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मार्गषीर्ष के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को श्री स्कंदषष्ठी या चम्पाषष्ठी व्रत किया जाता है। इस व्रत के संबंध में मान्यता है कि एक बार मुनिवर दुर्वासा युधिष्ठिर को राज्य मिलने के उपरांत उनका हाल-चाल जानने गए। युधिष्ठिर मुनिवर को देखकर अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक उनकी सेवा-सत्कार करने के बाद धमनन्दन महातेज राजा युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर मुनिवर से जानना चाहा कि हे मुनिवर मुझे ऐसे कौन से व्रत के पुण्य से यह राज्य और सुख मिला है मैं उसे पुनः करने का इच्छुक हूॅ। तब मुनिवर दुर्वासा ने कहा कि हे राजन सबसे पहले सत्ययुग में विष्वकर्मा ने चम्पाषष्ठी के दिन उपवास किया था, इससे उनको जगत के सब पदार्थो की बहुत सरलता से रचना करने की चतुरता प्राप्त हुई। उसके बाद विष्वकर्मा प्रजापति पद का अधिकारी हो गये। ऐसे ही राजा पृथु, कार्तवीर्य, नारायण भगवान और महादेव पावर्ती सहित चंद्रषेखर देव ने यह व्रत किया था, जिसके कारण वे सभी महान हो गए। जो व्यक्ति विधि के अनुसार इस चम्पाषष्ठी का व्रत को करता है वह अनन्त पुण्यफल को प्राप्त करता है। जो षष्ठी भौमवार से जुड़ी हो उसे चम्पाषष्ठी कहते हैं।
व्रत विधि –
पंचमी को एक बार नमक रहित भोजन करना चाहिए और उसके उपरांत संकल्प कर षष्ठी का निर्जला व्रत करना चाहिए। षष्ठी को स्वच्छ प्रभात में दंतधावन कर स्नान आदि से पवित्र होकर विधि पूर्वक पूजन करना चाहिए। पूजन में कलष स्थापन कर उसमें सुवर्ण के सारष्वरथ और सारथि सहित सूर्य को बनाकर स्थापित करें उस सूर्य का विधिपूर्वक पूजन कर ‘आदिज्याय नमः पूजयामि’ मंत्र का जाप पूजन करें। उसके उपरांत हवन आरती आदि करने के उपरांत किसी ब्राम्हण को भोजन दान के बाद उसी भोजन से पारण करें। सप्तमी के दिन प्रातःकाल स्नान कर षिवलिंग का दर्षन अवष्य करना चाहिए। श्री स्कन्दपुराण की कही हुई चम्पाषष्ठी व्रत कहा जाता है।