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तपस्वी विश्वामित्रः महाकाल-अमलेश्वरसंनिविष्टः

तपस्वी विश्वामित्रः महाकाल-अमलेश्वरसंनिविष्टः आत्मसम्मान-अपमानः प्राचीन काल में राजर्षि विश्वामित्र पूर्वतः कौशिक नाम धनुर्धरः आसीत्। एकदा ब्रह्मर्षि वशिष्ठेण सिद्धं गौसत्त्वं दृष्ट्वा तस्यैव गायत्री-शक्त्या निरर्थकत्वं अनुभूतवान्। वशिष्ठेण निर्गतं चण्डिका-वधं न शक्यतामिति तन्महात्म्ये विषण्णः। “किं मम क्षमतां वशिष्ठं विना?” इति चिन्तया हृदय कम्पितम्। श्लोकः (शार्दूलविक्रीटछन्दः, १९ मात्राः)* वशिष्ठगौकार्याद् मन्दोऽहं किंचित् भ्रान्तो हृदि मया । “कर्मज्ञोऽहं भव” इति संकल्प्य महाकालं समाश्रितः ॥ महाकाल-अमलेश्वराय संगमनिर्देशः स्वप्ने जग्मन् विश्वामित्रः महाकालं दैववत् प्रकटितं— “यदि ब्रह्मर्षिसमनं जीवन-बलं प्रापयितुम् इच्छसि, अमलेश्वरधामे तिमिरसन्निवेशं विस्मृत्य, चतुष्पदपूजनं कुरु, दिव्यज्ञानं लभिष्यसि।” सङ्कल्पसिद्ध्यर्थं प्रातःकाले ही राजर्षिः स्वयम्प्रकाशितं रथं त्यक्त्वा खारुनतीरं पारयित्वा अमलेश्वरगिरिगुहायामपहतः। चतुष्पद-पूजनम् एवं...
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सत्यव्रत श्रीमहाकालानुग्रही – अमलेश्वर की पावन कथा

  "सत्यव्रत: श्रीमहाकालानुग्रही" – अमलेश्वर की पावन कथा श्री अमलेश्वर महाकालधाम, खारून नदी तट, प्राचीन काल। भूमिका: अमलेश्वर ग्राम में एक निर्धन ब्राह्मण दंपत्ति रहते थे — श्री हरिपाल शास्त्री और उनकी पत्नी सौम्या। वे खंडित पुरोहिती से बड़ी कठिनाई से दो वक्त का भोजन जुटाते। उनका इकलौता पुत्र *सत्यव्रत*, अत्यंत तेजस्वी, धर्मनिष्ठ और बाल्यकाल से ही श्री महाकाल का परम भक्त था। कथा आरंभ: एक दिन सत्यव्रत अपने पिता के साथ श्री महाकाल के मंदिर में गया। वहाँ उसने देखा कि कुछ बड़े आचार्य शास्त्रार्थ कर रहे हैं, परंतु...
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सत्यव्रत चरितम् श्री महाकाल के भक्त की कथा

सत्यव्रत चरितम् – द्वितीय प्रकरणम् न्यायपरायणता: सत्यव्रत की धर्मसभा राजा धनराज की सभा में एक बार दो बड़े घरानों के बीच भूमि विवाद उपस्थित हुआ। एक पक्ष का तांत्रिक गुरु, मंत्रबल और अभिचार से राजा को प्रभावित करना चाहता था। पर राजा ने निर्णय सत्यव्रत को सौंपा। सत्यव्रत ने भूमि की सीमाओं का प्राचीन शिलालेख, ऋषि-प्रदत्त नक्षत्र-गणना, और वेदाङ्ग ज्योतिष के आधार पर निर्णय सुनाया: "भूमिर्नैव मन्त्रेण न स्वप्नदर्शनेन च। प्रमाणैः सप्तभिः न्यायः, धर्मो मूलं विचक्षणैः॥" तांत्रिक की चाल विफल हुई। जनता में गूंज उठा: "सत्यव्रत न्याय incarnate है!"* 2....
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श्रृंगी महाकाव्य – १९ श्लोकों में वर्णित दिव्य जीवनकथा

१.श्रृंगी महाकाव्य – १९ श्लोकों में वर्णित दिव्य जीवनकथा मङ्गलाचरणम् श्रीशम्भवे त्रिपुरनाशनहेतवे, ज्योतिःस्वरूपसदनाय नमो नमः। येन श्रृङ्गिककण्ठदिशि क्रिपया, वेदाः स्वयं कथित एव सतां गतिः॥१॥ श्लोक २-६: बाल्यकाल और निर्धनता अमलेशग्रामणि शुद्धजातकः ब्राह्मणः स हरिपालनामकः तस्य सूनुरभवच्च सौम्यधीः सत्यव्रतः शिवभक्तिशालिनः॥२॥ भोजनार्थमपि दीनजीवनं, पुरोहित्यकृते तदेकतः। पुत्र एव तु विलोक्य दीनता, शम्भुभक्तिरतिमात्रगामिनी॥३॥ नित्यशम्भुनिकटे सपूजनं, सन्ध्यया सह जपश्च बालतः। द्वारमध्ये शयनं च तन्द्रया, स्वप्नमध्यमहिशम्भुशासनम्॥४॥ श्रृङ्गिकं शिवकरे कृताङ्गुली, दत्तमूर्धनि नवेन्दुशेखरः। श्रवणान्तिकपथे च ध्वन्यते, वेदवाणी सुधया समार्चिता॥५॥ प्रातरेव स विसृष्टबोधनः, वाक्पटुत्वमथ दर्शितं बहु। ब्रह्मसूत्रकथा पितुर्गृहे, वर्धते स तु महान् विचक्षणः॥६॥   श्लोक ७-१२: न्याय और विद्या...
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श्री महाकाल अमलेश्वर प्राकट्य कथा

श्री महाकाल अमलेश्वर प्राकट्य कथा    प्रस्तावना छत्तीसगढ़ की भूमि — जहाँ खारून की धाराएँ शिवमंत्रों सी बहती हैं, वहाँ  अमलेश्वर के तट पर  महाकाल हर 131 वर्षों में प्रकट होते हैं। उनका लिंग न केवल पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है, बल्कि वह आग्नेय ज्योति का स्वयंभू स्वरूप है — जिसे किसी ने स्थापित नहीं किया, जिसे किसी ने गढ़ा नहीं — वह *स्वयं अग्नि में प्रकट हुए शिव हैं। १. अघोर ऋषि और प्राचीन भविष्यवाणी बहुत पुरानी बात है — जब न खारून का पुल था, न रायपुर नगर, न...
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2135 केवल एक तिथि नहीं — एक चेतावनी है, श्री महाकाल अमलेश्वर फिर होंगे भूमिशायी

2135 में हो सकता है कि: विश्व एक बार फिर आध्यात्मिक भूलभुलैया में फँसा होगा भारत के प्राचीन तीर्थों को भुलाया जा रहा होगा और तब खारून तट पर मौन वटवृक्षों के बीच, महाकाल पुनः अंतर्धान हो जाएंगे यह असंवत्सरकाल कहलाएगा — जब साधकों को केवल भीतर जाकर शिव को खोजना पड़ेगा, बाहर नहीं।  क्या 2135 में जागरण भी होगा? हाँ – यदि किसी सत्यव्रती साधक, योगिनी कन्या, निष्कलंक बालक, या किसी तपस्वी कुल के वंशज का जन्म उस युग में हो, जो सच्चे भाव से श्री महाकाल का आह्वान...
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हर 131 वर्षों में जब धरती के पाताल में छिपे पाप प्रबल होंगे, तब मैं भूमिशयन कर कुछ काल तक लुप्त रहूंगा

श्री महाकाल अमलेश्वर के भूमिशयन का गूढ़ रहस्य (विशेषतः 2004 की श्रावण प्रतिपदा पर जागृति की ऐतिहासिक घटना के संदर्भ में)  प्राकट्य की महागाथा: पुराकाल में खारून तट पर तप कर रहे एक महान अघोर ऋषि — सप्तऋषियों के परंपरा-वंशज — ने इस क्षेत्र को महाकाल की स्थली घोषित किया था। कहा जाता है कि महाकाल स्वयं उनके आह्वान पर तीव्र अग्निकुण्ड से प्रकट हुए थे। यह प्रकट्य अद्भुत था — ना शिवलिंग भूमिपृष्ठ पर था, ना कोई प्रतिमा — बल्कि अग्नि में स्वयं प्रकट हुए ज्वालामय महाकाल। तब स्वयं...
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सम्राट लक्ष्मिकार्ण का जीवन महाकालधाम अमलेश्वर से अभिन्न था

  वीर लोकमणि: कलचुरी सम्राट लक्ष्मिकार्ण की कथा संवत् 1098 (ई. सन् 1041) — मध्य भारत की कलचुरी वंशीय धरा पर एक नूतन नक्षत्र उदित हुआ, जिसका नाम था लक्ष्मिकार्ण। महाकाल की नगरी उज्जैन से लेकर गोदावरी तट तक फैले उनके साम्राज्य में वीरता, संस्कृति और धर्म की ज्योति उज्ज्वल हो उठी। बाल्य से पराक्रम तक लखनऊपुरी (आज का खड़गपुर, छत्तीसगढ़) में जन्मे लक्ष्मिकार्ण बचपन से ही मेष राशि के गुणों से युक्त थे—दृढ़निश्चयी, साहसी और न्यायप्रिय। केवल 15 वर्ष की अवस्था में माता-पिता का सान्निध्य खोकर सिंहासन संभाला। प्रथम...
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पितृमोक्ष महायात्रा: श्री महाकाल धाम अमलेश्वर

पितृमोक्ष महायात्रा: श्री महाकाल धाम अमलेश्वर संवत् 1278 — जब वंश धमनियों में थम रहा था* अमलेश्वर का क्षेत्र कलकत्ते नगर के समीप स्वतंत्र राज्य हुआ करता था। वहाँ के राजवंश की मध्यमा पीढ़ी में अचानक संतानहीनता ने घर-घर को शोकविहीन कर दिया। पीढ़ियों से चलती परम्परा अचानक टूटने लगी—राजा, राजकुमार और राज्याभिषेक की आशाएँ सब मलिन हो चलीं। श्राद्धहीनि पूर्णिमा और अपूर्ण चंद्र हर पूर्णिमा को मंदिर के प्रधान पुरोहित श्लोकमालाएँ जपता, पर पिण्डदान के बिना श्राद्ध अपूर्ण रह जाता। अमावस्या पर चंद्रमा छिपने लगता, और महाकाल मंदिर के...
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पितृदोष और उसकी शांति का विधान का शास्त्र प्रमाण

  1. पितृदोष और उसकी शांति का विधान गरुड़ पुराण (पूर्व खंड, अध्याय 40-42): पितृदोष का कारण, संकेत, और उसके निवारण के लिए श्राद्ध, नारायण बली, पिंडदान आदि विधियों का वर्णन है। इसमें वर्णन है कि पितरों के रुष्ट होने से संतानहीनता, गर्भपात, वंश रुकावट जैसे कष्ट होते हैं। 2. सर्पशाप का प्रभाव और शमन महाभारत (आदि पर्व, सर्पसत्र प्रसंग) राजा जनमेजय द्वारा तक्षक नाग को नष्ट करने हेतु किया गया सर्पसत्र यज्ञ, जो उनके पिता परीक्षित की मृत्यु के प्रतिशोध में था। इससे संकेत मिलता है कि सर्प द्वारा...
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“श्री महाकाल धाम: जहाँ खारुन विभाजन नहीं, जीवन का प्रवाह है”

  “श्री महाकाल धाम: जहाँ खारुन विभाजन नहीं, जीवन का प्रवाह है” 📜 इतिहास में दर्ज़ एक कथा (संवत् 1124 - वर्तमान) आज से लगभग हज़ार वर्ष पूर्व, जब छत्तीसगढ़ "दक्षिण कोसल" कहलाता था और रतनपुर की गद्दी पर कलचुरी वंश के प्रतापी राजा भोजदेव का शासन था, तब उनके प्रधान पुजारी और तांत्रिक विद्वान ऋषि वेदारण्य ने एक भविष्यवाणी की थी: > "जत्र स्थिता खारुणा, तत्र स्थिरं प्राणशक्तिः। यत्र तिष्ठति महाकालः, तत्र न भूखण्डभेदः।"   (जहाँ खारुन बहती है, वहाँ प्राणशक्ति स्थिर रहती है। जहाँ महाकाल विराजते हैं, वहाँ...
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मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा के प्रमुख 13 स्टेजेस

शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के बाद जीवात्मा के अनुभव और यात्रा के मुख्य चरण (Stages After Death as per Hindu Scriptures): यह विवरण मुख्यतः गरुड़ पुराण, बृहदारण्यक उपनिषद, कठोपनिषद, भागवत पुराण, और योगवशिष्ठ जैसे ग्रंथों पर आधारित है। मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा के प्रमुख 13 स्टेजेस (संक्षेप में): क्रम अवस्था / स्टेज विवरण 1 मृत्यु काल (प्राण-त्याग) जब प्राण (Vital Energy) शरीर छोड़ता है, अंतिम श्वास रुक जाती है। पांच प्राण वायु (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) शरीर से निकलती हैं। 2 शरीर से आत्मा का अलगाव आत्मा...
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अकाल मृत्यु के बाद जीवात्मा को मिलने वाली सजा

गरुड़ पुराण में अकाल मृत्यु के बाद जीवात्मा को मिलने वाली सजा के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है. जानते हैं गरुड़ पुराण में अकाल मृत्यु को किस श्रेणी में रखा गया है. गरुड़ पुराण हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पुराण है, जिसमें मृत्यु के बाद की यात्रा, पाप-पुण्य का फल, यमलोक की व्यवस्था और प्रेत यात्रा का विस्तृत विवरण मिलता है। विशेष रूप से अकाल मृत्यु (जिसे समय से पूर्व मृत्यु कहा गया है) के संबंध में इसमें बहुत ही गंभीर चेतावनियाँ और दंडों का उल्लेख है। 🔱 गरुड़...
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श्रीहनुमत्प्रशंसनम्

श्रीहनुमत्प्रशंसनम् मुक्तिप्रदानात् प्रतिकर्तृता मे सर्वस्य बोधो भवतां भवेत । हनूमतो न प्रतिकर्तृता स्यात् स्वभावभक्तस्य निरौषधं मे ॥ १॥ मद्भक्तौ ज्ञानपूर्तावनुपधिकबलप्रोन्नतिस्थैर्यधैर्य- स्वाभाव्याधिक्यतेजःसुमतिदमशमेष्वस्य तुल्यो न कश्चित् । शेषो रुद्रः सुपर्णोऽप्युरुगुणसमितौ नो सहस्रांशुतुल्या अस्येत्यस्मान्मदैशं पदमहममुना सार्धमेवोपभोक्ष्ये ॥ २॥ पूर्वं जिगाय भुवनं दशकन्धरोऽसा- वब्जोद्भवस्य वरतो न तु तं कदाचित् । कश्चिज्जिगाय पुरुहूतसुतः कपित्वाद्- विष्णोर्वरादजयदर्जुन एव चैनम् ॥ ३॥ दत्तो वरो न मनुजान् प्रति वानरांश्च धात्रास्य तेन विजितो युधि वालिनैषः । अब्जोद्भवस्य वरमाश्वभिभूय रक्षो जिग्ये त्वहं रणमुखे बलिमाह्वयन्तम् ॥ ४॥ बलेर्द्वास्थोऽहं वरमस्मै सम्प्रदाय पूर्वं तु । तेन मया रक्षोऽस्तं योजनमयुतं पदाङ्गुल्या ॥ ५॥ पुनश्च युद्धाय...
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श्रीवेङ्कटेश क्षमात्रयस्त्रिंशच्छ्लोकी

श्रीवेङ्कटेश क्षमात्रयस्त्रिंशच्छ्लोकी श्रीमद्वेङ्कटशैलवर्यशिखरे रत्नप्रदीपो महां त्रैलोक्यान्धतमिस्र चूषणकृते यो जाज्वलीति स्फुटम् । कल्याणव्रजरोध्यनादिसु दृढाघध्वान्त विध्वंसनं कुर्वन्मङ्गलमातनोतु नितरामात्मानुरूपं स नः ॥ १॥ महामोहमय्यां भवाब्ध्यन्तरीपे महाधन्वमह्यां मदीयं चरन्तम् । मृगं स्वान्तनामानमार्ते परीतं महांहोमृगेन्द्रै रमेशाशु रक्ष ॥ २॥ प्रभो वेङ्कटेश प्रभा भूयमी ते तमः सञ्छिनर्त्ति प्रदेशे ह्यशेषे । अहो मे हृदद्रेर्गुहागूढमन्धन् तमो नैति नाशं किमेतन्निदानम् ॥ ३॥ अथावैमि वैतन्निदानं हृदाहं सहा त्वत्सपर्याविपर्यासहेतौ । कुमार्गे महामोहमार्गे सनिष्ठः सुनिष्ठातृभावं प्रभो यद्वहामि ॥ ४॥ जनं तावकीनं किमेनं सुदीनं वृथाजातमेवं वृथोपेक्षसे त्वम् । रमेशैवमेवं वृथोपेक्षसे चेत् क्षमायाः प्रकाशो मदन्येन केन ॥ ५॥ मदन्यः क्व विप्रेषु वैश्येषु- राजस्वथो शूद्रजातिष्वथो...
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द्वादशस्तोत्राणि

द्वादशस्तोत्राणि ॥ द्वादश स्तोत्राणि॥ अथ प्रथमस्तोत्रम् वन्दे वन्द्यं सदानन्दं वासुदेवं निरञ्जनम् । इन्दिरापतिमाद्यादि वरदेश वरप्रदम् ॥ १॥ नमामि निखिलाधीश किरीटाघृष्टपीठवत् । हृत्तमः शमनेऽर्काभं श्रीपतेः पादपङ्कजम् ॥ २॥ जाम्बूनदाम्बराधारं नितम्बं चिन्त्यमीशितुः । स्वर्णमञ्जीरसंवीतं आरूढं जगदम्बया ॥ ३॥ उदरं चिन्त्यं ईशस्य तनुत्वेऽपि अखिलम्भरम् । वलित्रयाङ्कितं नित्यं आरूढं श्रियैकया ॥ ४॥ स्मरणीयमुरो विष्णोः इन्दिरावासमुत्तमैः । var इन्दिरावासमीशितुः इन्दिरावासमुत्तमम् अनन्तं अन्तवदिव भुजयोरन्तरङ्गतम् ॥ ५॥ शङ्खचक्रगदापद्मधराश्चिन्त्या हरेर्भुजाः । पीनवृत्ता जगद्रक्षा केवलोद्योगिनोऽनिशम् ॥ ६॥ सन्ततं चिन्तयेत्कण्ठं भास्वत्कौस्तुभभासकम् । वैकुण्ठस्याखिला वेदा उद्गीर्यन्तेऽनिशं यतः ॥ ७॥ स्मरेत यामिनीनाथ सहस्रामितकान्तिमत् । भवतापापनोदीड्यं श्रीपतेः मुखपङ्कजम् ॥ ८॥ पूर्णानन्यसुखोद्भासिं अन्दस्मितमधीशितुः ।...
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श्रीकृष्णजयन्ती निर्णयः

श्रीकृष्णजयन्ती निर्णयः रोहिण्या मध्यरात्रे तु यदा कृष्णाष्टमी भवेत् । जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशनी(नं) ॥ १॥ यस्यां जातो हरिः साक्षान्नि शेते भगवानजः । तस्मात्तद्दिनमत्यर्थं पुण्यं पापहरं शुभपरम् ॥ २॥ तस्मात्सर्वैर्रुपोश्या सा जयन्ती नाम सा(वै) सदा । द्विजातिभिर्विशेषेण तद्भक्तैश्च विशेषतः ॥ ३॥ यो भुङ्क्ते तद्दिने मोहा(लोभा)त् पूयशोणितमत्ति सः । तस्मादुपवासेन्नित्य(पुण्य)ं तद्दिने(नं) श्रद्धयान्वितः ॥ ४॥ कृत्वा शौचं यथा न्यायं स्नानं कुर्यादतंद्रितः । प्रभात काले कुर्वीत यूगायेत्यादिमन्त्रतः ॥ ५॥ नित्याह्निकं प्रकुर्वीत भगवन्तमनुस्मरन् । मध्याह्न काले च पुमान् सायङ्काले त्वतन्द्रितः ॥ ६॥ स्नायेत पूर्वमन्त्रेण वासुदेवमनुस्मरन् । ततः पूजां प्रकुर्वेत विधिवत्सुसमाहितः ॥ ७॥ यनायेति च...
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कन्दुकस्तुती

कन्दुकस्तुती श्रीमदानन्दतीर्थ-भगवत्पादाचार्य विनिर्मिता ॥ अंबरगंगा-चुंबित-पादः पदतल-विदलित-गुरुतर-शकटः । कालियनाग-क्ष्वेल-निहन्ता सरसिज-नवदल-विकसित-नयनः ॥१॥ कालघनाली-कर्बुर-कायः शरशत-शकलित-रिपुशत-निवहः । संतत-मस्मान् पातु मुरारिः सततग-समजव-खगपति-निरतः ॥२॥ ॥ इति श्रीमदानन्दतीर्थभगवत्पादाचार्य विरचिता कन्दुकस्तुतिः संपूर्णा ॥...
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श्रीसरस्वतीस्तोत्रं अगस्त्यमुनिप्रोक्तम्

श्रीसरस्वतीस्तोत्रं अगस्त्यमुनिप्रोक्तम् श्रीगणेशाय नमः । या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना । या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैस्सदा पूजिता (वन्दिता) सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाड्यापहा ॥ १॥ दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिनिभैरक्षमालान्दधाना हस्तेनैकेन पद्मं सितमपिच शुकं पुस्तकं चापरेण । भासा कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥ २॥ सुरासुरासेवितपादपङ्कजा करे विराजत्कमनीयपुस्तका । विरिञ्चिपत्नी कमलासनस्थिता सरस्वती नृत्यतु वाचि मे सदा ॥ ३॥ सरस्वती सरसिजकेसरप्रभा तपस्विनी सितकमलासनप्रिया । घनस्तनी कमलविलोललोचना मनस्विनी भवतु वरप्रसादिनी ॥ ४॥ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि । विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ ५॥ सरस्वति नमस्तुभ्यं सर्वदेवि नमो नमः...
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शक्तिसूत्राणि

शक्तिसूत्राणि अथ शक्तिसूत्राणि भगवदगस्त्यविरचितानि । अथातः शक्तिजिज्ञासा ॥ १॥ यत्कर्त्री ॥ २॥ यदजा ॥ ३॥ नान्तरयोऽत्र ॥ ४॥ तत्सान्निध्यात् ॥ ५॥ तत्कल्पकत्वमौपाधिकम् ॥ ६॥ समानधर्मत्वात् ॥ ७॥ तच्च प्रातिभासिकम् ॥ ८॥ यद्बन्धः ॥ ९॥ यदारोपाध्यासादैक्यम् ॥ १०॥ शब्दाधिष्टानलिङ्गम् ॥ ११॥ नानावान् ॥ १२॥ तच्च कालिकम् ॥ १३॥ अखण्डोपाधे ॥ १४॥ यामेव भूतानि विशन्ति ॥ १५॥ यदोतं यत्प्रोतम् ॥ १६॥ तद्विष्णुत्वात् ॥ १७॥ ततो जगन्ति कियन्ति ॥ १८॥ नानात्वेऽप्येकत्वम्विरुद्धम् ॥ १९॥ विचारात् ॥ २०॥ यस्माददृश्यं दृश्यञ्च ॥ २१॥ दृष्टित्वव्यपदेशाद्वा ॥ २२॥ अविनाभावित्वात् ॥ २३॥ भिन्नत्वे नानियाम्यत्वे ॥ २४॥ अतथाविधा ॥ २५॥...
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श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं अगस्त्यरचितम्

श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं अगस्त्यरचितम् जय पद्मपलाशाक्षि जय त्वं श्रीपतिप्रिये । जय मातर्महालक्ष्मि संसारार्णवतारिणि ॥ महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि । हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ॥ पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे । सर्वभूतहितार्थाय वसुवृष्टिं सदा कुरु ॥ जगन्मातर्नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे । दयावति नमस्तुभ्यं विश्वेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥ नमः क्षीरार्णवसुते नमस्त्रैलोक्यधारिणि । वसुवृष्टे नमस्तुभ्यं रक्ष मां शरणागतं ॥ रक्ष त्वं देवदेवेशि देवदेवस्य वल्लभे । दरिद्रात्त्राहि मां लक्ष्मि कृपां कुरु ममोपरि ॥ नमस्त्रैलोक्यजननि नमस्त्रैलोक्यपावनि । ब्रह्मादयो नमस्ते त्वां जगदानन्ददायिनि ॥ विष्णुप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं जगद्धिते । आर्तहन्त्रि नमस्तुभ्यं समृद्धिं कुरु मे सदा ॥ अब्जवासे नमस्तुभ्यं चपलायै नमो...
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एकादशमुखहनुमत्कवचम्

एकादशमुखहनुमत्कवचम् श्रीगणेशाय नमः । लोपामुद्रा उवाच । कुम्भोद्भव दयासिन्धो श्रुतं हनुमतः परम् । यन्त्रमन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥ १॥ दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे । कवचं वायुपुत्रस्य एकादशमुखात्मनः ॥ २॥ इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् । वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभुः ॥ ३॥ अगस्त्य उवाच । नमस्कृत्वा रामदूतां हनुमन्तं महामतिम् । ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं श‍ृणु सुन्दरि सादरम् ॥ ४॥ सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् । कवचं कामदं दिव्यं रक्षःकुलनिबर्हणम् ॥ ५॥ सर्वसम्पत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे । ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः ॥ ६॥ हनुमत्स्तुतिमन्त्रस्य सनन्दन ऋषिः स्मृतः । प्रसन्नात्मा हनूमांश्च देवता परिकीर्तिता ॥...
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तन्त्रोक्तनवग्रहमन्त्रजपप्रयोगः

तन्त्रोक्तनवग्रहमन्त्रजपप्रयोगः अथ श्रीसूर्यमन्त्रः - ॐ ह्राँ ह्रीं सः इति त्र्यक्षरं मन्त्रः ॥ ॐ अस्य श्रीसूर्यमन्त्रस्य अज ऋषिः, गायत्री छन्दः, सूर्यो देवता, ह्रां बीजम्, ह्रीं शक्तिः, सः कीलकम्, श्रीसूर्यप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः । ॐ अज ऋषये नमः शिरसि । ॐ गायत्रीछन्दसे नमः मुखे । ॐ सूर्यदेवतायै नमः हृदि । ॐ ह्रां बीजाय नमः गुह्ये । ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः । ॐ सः कीलकाय नमः सर्वाङ्गे । इति ऋष्यादिन्यासः ॥ अथ अङ्गन्यासः - ॐ आं ह्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ईंह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ऊँ ह्रीं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ऐं...
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श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम्

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् अथ प्रथमः पटलः । ईश्वरदत्तात्रेयसंवादः श्रीदत्तात्रेय उवाच कैलाशशिखरासीनं देवदेव महेश्वरम्(var)जगद्गुरुम् Ka दत्तात्रेयस्तु पप्रच्छ शंकरं लोकशंकरम् ॥ १॥ कृतांजलिपुटो भूत्वाऽपृच्छत्(var)पृच्छते Kaस भक्तवत्सलम् । भक्तानां च हितार्थाय तन्त्रकल्पश्च कथ्यताम्(var)कल्पतन्त्रं प्रकथ्यताम् Ka॥ २॥ कलौ सिद्धं महाकृत्यं(var)सिद्धिप्रदं कल्पं Ka तन्त्रविधाविधानकम् । कथयस्व महादेव देवदेव महेश्वर ॥ ३॥ सन्ति नानाविधा लोके यन्त्रमन्त्राभिचारकाः । आगमोक्ताः पुराणोक्ता वेदोक्ता डामरे तथा ॥ ४॥ उड्डीशे मारीततन्त्रे(var)मेरुतन्त्रे Ka च कालीचण्डीश्वरे मते(var)चण्डैश्वरे तथा Ka। राधातन्त्रे तथोच्छिष्टे(var)च देवेष Ka। धारातन्त्रे मृडेश्वरे(var)अमृतेश्वरे Ka॥ ५॥ ते सर्वे कीलनं कृत्वा(var)कीलिताश्चैव Ka कलौ वीर्यविवर्जिताः । कामक्रोधवशीभूता ब्राह्मणास्तस्य हेतबः(var)ब्राह्मणाः कामक्रोधाढ्या एतस्मादेव कारणात् Ka॥ ६॥ विना कीलकमन्त्राश्च...
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बीजात्मक तन्त्र दुर्गा सप्तशती

बीजात्मक तन्त्र दुर्गा सप्तशती ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ यदत्रस्खलितङ्किञ्चित् प्रमादेन भ्रमेण वा । तत्सर्वं शोधयन्त्वार्यां कस्यनस्खलितम्मनः ॥ १॥ गच्छतस्खलनङ्क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ २॥ विनीत- शिवदत्त शास्त्री प्रसङ्गवशश्रीदुर्गासप्तशती के पाठ में आवश्यक सङ्केत- कवच, अर्गला, कीलक के पूर्व शापोद्वारौत्कीलनं तथा मृत सञ्जीवनी विद्या का जप का विधान है, किन्तु विद्वत्परम्परा का सिद्धान्त यह है कि यदि श्री दुर्गासप्तशती का षडङ्ग ( कवच, अर्गला, कीलक तथा त्रयोदशाध्याय के बाद रहस्यत्रय) सहित पाठ कर लिया जाय तो श्रीदुर्गासप्तशती में शापोद्धारादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है ।...
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श्रीचतुःषष्टियोगिनीस्तोत्रम्

श्रीचतुःषष्टियोगिनीस्तोत्रम् २ कलिकाले योगिन्याः प्रभावः अतुलनीयः । सर्वसुखप्रदायिनी सर्वमङ्गलकारिणी ॥ इदं स्तोत्रं बल-बुद्धि-विद्या-प्रदायकम् । त्रैलोक्य-विजय-भुक्ति-मुक्ति सहित-सुखदायकम् ॥ काली नित्य-सिद्धमाता (१) च कपालिनी नागलक्ष्मी (२) त्वां प्रणमाम्यहम् । ( var नागलक्ष्म्यै (तुभ्यं नमः) कुला-देवी स्वर्णदेहा (३) धन-धर्म-प्रदायिनी कुरुकुल्ला रसनाथां (४) नमाम्यहम् । ( var रसनाथायैः नमाम्यहं or रसनाथायै नमः) विरोधिनी विलासिन्यैः (५) सर्वसुखप्रदात्री च विप्रचित्ता रक्तप्रिया (६) शत्रुनाशिनी उग्र-रक्त-भोगरूपा (७) मातः रक्ष माम्, सर्व-विपत्ति-भव-भय-हारिणी उग्रप्रभा शुक्रनाथा (८) च दीपा मुक्तिः रक्ता-देहा (९) मुक्ति-प्रदायका नीला भुक्ति रक्त-स्पर्शा (१०) स्वाहा च घना महा-जगदम्बा (११) जगत्पालिनी बलाका काम-सेवितां (१२) नमामि च मातृ-देवी आत्मविद्या (१३)...
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कुलानन्द तन्त्रम्

कुलानन्द तन्त्रम् ॐ नमो भैरवाय । कैलासशिखरासीनं देवदेव जगद्गुरुम् । परिपृच्छत्युमादेवी एकान्ते ज्ञानमुत्तमम् ॥ १॥ भेदनिमुत्तमभेदं यथा देहव्यवस्थितम् । कथयस्व पुराभेदं कुलानन्देषु चूत्तमम् ॥ २॥ स्थानान्तरविशेषण विज्ञानं कथयस्व मे । सद्यः प्रत्यकारकं यथा देहे व्यवस्थितम् ॥ ३॥ पाशस्तोभञ्च बेधनञ्च धूननं कम्पनं तथ । खेचरं समरसञ्चैव बलीपलितनाशनम् ॥ सर्वं तत्तु सुरेश्वर कथयस्व मम प्रभो ॥ ४॥ भैरव उवाच । श‍ृणु देवि प्रवक्ष्यामि पुरभेदं समुत्तमम् । एतत् कौलिकं ज्ञानं कुलानन्दे चाष्टोत्तमः ॥ ५॥ ब्रह्मस्थाने यत् कमलं चतुःषष्ठिदलान्वितम् । तत्रैव मनसा रोध्य लक्षयेद्दीपशिखान् व्रती ॥ ६॥ पश्यति सर्वदेहे तु दिव्यदृष्टिर्वरानने । तेन लक्षितमात्रेण...
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