गुरूब्र्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:॥
गुरु का अर्थ है अंधकार या अज्ञान और रु का अर्थ है उसका निरोधक यानी जो अज्ञान के अंधकार से बाहर निकाले वही गुरु। गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व अपने आराध्य गुरु को श्रद्धा अर्पित करने का महापर्व है। योगेश्वर भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवतगीता में कहते हैं, हे अर्जुन! तू मुझमें गुरुभाव से पूरी तरह अपने मन और बुद्धि को लगा ले। ऐसा करने से तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कोई संशय नहींं। गुरु की महत्ता के बारे में संत कबीर ने गुरु को ईश्वर से ऊंचा स्थान देते हुए कहा है- ‘‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागहुं पायं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।’’ गुरु केवल ज्ञान ही नहींं देता बल्कि अपनी कृपा से शिष्य को सब पापों से मुक्त भी कर देता है। गुरु तत्व का सिद्धांत और बुद्धिमत्ता है, आपके भीतर की गुणवत्ता, यह एक शरीर या आकार तक सीमित नहींं है।
शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु से मंत्र लेकर वेदों का पठन करने वाला शिष्य ही साधना की योग्यता पाता है। व्यावहारिक जीवन में भी देखने को मिलता है कि बिना गुरु के मार्गदर्शन या सहायता के किसी कार्य या परीक्षा में सफलता कठिन हो जाती है। लेकिन गुरु मिलते ही लक्ष्य आसान हो जाता है। गुरु ऐसी युक्ति बता देते हैं, जिससे सभी काम आसान हो जाते हैं। गुरु का मार्गदर्शन किसी ताले की चाभी की तरह है। इस प्रकार गुरु शक्ति का ही रूप है। वह किसी भी व्यक्ति के लिए एक अवधारणा और राह बन जाते हैं, जिस पर चलकर व्यक्ति मनोवांछित परिणाम पा लेता है। गुरु वह है, जिसमें आकर्षण हो, जिसके आभा मंडल में हम स्वयं को खिंचते हुए महसूस करते हैं। जितना ज्यादा हम गुरु की ओर आकर्षित होते हैं, उतनी ही ज्यादा स्वाधीनता हमें मिलती जाती है। कबीर, नानक, बुद्ध का स्मरण ऐसी ही विचित्र अनुभूति का अहसास दिलाता है। गुरु के प्रति समर्पण भाव का मतलब दासता से नहींं, बल्कि इससे मुक्ति का भाव जागृत होता है। गुरु के मध्यस्थ बनते ही हम आत्मज्ञान पाने लायक बनते हैं। गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान देने के साथ-साथ जीवन में अनुशासन से जीने की कला भी सिखाते हैं। वह व्यक्ति में सत्कर्म और सद्विचार भर देते हैं। इसलिए गुरु पूणिर्मा को अनुशासन पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। गुरु हमारे अंदर संस्कार का सृजन, गुणों का संवर्धन और वासनाओं एवं हीन ग्रंथियों का विनाश करते हैं। पुराणों में दिए प्रसंग यह संदेश भी देते हैं कि अगर मन में लगन हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। किन्तु एक अच्छे गुरु को कैसे प्राप्त करें और उस गुरु की पहचान कैसे हो, इसकी जानकारी के लिए:
1. गुरु के पास चित्त की एकाग्रता होती हो, बैचेनी नहीं आती हो, उदासी, निराश के भी भाव नहीं आना चाहिए।
2. गुरु की ज़ुबान पर संतुलन हो, नियंत्रण हो, अपनी बात पर अधिकार हो और आप के बंधन को खोल दे।
3. गुरु काम, क्रोध, मद, लोभ से परे रहकर हमेशा मर्यादा में रहता हो।
4. स्वंय गुरु की खोज करने की बजाय भगवान की प्रार्थना (भगवत् प्रार्थना) से आप को गुरु प्राप्त हों। गुरु को बदला नहीं जाता परन्तु अपवाद उन का विस्तार किया जा सकता है जैसे भगवान दत्तात्रेय जी के 24 गुरु थे। गुरु बताते क्षीर-नीर में क्या फर्क है, सोना-पीतल दोनों पीली धातु हैं फिर भी उस में भेद हैं, सांप-रस्सी दोनों रात्री में समान दिखते हैं, परन्तु उस में भी भेद है और ये भेद जब बन जाते तो मन भटकाव में आ जाता है, इस प्रकार इस शरीर रूपी क्षेत्र में पृथ्वी के समान बहुत सारे बीज दबे रहते और कभी कभी बेवक्त मौसम की तरह प्रतिकूल अवस्था में अनुकूल प्रभाव पैदा हो जाता और विकार पैदा कर जाता हैं, तब गुरु की जरूरत पडती हैं।
सद्गुरु बिरला ही कोई, साधू-संत अनेक।
सर्प करोड़ो भूमि पर, मणि युक्त कोई एक।।
Pt.P.S.Tripathi
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