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“सर्पशाप और महाकाल: कलचुरी वंश की खोई संतानें

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“सर्पशाप और महाकाल: कलचुरी वंश की खोई संतानें

(एक ऐतिहासिक कथा जो आज भी खारुन के तट पर साँस लेती है)

संवत् 1225 — रतनपुर का शापग्रस्त सिंहासन

रतनपुर राज्य में कलचुरी वंश का पराक्रमी राजा त्रैलोक्यमल्ल सिंहासन पर आरूढ़ था। राज्य सुख-शांति से भरपूर था, परंतु एक दर्द था जो महलों की दीवारों में साँय-साँय करता था — राजा को कोई संतान नहीं थी।

राजा त्रैलोक्यमल्ल ने असंख्य यज्ञ किए, ऋषियों को दान दिया, किन्तु कोई उत्तर न मिला। महलों में हर पूर्णिमा को आशा के दीप जलाए जाते, पर हर अमावस्या को महल सन्नाटे में डूब जाता।

सपने में फुफकारता नाग और उजागर हुआ रहस्य

एक रात्रि, राजा को स्वप्न में एक भयानक काला नाग दिखा, जिसके नेत्र अग्निसमान थे। उसने फुफकारते हुए कहा —

“तेरे पूर्वजों ने अमलेश्वर के तीर्थस्थल पर ब्राह्मण वंशजों की भूमि हड़प ली थी।
महाकाल की चेतना से जुड़ी वह भूमि अब तक कराह रही है।
जब तक उस भूमि पर ‘पलाश विधि’ और ‘सर्प श्राद्ध’ न होगा —
तुम्हारा रक्त वंश रुक जाएगा, और हर संतान गर्भ में ही मरती रहेगी।”

सुबह राजा ने राज्यसभा बुलाई और इतिहास खंगालने पर पाया गया — यह सत्य था। उनके पितामह ने अमलेश्वर के दक्षिण में स्थित एक तांत्रिक ब्राह्मण आश्रम की भूमि को जबरन लेकर वहाँ सैनिक छावनी बनवा दी थी।

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यात्रा महाकाल की ओर

राजा त्रैलोक्यमल्ल, रथ पर सवार होकर खारुन नदी पार कर अमलेश्वर पहुँचे। वहाँ वर्षों से उपेक्षित महाकाल धाम की हालत जर्जर थी। परंतु जब राजा ने मंदिर में प्रवेश किया, तो मंदिर के अंदर नंदी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी।

पुजारी ने बताया — “राजन, वर्षों से यहाँ कोई ‘पितृशांति यज्ञ’ नहीं हुआ। खंडित रक्त के कारण यहाँ की चुप्पी अब क्रोध बन गई है।”

पलाश विधि, सर्प श्राद्ध और नारायण बलि

तीन दिनों तक राजा ने महाकाल के सामने पलाश की काठ से मृतात्माओं का प्रतीक पिण्ड बनाकर:

एकोदिष्ट श्राद्ध,

सर्प श्राद्ध,

और नारायण बलि यज्ञ किया।

तीसरे दिन, जब मंत्रोच्चार चरम पर था, तभी आकाश में गहन गर्जना हुई — और खंडित शिवलिंग के ठीक पीछे एक स्वयंभू नागफणिकाय शिवलिंग प्रकट हुआ।

पुजारी बोले — “राजन, यह संकेत है कि पितृ अब प्रसन्न हैं। तुम्हारी वंशवेली अब बहेगी।”

उत्तराधिकार का जन्म

अगले वर्ष रानी के गर्भ से एक चक्रचिह्न लिए पुत्र का जन्म हुआ — जिसे बाद में इतिहास ने जाना: राजा पृथ्वीदत्त कलचुरी, छत्तीसगढ़ के स्वर्णयुग का निर्माता।

विरासत और स्मृति

आज भी खारुन नदी के तट पर स्थित श्री महाकाल अमलेश्वर धाम में, एक पत्थर पर नागचिह्न और चक्रचिह्न अंकित है — जिसे “सर्पमोक्ष शिला” कहते हैं।

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राज्य के शाही परिवारों में जब भी गर्भपात, संतानहीनता, या वंश रुकावट की घटनाएँ आती हैं, तो बुज़ुर्ग यही कहते हैं:

> “पहले खारुन पार करो…
और महाकाल के समक्ष पलाश विधि और सर्प श्राद्ध करो।
वहीं से वंश दुबारा बहता है।”

निष्कर्ष:

राजा त्रैलोक्यमल्ल की कथा यह सिखाती है कि जब भूमि की पीड़ा, पूर्वजों का दोष, और नागशाप मिल जाएं, तो राज्य की नींव तक हिल जाती है।

और तब…
केवल श्री महाकाल ही वह बिंदु हैं, जहाँ इतिहास रुकता नहीं — मोक्ष लेता है।

 

“पितृमोक्ष महायात्रा: श्री महाकाल धाम अमलेश्वर”

📜 संवत् 1278 — जब वंश धमनियों में थम रहा था
अमलेश्वर का क्षेत्र कलकत्ते नगर के समीप स्वतंत्र राज्य हुआ करता था। वहाँ के राजवंश की मध्यमा पीढ़ी में अचानक संतानहीनता ने घर-घर को शोकविहीन कर दिया। पीढ़ियों से चलती परम्परा अचानक टूटने लगी—राजा, राजकुमार और राज्याभिषेक की आशाएँ सब मलिन हो चलीं।

🌕 श्राद्धहीनि पूर्णिमा और अपूर्ण चंद्र
हर पूर्णिमा को मंदिर के प्रधान पुरोहित श्लोकमालाएँ जपता, पर पिण्डदान के बिना श्राद्ध अपूर्ण रह जाता। अमावस्या पर चंद्रमा छिपने लगता, और महाकाल मंदिर के द्वार स्वयं-सेवा का आह्वान करता प्रतीत होता।

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स्वप्न में बुदबुदाता करघा: एक ज्योतिर्मयी पुकार
एक रात्रि, महारानी को पक्षी-सदृश करघा का स्वप्न आया—वह महाकाल लिंग की पत्थरछाया पर बैठ कर…

“जहाँ यमदूत भी ठहर जाता, वहाँ मेरे पिता स्वयं मूर्ति बन बैठते।
ले आ पितृदोष निवारण ज्योति, तब ही वंश की धारा पुनः प्रवाहित होगी।”

सुबह जागी महारानी ने राजा को प्रसंग सुनाया। राज्यसभा में घोषित हुआ—‘महाकाल की प्रतिमा के सम्मुख प्रथम श्राद्ध अनिवार्य’।

पाषाण से पुनर्निर्मित शिलालेख
वीर सिंह नामक पुरातत्त्ववेत्ता ने पुरातन तल से एक टूटा-फूटा शिलालेख निकाला, जिस पर अंकित था—

“यत्र पिता तSatisfiedद्खलिते च, तत्र वंशा न वेगं ध्रुवीभवेत्।
पितृदोषविनिर्मुक्तयोनिः, तत्रैव महाकालः प्रसन्नो भवति।”
इसका अर्थ था—“जहाँ पितृदोष की पीड़ा रहे, वहाँ वंश गति खो देता, किन्तु महाकाल पूजन से पितृ प्रसन्न होकर वंश में जीवन श्वास भरता है।”

र्थयात्रा और महाप्रसाद
राजा-रानी ने स्वयम् तीन दिवसीय महोत्सव रखा—

सूर्योदय श्राद्ध: तट पर चलायमान अग्नि में पितृशांति यज्ञ।

सर्प श्राद्ध: नंदी प्रांगण में नागपूजा एवं फल-फूल अर्पण।

नारायण बलि: देवता प्रसादरूप बलि से दीनों को भोजन एवं अनाज वितरण।

तीसरे दिन, महाकाल मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू ज्योति प्रकाशित हुई—

“पितृशाप शमितो भवति, वंशो वीर्यं पुनरारभते।”

नवजन्मी क्षत्रिय वंशज
उस वर्ष ही रानी ने कोख धारण कर