
स्वयंभू शिवलिंग और खारून नदी की रक्षा
श्री महाकाल धाम अम्लेश्वर की पौराणिक कथा:
प्राचीन काल में अम्लेश्वर एक घना जंगल था, जहाँ खारून नदी शांतिपूर्वक बहती थी। इस क्षेत्र में कई साधु-संत तपस्या करते थे, और यह स्थान अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए प्रसिद्ध था। एक बार, एक भयंकर राक्षस कालदंष्ट्र ने इस क्षेत्र पर हमला कर दिया। वह राक्षस खारून नदी के जल को जहरीला कर रहा था, जिससे आसपास के गाँवों में लोग बीमार पड़ने लगे।
साधु-संतों की तपस्या भंग हो रही थी, और गाँववाले भयभीत हो गए। एक युवा साधक, जिसका नाम वीरभद्र था, ने यह देखकर कालदंष्ट्र का अंत करने का संकल्प लिया। वीरभद्र ने खारून नदी के तट पर एक छोटे से शिवलिंग की स्थापना की और भगवान शिव की कठोर तपस्या शुरू की। वह दिन-रात “ॐ नमः शिवाय” का जाप करता रहा। उसकी भक्ति से आसमान में बादल गरजने लगे, और खारून नदी की धारा तेज हो गई। सात दिन और सात रात की तपस्या के बाद, धरती में से एक प्रचंड ज्योति निकली, और उस ज्योति से भगवान शिव महाकाल के रूप में प्रकट हुए।
महाकाल ने अपने त्रिशूल से कालदंष्ट्र का संहार किया, और खारून नदी को फिर से पवित्र कर दिया। गाँववाले और साधु-संत उनकी इस कृपा से अभिभूत हो गए। महाकाल ने वीरभद्र से कहा, “हे भक्त, तुम्हारी भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ। मैं यहाँ सदा के लिए निवास करूँगा और इस क्षेत्र के भक्तों की रक्षा करूँगा।” यह कहकर उन्होंने उस शिवलिंग में अपनी शक्ति का अंश समाहित कर दिया, जो स्वयंभू शिवलिंग के रूप में आज भी श्री महाकाल धाम अम्लेश्वर में विराजमान है।
कथा का परिणाम: इस घटना के बाद अम्लेश्वर एक पवित्र तीर्थ स्थल बन गया। खारून नदी के तट पर यह मंदिर भक्तों के लिए आस्था का केंद्र बन गया। भक्तों का विश्वास है कि यहाँ पूजा करने से सभी कष्ट दूर होते हैं, और महाकाल की कृपा से जीवन में शांति और समृद्धि प्राप्त होती है।