हमारे ऋषि मुनियों ने पेड़ पौधों, जड़ी-बूटियों को केवल जीवित ही नहीं माना, उनसे भी आगे बढकर उन्हें मातृ-तुल्य भी माना। यह चिन्तन केवल दयालु हृदय रखने वाले, भारत में ही सम्भव हो सकता था, सम्पूर्ण प्रकृति से आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध जोड़ा गया । उन्हे अपने जीवन का रक्षक माना।
इसी से सम्भव हुआ आयुर्वेद, जिसकी उपयोगिता मानने को आज विश्व विवश हो रहा है।कृत्रिम विधि से निर्मित औषधियों के निर्माण को अमानवीय घोषित कर पुनः प्रकृति की ओर लौटने की बात कही जा रही है।
आयुर्वेद केवल त्रिदोष-कफ, वायु, पित्त की परस्पर विवेचना द्वारा रोगों की सर्वथा अलग-अलग व्याख्या प्रस्तुत करता है, वरन् आयुर्वेद सम्पूर्ण रूप से स्वास्थ्य एवम् शरीर की रक्षा का आधार है। तभी तो उसे वेद की संज्ञा दी गयी है। आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा का ही नहीं वरन् आज की आधुनिकतम पद्धति सर्जरी का भी विवरण प्राप्त होता है, और आश्चर्य होता है कि जो क्रियाएँ आज परिष्कृत यन्त्रो द्वारा भी सफलता से नहीं की जा सकतीं, उसे उन्होने उस मसय विवेचित किया और सफलता प्राप्त की।
हमारे मनीषियों ने, अन्य विषयों के साथ-साथ, वनस्पति के पत्र जड़ का क्या उपयोग हो सकता है, कई ग्रन्थों में इसका वर्णन है। किसी भी प्रयोग से पहले विश्वास तथा आवश्यक है। तब ही पूर्ण फल की प्राप्ति होगी। किसी भी जड़ी बूटी को लाने से पहले उसे एक दिन पहले निमन्त्रण देना अनिवार्य है।
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