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कार्य संतुष्टि

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कार्यं संतुष्टि एक जटिल संप्रत्यय है जो बहुत हद तक मनोवृति तथा मनोबल से संबंध और मिलता-जुलता है। किन्तु सही अर्थ में कार्यं संतुष्टि अपने निश्चित स्वरूप के कारण एक ओर मनोवृति से भिन्न है तो दूसरी ओर मनोबल से । औद्योगिक मनोवैज्ञानिक ने कार्य संतुष्टि को दो अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। हम यहाँ इन दोनों अर्थों में इस जटिल संप्रत्यय की व्याख्या करने का प्रयास करगे ।
1. सीमित अर्ध
सीमित अर्थ में कार्य संतुष्टि का तात्पर्य व्यवसाय कारक से है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि कर्मचारी के व्यवसाय से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न कारकों के प्रति उसकी मनोवृति को कार्यं संतुष्टि कहतें है। व्यवस्था से सम्बन्धित कई विशिष्ट कारक है जिनमें पारिश्रमिक, पर्यवेक्षण, कार्य परिस्थिति, पदोन्नति के अवसर, नियोक्ता के व्यवहार आदि मुख्य है। इन विशिष्ट कारक के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति जिस हद तक अनुकूल होती है उसी हद तक कार्य संतुष्टि भी सम्भावित्त होती है। किन्तु यह परिभाषा कार्य संतुष्टि के जटिल स्वरूप को स्पष्ट करने में पूरी तरह सफल नहीं है क्योंकि कार्य संतुष्टि का संबंध व्यवसाय कारकों के अतिरिक्त अन्य कारकों से भी है । अत: केवल व्यवसाय कारकों के संदर्भ में ही कार्यं संतुष्टि को परिभाषित करना युक्तिसंगत नहीं है।
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट संबंध होने के कारण कभी-कभी इन शब्दों का समुचित प्रयोग नहीं हो पाता। अत: इन दोनों संप्रत्ययों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देना अनावश्यक है।
1. कार्य संतुष्टि का तात्पर्य कार्य परिस्थितियों, पर्यवेक्षण तथा अपने समूह जीवन के प्रति कर्मचारी की मनोवृत्तियों से है जबकि औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य कार्यं समूह के कर्मचारियों के बीच एकता की भावना, भाईचारा तथा एकात्मता की भावना से है।
2 कार्य संतुष्टि के तीन मुख्य निर्धारक होते है जिन्हें व्यवसाय कारक,वैयक्तिक कारक तथा समूह कारक कहते हैँ। दूसरी ओंर, औद्योगिक मनोबल के चार निर्धारक होते है जिनमें सामूहिक एकता, लक्ष्य की आवश्यकता लक्ष्य के प्रति दृष्टव्य प्राप्ति तथा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास के लिए किये जाने वाले सार्थक कार्यों म वैयक्तिक सहभागिता है।
3 कार्यं संतुष्टि मेँ वैयक्तिक लक्ष्य प्रधान होता है- जबकि मनोबल में सामूहिक लक्ष्य की प्रधानता होती है। कर्मचारी को कार्य संतुष्टि तभी होती है जब उसके वैयक्तिक लक्ष्यों जिनके निर्धारण में उसके व्यक्तिगत कारणों की भूमिका प्रमुख होती है, की प्राप्ति हो जाए। किन्तु मनोबल के बने रहने या उन्नत बनने में वैयक्तिक लक्ष्य की प्राप्ति गौण रहती है और सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में सामने आती है।
4 कार्य संतुष्टि में संज्ञानात्मक कारक की प्रधानता होती है जबकि मनोबल में भावात्मक कारक प्रधान होते है। यदि कर्मचारी के अपने कार्य, प्रबंधन आदि से संबंधित संज्ञान अनुकूल होते है तो कार्य संतुष्टि बढ़ जाती है। दूसरी और, मनोबल का उच्च या नीच होना सामूहिक लक्ष्य के भावात्मक कारकों पर निर्भर करता है।
5 कार्यं संतुष्टि के लिए लक्ष्य की वांछनीयता में विश्वास उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना मनोबल के लिए है। सामूहिक लक्ष्यों की वांछनीयता में कर्मचारियों का विशवास. जिस हद तक होगा उनका मनोबल उसी हद तक उन्नत बन जाएगा। यह बात कार्यं संतुष्टि पर लागू नहीं होती। उपर्युक्त अन्तरों के होते हुए भी कार्यं संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट सम्बन्ध होता है तथा कार्य संतुष्टि मनोबल को बढाने में सहायक हो सकती है। सामान्यत: कार्यं संतुष्टि के बढ़ने से मनोबल ऊँचा हो जाता है तथा कार्य असंतुष्टि के बढ़ने से निम्न हो जाता है। अत: यह कहा जा सकता है की मनोबल से भिन्न होने पर भी कार्य संतुष्टि मनोबल को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण अंग है। कार्य संतुष्टि या व्यवसाय संतुष्टि के सम्बन्ध में एक मुख्य प्रश्न यह उठता है कि किन परिस्थितियों में कर्मचारी की कार्यं संतुष्टि बढ़ती या घटती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं संतुष्टि बढ़ती है और किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं असंतुष्टि बढती है। कार्यं संतुष्टि या असंतुष्टि को प्रभावित करने वाले ऐसे कारकों को निर्धारक कहा जाएगा. हैरेल ने कार्य संतुष्टि को निर्धारित करने वाले इन कारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा है:-
( क ) वैयक्तिक कारक
(ख) व्यवसाय कारक तथा
(ग ) प्रबंधन कारक
हम यहीं इन तीनो प्रकार के कारकों अथवा चरों की अलग-अलग व्याख्या करेंगे यह बात उल्लेखनीय है कि यहाँ कार्य संतुष्टि की व्याख्या आश्रित चर के रूप में तथा उक्त तीन प्रकार के कारकों की व्याख्या स्वतंत्र चर के रूप में करेंगे
(क) वैयक्तिक कारक – कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारको के अंतर्गत वे कारक आते है जिनका संबंध कर्मचारी से होता है। कर्मचारी में ही कुछ ऐसे तत्त्व होते है जो उसकी कार्य संतुष्टि को निर्धारित करते हैं। इसीलिए समान कार्यं परिस्थिति तथा
प्रबंधन के होते हुए भी भिन्न-भिन्न कर्मचारियों की कार्य संतुष्टि इन व्यक्तिगत तत्वों के कारण भिन्न हो सकती है। इन व्यक्तिगत कारकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण है।

2. आयु -कर्मचीरियों की आयु का प्रभाव भी उसकी कार्य संतुष्टि पर पड़ता है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कम आयु के कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक आयु के कर्मचारियों में व्यवसाय संतुष्टि अधिक होती हैं। इसका कारण यह है कि अधिक आयु के कर्मचारियों के कार्यं अवसर इतने सीमित हो जाते है कि वे अपने कार्य से सहज ही संतुष्ट रहने लगते है। इसके विपरीत कम आयु के कर्मचारियों के समक्ष कार्यं अवसर अधिक होते है अर्थात् भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए दरवाजे खुले रहते हैँ। इसलिए वे अपने वर्तमान व्यवसाय से असंतुष्ट रहते है। इसके अलावा अधिक आयु वाले कर्मचारी पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व अधिक होता है जिससे उनकी संतुष्टि वर्तमान व्यवसाय से अधिक रहती है। दूसरी ओर कम आयु के कर्मचारियों पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व नहीं होने के कारण या कम होने के करण उनकी कार्य संतुष्टि घट जाती है। लेकिन सिन्हा ( 1973) के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उनके अनुसार कार्य संतुष्टि तथा आयु के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं होता। वास्तविकता यह है कि इन दोनों चरों के बीच कईं मध्यवर्तीय चर सक्रिय रहते है। जिनके कारण दोनों के बीच वास्तविक संबंध को निर्धारित कर पाना कठिन हो जाता है।
3. परिवार मैं आश्रितों की संख्या -कार्य संतुष्टि तथा असंतुष्टि पर कर्मचारी के परिवार में आश्रितों की संख्या का भी प्रभाव पड़ता है। किसी कर्मचारी की कार्य संतुष्टि. अन्य बातों के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसे अपने परिवार में कितने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कार्य संतुष्टि तथा कार्य-असंतुष्टि के बीच नकारात्मक सहसम्बन्ध होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आश्रितों की संख्या अधिक होने पर कार्य संतुष्टि घटती है। सम्भवत्त: इसका कारण यह है कि आश्रितों की संख्या बढ़ने से आर्थिक कठिनाई बढती है जिससे कार्यं संतुष्टि घटती है। लेक्लि सिन्हा के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उन्होंने अपने अध्ययन में कार्य संतुष्टि पर आश्रितों की संख्या का कोई सार्थक प्रभाव नहीं देखा। वास्तविकता यह है कि कार्यं संतुष्टि तथा आश्रितों की संख्या के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता बल्कि इन दोनो के बीच का मध्यवर्ती चर यथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आय, जीवन स्तर आदि सक्रिय रहते है जिनके कारण दोनों के बीच संबंध जटिल बन जाता । 4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
7. आकांक्षा-स्तर -कार्यं संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारकों में कर्मचारियों की आकाक्षा का स्तर भी एक महत्वपूर्ण कारक है। जब कर्मचारी की आकांक्षा के स्तर तथा उसके व्यवसाय के बीच स्थानान्तरण नहीं होता तब उसे निराशा का अनुभव होता है और परिणामत: अपने व्यवसाय के प्रति उसकी असंतुष्टि बढ़ जाती है। मोर्स के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है। इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि कर्मचारी की कार्य संतुष्टि मूलत: इस बात पर निर्भर करती है की व्यक्ति की आकांक्षा क्या है और वर्तमान व्यवसाय से उसकी आकांक्षा की संतुष्टि कहाँ तक हो रही है |

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