आधुनिक युग में विकास की गति में वृद्धि के साथ-साथ समाज में असामाजिक कृत्यों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। विभिन्न प्रकार के अपराध, मधपान तथा औषधि व्यसन समाज में दिनो-दिन बढ़ते जा रहे है और एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहे है। भारत में मादक द्रव्यो के उपयोग का पहला संदर्भ ऋग्वेद में मिलता है। लगभग 2000 ईसा पूर्व व्यक्ति विभिन्न उत्सवों पर ‘सोम’ रस का पान किया करते थे। प्राचीन ग्रंथो में काल नामक मादक द्रव्य के उल्लेख मिलता है जिसका पान आज भी प्रचलित है। रामायण तथा महाभारत काल में ‘मधु’ नामक मादक रस का उल्लेख मिलता है। इसके पश्चात भारत में मादक द्रव्यों के उपयोग का संदर्भ मुस्लिम शासनकाल में प्राप्त होता है। उस काल में लोग अफीम का इस्तेमाल करते थे। यह मादक द्रव्य फारस और अफगानिस्तान से भारत लाया जाता था। इसके अतिरिक्त व्यक्ति कोकीन का उपयोग करते थे। उनकी मान्यता थी कि कोकीन के उपयोग से जीवनकाल में वृद्धि होती है, ध्यान करने में में सहायता मिलती है तथा भूख, प्यास पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इनका उपयोग बिहार तथा बंगाल में प्रमुख रूप से होता था लेकिन अत्यन्त कठोर नियमों और बाधाओं के बावजूद इसका विस्तार धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश से पंजाब में हो गया। धतूरा एवं भांग भी भयोत्पादक मादक औषधियों हैं। धतुरे का उपयोग प्राय: ठगों द्वारा अपनै शिकार को बेहोश करने के लिए किया जाता था। प्राचीन काल से लेकर छठे दशक तक इन मादक द्रव्यों का उपयोग मुख्यत: निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के लोगों में पाया पाया है। ऐसा प्रतीत होता कि पुराने समय में मादक द्रव्यों का उपयोग कई सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं थी। आधुनिक काल में मादक द्रव्य व्यसन एक असामाजिक कृत्य माना जाता है और अनेको प्राकार की शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने औषधि एवं औषधि निर्भरता की परिभाषा इस प्रकार को है।
“औषधि वह कोई भी पदार्थ है जो जीवित प्राणी के अन्दर ग्रहणा किये जाने पर उसेके एक अथवा अधिक प्रकार्यों में परिवर्तन ला सके।”
”औपधि-निर्भरता का तात्पर्य मानसिक और कभी-कभी शारीरिक दशा से है जो जीवित प्राणी और औषधि की अन्तर्किया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। इसमें औषधि के मानसिक प्रभावों को अनुभव करने तथा कभी-कभी इसकी अनुपस्थिति से उत्पन्न बेचैनी को दूर करने के लिए निरन्तर अथवा समय-समय पर औषधि को ग्रहण करने की बाध्यता का व्यवहार तथा अन्य प्रतिक्रियाएँ निहित होती हैं।”
मद्यपान का कारण
मद्यपान के कारणों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जैविक, मनौवैज्ञानिक तथा सामाजिक सांस्कृतिक कारक1. जैविक कारक मद्यपान की प्रवृति आनुवंशिक कारकों पर निर्भर करती है। इसकी पुष्टि कईं अध्ययनों में हुई है। विनोकर एवं अन्य ने प्रदर्शित किया कि अस्पताल में भर्ती मद्यपान के 259 रोगियों म 40% से अधिक रोगियों के माता-पिता, विशेषकर पिता मद्य-व्यसनी थे। इरविन ने भी कुछ इसी प्रकार के परिणति प्राप्त किये हैँ। उसने पाया कि 50% से भी अधिक मद्य व्यसनी व्यक्तियों के माता-पिता मद्य व्यसनी थे। यह बात अभी तक पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं हो पाई है कि ऐसा आनुवंशिकत्ता के कारण होता है या पारिवारिक वातावरण के प्रभाव के कारणा
2. मनोवैज्ञानिक कारक
मद्यव्यसनी व्यक्ति न केवल शारीरिक रूप से मद्य पर निर्भर हो जाता है बल्कि वह अत्यंत प्रबल मनोवैज्ञानिक निर्भरता भी विकसित कर लेता है । अत्यधिक मद्यपान से व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का समायोजन नष्ट हो जाता है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि व्यक्ति क्यों मनोवैज्ञानिक रूप से इस पर निर्भर हो जाता है। इस सम्बन्ध में अनेको मनोवैज्ञानिक तथा अन्तवैयक्तिक कारक का उल्लेख हुआ है, जो इस प्रकार है मनोवैज्ञानिक भेद्यता -कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसी विशेषताएं विद्यमान रहती है जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीँ कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका करण मनोवैज्ञानिक भेद्यता है। इस दिशा में किये गये अनुसन्धानों से ज्ञात होता है कि पूर्व-मद्यव्यस्रनी व्यक्तित्व संवेगात्मक रूप से अपरिपक्व, दूसरों से अधिक प्रत्यारुग़एँ रखनेवाला,प्रशंसा का इच्छुक तथा कुंठा के प्रति कम सहनशील होता है। इन्हें अपनी खियोचित अथवा पुरुषोचित भूमिका का निवहि करने की क्षमता के सम्बन्ध मेँ अनुपयुक्ता तथा अनिश्चितता का अनुभव होता है । विनोकर एवं अन्य तथा मैक्लीलैड एवं अन्य ने पाया कि कुछ युवा पुरुष अपने पौरुष को सिद्ध करने तथा क्षमता एवं उपयुक्तता का अनुभव करने के लिए मापन करते है। बिल्सनैक ने पाया कि शराबी महिलाएँ परम्परागत महिला भूमिका को अत्यधिक मृत्य देती है जब कि उनकी स्वयं उनकी महिला भूमिका की उपयुक्तता अत्यन्त कमजोर होती है।
असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय संलक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। मद्यव्यसनी व्यक्तियों की एक सामान्य विशेषता यह है कि उन सभी की पृष्ठभूमि में वैयक्तिक कुसमानोजन होताहै। मधपान की पूर्वावस्था में व्यक्तित्व में अनेक शिल्गुनों का समूह दिखाई देता है जैसे प्रतिबल के प्रति निम्न सहनशीलता, निषेधात्मक आत्मप्रतिमा, अनुपयुक्तता की भावना, एकाकीपन, अवसाद आदि। मद्यपान की गम्भीर अवस्था में व्यक्ति सुरक्षात्मक मनोरचनाओँ, विशेषकर अस्वीकृति, युक्तिकरण तथा प्रक्षेपण का अत्यधिक मात्रा में उपयोग करने लगता है। इसके अतिरिक्त वे अल्प नियंत्रित आवेगी तथा उद्यत स्वभाव के होती है। उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक दोष तथा व्यक्तिगत कुसमायोजन व्यक्तियों में मद्यपान के महत्त्वपूर्ण कारण बनते है।
2) प्रतिबल, तनाव में कमी तथा प्रवलन -अनेक अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि कुछ विशेष प्रकार के मद्यव्यसनी व्यक्ति अपने जीवन की स्थितियों से सदैव असन्तुष्ट रहते है और किसी भी प्रकार के प्रतिबल तथा तनाव को सहन कर सकने में असमर्थ होते हैँ। शेफर के अनुसार मद्यपान चिंता के प्रति अनुबंधित अनुक्रिया है। जब व्यक्ति चिंता, तनाव अवसाद अथवा जीवन के प्रतिबलों से उत्पन्न असुखद अनुभवों की स्थिति में होता है, वह मद्यपान प्रारंभ कर देता है क्योंकि ऐसा करने से उसके तनावों में कमी आती है जो उसके प्रबलन का कार्यं करती है । इस प्रकार उसे मद्यपान करके तनाव के साथ समायोजन स्थापित करने की आदत पड़ जाती है।
3) पारिवारिक प्रतिमान -मद्यपान का व्यवहार परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। इसमें वंशानुगत कारकों का कहाँ तक हाथ है, कहा नहीँ जा सकता लेकिन इतना अवश्य है कि ऐसे परिवारों में बालक अपने माता अथवा पिता को एक निषेधात्मक अथवा अवांछित मॉडल के रूप में प्राप्त करते है और फिर उन्ही के व्यवहार का अनुकरण करके मद्यपान प्रारंभ कर देते है। वैवाहिक सम्बन्ध अथवा अन्य घनिष्ट पारिवारिक सम्बन्धी के भंग होने पर भी व्यक्ति मद्यपान प्रारंभ कर देता है।
3. सामाजिक सांस्कृतिक कारक-मद्यव्यसनी व्यक्तियों तथा सामान्य व्यक्तियों की सामाजिक सास्कृतिक पृष्ठभूमि में अन्तर पाया जाता है। मक्कोर्ड, मैवकार्ड एवं स्यूडमैन ने मद्यव्यसनी पुरुषों के पिछले इतिहास का अध्ययन करके यह पाया कि युवावस्था में शराबी बन गये युवकों तथा शराबी न को युवकों की सास्कृतिक पृष्ठभूमि में अंतर था अर्थात् उनमें शारीरिक तथा मनौवैज्ञानिक अन्तर न होकर केवल सांस्कृतिक अन्तर प्रमुख था। उनका मद्यपान घार्मिंक तथा सामाजिक वर्ग की पृष्ठभूमि से संबन्धित पाया गया। ग्रामीणों के तुलना में नगरों के निवासी अधिक मात्रा में मद्यपान करते है। यह भी पाया गया है कि गाँव के लोग शहर आने पर वहाँ के परिवेश का अनुकरण करते है और उनमें भी मद्यपान की प्रवृति बढ़ जाती है । मद्यपान की मात्रा उस संस्कृति में प्रतिबल की मात्रा पर भी निर्भर करतीहै। हॉर्टन, ने छप्पन अष्टम संस्कृतियों का अध्ययन करके पाया कि जिंस संस्कृति में असुरक्षा जितनी अधिक थी, मद्यपान की मात्रा भी उतनी ही अधिक थी। बेल्स के अनुसार मद्यपान को निर्धारित करनेवाले तीन सांस्कृतिक प्रमुख है-( 1 )संस्कृति द्वारा उत्पन्न तनाव की मात्रा 2 ) संस्कृति द्वारा मद्यपान की अभिवृत्ति को समर्थन, तथा तनाव एवं चिंता से समायोजन हेतु संस्कृति द्वारा प्रदान की जानेवाली संतुष्टि और अन्य समायोज़नात्मक साधन |
सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव के कारण ही मुस्लिम धर्म में शराब पीना वर्जित है, यहुदियों में केवल धार्मिक उत्सवों पर ही इसका सीमित प्रयोग होता है, जबकि फ्रेंच तथा आइरिश संस्कृति में मद्यपान अधिक मात्रा में पाया जाता है। इस प्रकार मद्यपान घार्मिक संस्तुतियों, सामाजिक प्रथाओं तथा समाज द्वारा उत्पन्न प्रतिबल पर निर्भर करता है।
उपचार – पहले यह विशवास किया जाता था कि मद्यव्यसनी का इलाज केवल अस्पताल में ही संभव है क्योंकि वहां वह अपने जीवन की दुखद परिस्थितियों से दूर रहता है और उसके मद्यपान के व्यवहार को वहाँ नियंत्रित किया जा सकता है किन्तु आधुनिक समय में अस्पतालों के बजाय सामुदायिक निदान केन्दी में ही उपचार किया जाता है। इसका एक कारण तो है शराबियों की बढ़ती हुई संख्या और कारण है, अस्पताल से छूटने के बाद सामाजिक परिवेश में इन व्यक्तियों के समायोजन समस्या को हल करना।
चिकित्सा का प्रमुख उद्देश्य होता है मद्यव्यसनी व्यक्ति में सुधार लाना, उसका-पुनस्थार्पन या पुनर्वास करना, मधपान की उसकी इच्छा पर नियन्त्रण करना, उसका मद्यपान त्याग करना तथा यह भावना जागृत करना कि वह जीवन की समस्याओं का सामना बिना शराब के कर सकता है और एक और भी अच्छा सुखद जीवन बिता सकता है।
Pt.P.S.Tripathi
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