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आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्द्वेद नहीं हुआ है।
अंधविश्वासों का वर्गीकरण:
अंधविश्वासों का सर्वसम्मत वर्गीकरण संभव नहीं है। इनका नामकरण भी कठिन है। पृथ्वी शेषनाग पर स्थित है, वर्षा, गर्जन और बिजली इंद्र की क्रियाएँ हैं, भूकंप की अधिष्ठात्री एक देवी है, रोगों के कारण प्रेत और पिशाच हैं, इस प्रकार के अंधविश्वासों को प्राग्वैज्ञानिक या धार्मिक अंधविश्वास कहा जा सकता है। अंधविश्वासों का दूसरा बड़ा वर्ग है मंत्र-तंत्र। इस वर्ग के भी अनेक उपभेद हैं। मुख्य भेद हैं रोग निवारण, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि। विविध उद्देश्यों के पूत्र्यर्थ मंत्र प्रयोग प्राचीन तथा मध्य काल में सर्वत्र प्रचलित था। मंत्र द्वारा रोग निवारण अनेक लोगों का व्यवसाय था। विरोधी और उदासीन व्यक्ति को अपने वश में करना या दूसरों के वश में करवाना मंत्र द्वारा संभव माना जाता था। उच्चाटन और मारण भी मंत्र के विषय थे। मंत्र का व्यवसाय करने वाले दो प्रकार के होते थे-मंत्र में विश्वास करने वाले, और दूसरों को ठगने के लिए मंत्र प्रयोग करने वाले।
अंधविश्वासों का सर्वसम्मत वर्गीकरण संभव नहीं है। इनका नामकरण भी कठिन है। पृथ्वी शेषनाग पर स्थित है, वर्षा, गर्जन और बिजली इंद्र की क्रियाएँ हैं, भूकंप की अधिष्ठात्री एक देवी है, रोगों के कारण प्रेत और पिशाच हैं, इस प्रकार के अंधविश्वासों को प्राग्वैज्ञानिक या धार्मिक अंधविश्वास कहा जा सकता है। अंधविश्वासों का दूसरा बड़ा वर्ग है मंत्र-तंत्र। इस वर्ग के भी अनेक उपभेद हैं। मुख्य भेद हैं रोग निवारण, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि। विविध उद्देश्यों के पूत्र्यर्थ मंत्र प्रयोग प्राचीन तथा मध्य काल में सर्वत्र प्रचलित था। मंत्र द्वारा रोग निवारण अनेक लोगों का व्यवसाय था। विरोधी और उदासीन व्यक्ति को अपने वश में करना या दूसरों के वश में करवाना मंत्र द्वारा संभव माना जाता था। उच्चाटन और मारण भी मंत्र के विषय थे। मंत्र का व्यवसाय करने वाले दो प्रकार के होते थे-मंत्र में विश्वास करने वाले, और दूसरों को ठगने के लिए मंत्र प्रयोग करने वाले।
जादू, टोना:
जादू-टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। इन सबके अंतस्तल में कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन भावों का विश्लेषण नहीं हो सकता। इनमें तर्कशून्य विश्वास है। मध्य युग में यह विश्वास प्रचलित था कि ऐसा कोई काम नहीं है जो मंत्र द्वारा सिद्ध न हो सकता हो। असफलताएँ अपवाद मानी जाती थीं। इसलिए कृषि रक्षा, दुर्गरक्षा, रोग निवारण, संततिलाभ, शत्रु विनाश, आयु वृद्धि आदि के हेतु मंत्र प्रयोग, जादू-टोना, मुहूर्त और मणि का भी प्रयोग प्रचलित था।
मणि धातु, काष्ठ या पत्ते की बनाई जाती है और उस पर कोई मंत्र लिखकर गले या भुजा पर बाँधी जाती है। इसको मंत्र से सिद्ध किया जाता है और कभी-कभी इसका देवता की भाँति आवाहन किया जाता है। इसका उद्देश्य है आत्मरक्षा और अनिष्ट निवारण।
योगिनी, शाकिनी और डाकिनी संबंधी विश्वास भी मंत्र विश्वास का ही विस्तार है। डाकिनी के विषय में इंग्लैंड और यूरोप में 17वीं शताब्दी तक कानून बने हुए थे। योगिनी भूतयोनि में मानी जाती है। ऐसा विश्वास है कि इसको मंत्र द्वारा वश में किया जा सकता है। फिर मंत्र पुरुष इससे अनेक दुष्कर और विचित्र कार्य करवा सकता है। यही विश्वास प्रेत के विषय में प्रचलित है।
फलित ज्योतिष का आधार गणित भी है। इसलिए यह सर्वांशत: अंधविश्वास नहीं है। शकुन का अंधविश्वास में समावेश हो सकता है। अनेक अंधविश्वासों ने रूढिय़ों का भी रूप धारण कर लिया है।
जादू-टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। इन सबके अंतस्तल में कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन भावों का विश्लेषण नहीं हो सकता। इनमें तर्कशून्य विश्वास है। मध्य युग में यह विश्वास प्रचलित था कि ऐसा कोई काम नहीं है जो मंत्र द्वारा सिद्ध न हो सकता हो। असफलताएँ अपवाद मानी जाती थीं। इसलिए कृषि रक्षा, दुर्गरक्षा, रोग निवारण, संततिलाभ, शत्रु विनाश, आयु वृद्धि आदि के हेतु मंत्र प्रयोग, जादू-टोना, मुहूर्त और मणि का भी प्रयोग प्रचलित था।
मणि धातु, काष्ठ या पत्ते की बनाई जाती है और उस पर कोई मंत्र लिखकर गले या भुजा पर बाँधी जाती है। इसको मंत्र से सिद्ध किया जाता है और कभी-कभी इसका देवता की भाँति आवाहन किया जाता है। इसका उद्देश्य है आत्मरक्षा और अनिष्ट निवारण।
योगिनी, शाकिनी और डाकिनी संबंधी विश्वास भी मंत्र विश्वास का ही विस्तार है। डाकिनी के विषय में इंग्लैंड और यूरोप में 17वीं शताब्दी तक कानून बने हुए थे। योगिनी भूतयोनि में मानी जाती है। ऐसा विश्वास है कि इसको मंत्र द्वारा वश में किया जा सकता है। फिर मंत्र पुरुष इससे अनेक दुष्कर और विचित्र कार्य करवा सकता है। यही विश्वास प्रेत के विषय में प्रचलित है।
फलित ज्योतिष का आधार गणित भी है। इसलिए यह सर्वांशत: अंधविश्वास नहीं है। शकुन का अंधविश्वास में समावेश हो सकता है। अनेक अंधविश्वासों ने रूढिय़ों का भी रूप धारण कर लिया है।
कछुआ, खरगोश और अन्धविश्वास:
ये तो आप जानते ही हैं कि कई तरह के अन्धविश्वास होते हैं- कोई समझता है कि बिल्ली के रास्ता काटने से कुछ हो जाता है, कोई छींकों को ले कर कुछ मान बैठता है, तो कोई और समझता है की चूंकि किसी काल्पनिक कथा में कछुआ खरगोश से दौड़ में जीत गया था, इसलिए हमेशा ही धीरे-धीरे चलने वाले की जीत होती है.
थोड़ा चौंके, है न. अब चौंक ही चुके हैं तो थोड़ा सोच भी लीजिये. कहानी में तो धीरे-धीरे चलने वाला तब ही जीता जब तेज दौडऩे वाला सो गया- लेकिन हमारे द्वारा निकाली गयी शिक्षा में यह नहीं कहा जाता है की धीमे चलने वाला तभी जीतता है जब तेज चलने वाला सो जाए! और यह शिक्षा इतनी पक्की होती है की हम अपने आस-पास भी यह देखने से इंकार कर देते हैं कि हमारे धीरे चलने के बावजूद (या शायद इसी वजह से) दूसरे हमसे कितने आगे जा रहे हैं.
इस तरह वास्तविकता और तर्क से परे हो कर (और कहानी के पूरे संभव अर्थ को नजरअंदाज कर के) अगर किसी बात तो माना जाए तो वह अन्धविश्वास नहीं कहलायेगा तो और क्या?
समस्या यह है की ये किसी एक कहानी की बात नहीं है. इस तरह से बिना किसी सोच या तर्क के निष्कर्षों तक पहुँच जाना हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है. न जाने कितनी सारी धारणाएँ हमारे बीच इसी तरह के निराधार कारणों की वजह से हैं. जैसे कि मान लेना कि जो गोरा होता है, वह ज्यादा अच्छा होता है (इसीलिए अरबों की फयेरनेस क्रीमों की बिक्री होती है). या ये समझ लेना कि जिनका रहन-सहन या धर्म या जात या भाषा हमसे अलग होती है, उनमें ज़रूर कोई-न-कोई खोट है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इतिहास और वर्तमान की कुछ बहुत बड़ी समस्याओं की जड़ें इसी तरह के अंधविश्वासों में हैं?
इस सब में हमारा बहाना होता है कि हमको यही सिखाया गया तो हम क्या करें. लेकिन अब अगर आप की उम्र दस साल से ऊपर की है, तो ये बहाना नहीं चलेगा! आप पर लगाये जा रहे लांछन (कि आप अन्धविश्वासी हैं) से बहस करने से बेहतर होगा कि आप इसी तर्कशक्ति का प्रयोग कर के अपने अन्दर झांकें, अपनी धारणाओं को परखें.
आप कहेंगे कि यहाँ पर आस्था और विश्वास और अन्धविश्वास में अंतर ठीक से नहीं समझा जा रहा है. मैं भी यही कह रहा हूँ – पहचाना तो जाये कि हमारी कौन सी धारणाएं सच में विश्वास की श्रेणी मैं हैं और कौन सी अन्धविश्वास में. शायद यह पहचान पाना ही शिक्षा का बहुत अहम् लक्ष्य है? और हाँ, यह पहचानने का काम धीरे-धीरे नहीं करियेगा – असल जीवन में तेज चलने वाले सोते नहीं हैं और आप अपने आप को बहुत ही पिछड़ा पा सकते हैं.
ये तो आप जानते ही हैं कि कई तरह के अन्धविश्वास होते हैं- कोई समझता है कि बिल्ली के रास्ता काटने से कुछ हो जाता है, कोई छींकों को ले कर कुछ मान बैठता है, तो कोई और समझता है की चूंकि किसी काल्पनिक कथा में कछुआ खरगोश से दौड़ में जीत गया था, इसलिए हमेशा ही धीरे-धीरे चलने वाले की जीत होती है.
थोड़ा चौंके, है न. अब चौंक ही चुके हैं तो थोड़ा सोच भी लीजिये. कहानी में तो धीरे-धीरे चलने वाला तब ही जीता जब तेज दौडऩे वाला सो गया- लेकिन हमारे द्वारा निकाली गयी शिक्षा में यह नहीं कहा जाता है की धीमे चलने वाला तभी जीतता है जब तेज चलने वाला सो जाए! और यह शिक्षा इतनी पक्की होती है की हम अपने आस-पास भी यह देखने से इंकार कर देते हैं कि हमारे धीरे चलने के बावजूद (या शायद इसी वजह से) दूसरे हमसे कितने आगे जा रहे हैं.
इस तरह वास्तविकता और तर्क से परे हो कर (और कहानी के पूरे संभव अर्थ को नजरअंदाज कर के) अगर किसी बात तो माना जाए तो वह अन्धविश्वास नहीं कहलायेगा तो और क्या?
समस्या यह है की ये किसी एक कहानी की बात नहीं है. इस तरह से बिना किसी सोच या तर्क के निष्कर्षों तक पहुँच जाना हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है. न जाने कितनी सारी धारणाएँ हमारे बीच इसी तरह के निराधार कारणों की वजह से हैं. जैसे कि मान लेना कि जो गोरा होता है, वह ज्यादा अच्छा होता है (इसीलिए अरबों की फयेरनेस क्रीमों की बिक्री होती है). या ये समझ लेना कि जिनका रहन-सहन या धर्म या जात या भाषा हमसे अलग होती है, उनमें ज़रूर कोई-न-कोई खोट है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इतिहास और वर्तमान की कुछ बहुत बड़ी समस्याओं की जड़ें इसी तरह के अंधविश्वासों में हैं?
इस सब में हमारा बहाना होता है कि हमको यही सिखाया गया तो हम क्या करें. लेकिन अब अगर आप की उम्र दस साल से ऊपर की है, तो ये बहाना नहीं चलेगा! आप पर लगाये जा रहे लांछन (कि आप अन्धविश्वासी हैं) से बहस करने से बेहतर होगा कि आप इसी तर्कशक्ति का प्रयोग कर के अपने अन्दर झांकें, अपनी धारणाओं को परखें.
आप कहेंगे कि यहाँ पर आस्था और विश्वास और अन्धविश्वास में अंतर ठीक से नहीं समझा जा रहा है. मैं भी यही कह रहा हूँ – पहचाना तो जाये कि हमारी कौन सी धारणाएं सच में विश्वास की श्रेणी मैं हैं और कौन सी अन्धविश्वास में. शायद यह पहचान पाना ही शिक्षा का बहुत अहम् लक्ष्य है? और हाँ, यह पहचानने का काम धीरे-धीरे नहीं करियेगा – असल जीवन में तेज चलने वाले सोते नहीं हैं और आप अपने आप को बहुत ही पिछड़ा पा सकते हैं.
मदिरापान की देवी -माता कवलका:
आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं एक ऐसे मंदिर में जहाँ माता को प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है मदिरा । माता कवलका नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर रतलाम शहर से लगभग 32 किमी की दूरी पर ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर स्थित है।
माँ की यह चमत्कारी मूर्ति ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर माँ कवलका के रूप में विराजमान हैं। सालों से यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र रहा है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुरादें माँगने आते हैं। मंदिर में माँ कवलका, माँ काली, काल भैरव और भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा विराजित हैं।
यहाँ के पुजारी पंडित अमृतगिरी गोस्वामी का कहना है कि यह मंदिर लगभग 300 वर्ष पुराना है। यहाँ स्थित माता की मूर्ति बड़ी ही चमत्कारी है। पुजारी का दावा है कि यह मूर्ति मदिरापान करती है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुराद माँगने आते हैं। पुत्र प्राप्ति होने पर देवी माँ के दर्शन करने आए रमेश ने बताया कि उन्होंने माता को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि और बच्चे के बाल देकर उसकी मानता उतारी है।
मंदिर के ऊँची टेकरी पर स्थित होने के कारण यहाँ तक पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल ही चढ़ाई करनी पड़ती है। भक्तों की सुविधा के लिए हाल ही में मंदिर मार्ग पर पक्की सीढिय़ाँ बनाई गई हैं, जिनके माध्यम से आसानी से चढ़ाई की जा सकती है।
इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ स्थित माँ कवलका, माँ काली और काल भैरव की मूर्तियाँ मदिरापान करती हैं। भक्तजन माँ को प्रसन्न करने के लिए मदिरा का भोग लगाते हैं। इन मूर्तियों के होठों से मदिरा का प्याला लगते ही प्याले में से मदिरा गायब हो जाती है और यह सब कुछ भक्तों के सामने ही होता है।
माता के प्रसाद के रूप में भक्तों को बोतल में शेष रह गई मदिरा दी जाती है। अपनी मनोवांछित मन्नत के पूरी होने पर कुछ भक्त माता की टेकरी पर नंगे पैर चढ़ाई करते हैं तो कुछ पशुबलि देते हैं। हरियाली अमावस्या और नवरात्रि में यहाँ भक्तों की अपार भीड़ माता के दर्शन के लिए जुट जाती है। कुछ लोग बाहरी हवा या भूत-प्रेत से छुटकारा पाने के लिए भी माता के दरबार पर अर्जी लगाते हैं।
सोचिए क्या कोई मूर्ति मदिरा पान कर सकती है या यह लोगों का महज वहम है? आखिर इसमें कितनी सच्चाई है, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आस्था या अंधविश्वास की यह यात्रा शास्वत चलती आ रही है और यद्यपि कम होती जा रही हैं पर खत्म नहीं हुई हैं।
आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं एक ऐसे मंदिर में जहाँ माता को प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है मदिरा । माता कवलका नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर रतलाम शहर से लगभग 32 किमी की दूरी पर ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर स्थित है।
माँ की यह चमत्कारी मूर्ति ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर माँ कवलका के रूप में विराजमान हैं। सालों से यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र रहा है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुरादें माँगने आते हैं। मंदिर में माँ कवलका, माँ काली, काल भैरव और भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा विराजित हैं।
यहाँ के पुजारी पंडित अमृतगिरी गोस्वामी का कहना है कि यह मंदिर लगभग 300 वर्ष पुराना है। यहाँ स्थित माता की मूर्ति बड़ी ही चमत्कारी है। पुजारी का दावा है कि यह मूर्ति मदिरापान करती है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुराद माँगने आते हैं। पुत्र प्राप्ति होने पर देवी माँ के दर्शन करने आए रमेश ने बताया कि उन्होंने माता को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि और बच्चे के बाल देकर उसकी मानता उतारी है।
मंदिर के ऊँची टेकरी पर स्थित होने के कारण यहाँ तक पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल ही चढ़ाई करनी पड़ती है। भक्तों की सुविधा के लिए हाल ही में मंदिर मार्ग पर पक्की सीढिय़ाँ बनाई गई हैं, जिनके माध्यम से आसानी से चढ़ाई की जा सकती है।
इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ स्थित माँ कवलका, माँ काली और काल भैरव की मूर्तियाँ मदिरापान करती हैं। भक्तजन माँ को प्रसन्न करने के लिए मदिरा का भोग लगाते हैं। इन मूर्तियों के होठों से मदिरा का प्याला लगते ही प्याले में से मदिरा गायब हो जाती है और यह सब कुछ भक्तों के सामने ही होता है।
माता के प्रसाद के रूप में भक्तों को बोतल में शेष रह गई मदिरा दी जाती है। अपनी मनोवांछित मन्नत के पूरी होने पर कुछ भक्त माता की टेकरी पर नंगे पैर चढ़ाई करते हैं तो कुछ पशुबलि देते हैं। हरियाली अमावस्या और नवरात्रि में यहाँ भक्तों की अपार भीड़ माता के दर्शन के लिए जुट जाती है। कुछ लोग बाहरी हवा या भूत-प्रेत से छुटकारा पाने के लिए भी माता के दरबार पर अर्जी लगाते हैं।
सोचिए क्या कोई मूर्ति मदिरा पान कर सकती है या यह लोगों का महज वहम है? आखिर इसमें कितनी सच्चाई है, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आस्था या अंधविश्वास की यह यात्रा शास्वत चलती आ रही है और यद्यपि कम होती जा रही हैं पर खत्म नहीं हुई हैं।