दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं। यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता की पहली लहर का उन्मेष हुआ। स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।
नवजागरण का प्रयोग दुर्गा पूजा:
संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहींं मानता है। बल्कि दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता है।
बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ‘‘शक्ति पूजा’’ नाम से प्रचलित है, जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा प्रतिष्ठापित ‘गणेशोत्सव’ और उत्तर भारत में लोहिया द्वारा ‘रामायण मेला’ का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं।
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक, अपनी सांस्कृतिक चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी, वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार और पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फकरुणा और दया के आँसू ही नहींं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहींं है कि सन 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें दूसरी दुर्गा कहा था। यह ‘दुर्गा’ कोई सांस्कृतिक मिथ नहींं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन और सांस्कृतिक जीवन में ‘देवी’ कहा जाता है, दरअसल अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है। दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं, जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं। इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
स्त्री के स्वाभिमान की पूजा:
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहींं, बल्कि स्त्री की ताकत, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक ‘पूजा’ है। आज दुर्गा पूजा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है। नारी आज भी शक्ति है और जो उसपर अत्याचार करेगा उसका विनाश निश्चित है।
मूर्ति निर्माण का परंपरा:
दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि सन 1790 में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन 1583 ई. में ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली विशाल पूजा थी।
पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहींं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन बाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। आज हमारे लोक जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना नहींं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है। दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री सौंदर्य का प्रदर्शन नहींं है।
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के लिए लोक मानस में स्थान नहींं होना चाहिए।
‘‘दुर्गा-पूजा’’ पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है। मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहींं।
नवरात्री पूरे देश के लिए आनंद मनाने का समय होता है और यह भारत के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। माँ दुर्गा के आह्वान् करने का यह समय होता है। नौ दिनों का यह उत्सव दशहरा या विजयादशमी के साथ खत्म होता है और इसको बहुत पवित्र और मंगलदायी माना जाता है, इसलिए लोग बहुत ही श्रद्धास्वरूप इसको मनाते है। यह आश्विन महीने के अमवस्या के दूसरे दिन से नवें दिन तक चलता है। यह अंग्रेजी महीने के सितम्बर/ अक्टूबर महीने में पड़ता है।
इस पूरे नौ दिनों तक भक्तगण मंत्रों का उच्चारण करते हैं, गाना या भजन गाते हैं ताकि देवी उनके भक्ति से प्रसन्न हो। नवरात्री के समय उपवास रखना पवित्र माना जाता है। इस त्योहार को मनाने के समय, इन नौ दिनों तक बहुत सारी पूजा की जाती है। यह त्योहार भी अन्य हिन्दु त्योहारों की तरह बुराई के ऊपर अच्छाई के विजय का प्रतीक है। दंतकथाओं के अनुसार नवरात्री देवी दुर्गा को समर्पित किया जाता है, जो नारी शक्ति के दो रूपों का प्रतीक है-एक नरम और रक्षकस्वरूपा और दूसरा प्रचंड और विनाशकारी रूप। इस त्योहार के दौरान तीन दिन एक-एक देवी की पूजा की जाती है, वह है देवी दुर्गा, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती।
इन नौ दिनों तक अलग- अलग प्रांत में देवी दुर्गा अलग- अलग रूप की पूजा की जाती है:
दुर्गा- देवी जो हमारे पहुँच से बाहर है
भद्रकाली- समय की मंगलदायी शक्ति
अम्बा या जगदम्बा- विश्वमयीमाँ
अन्नपूर्णा- पर्याप्त मात्रा की दानी
सर्वमंगला- सौभग्यशालिनी देवी
भैरवी- भयानक, मृत्युदायिनी
चंद्रिका या चंडी- रूद्ररुपधारिणी
ललिता- आनंदमयी
भवानी- अस्तित्व प्रदान करने वाली
दशहरा के दिन लोग गाड़ी और अस्त्र-शस्त्र की पूजा करते हैं। वे शारदा-पूजन का विमोचन करते हैं। दशहरा खुद के ऊपर विजय प्राप्त करने का प्रतीक माना जाता है। इस समय कोई भी काम शुरू किया जा सकता है, क्योंकि यह समय मंगलदायी माना जाता है, पंचाङ्ग देखने की ज़रूरत नहींं पड़ती है। विद्दार्थीगण, विद्दा की देवी सरस्वती की पूजा करते हैं।
यह उत्सव अपनी कई वर्णिमा में विद्दमान रहता है
भारत के हर राज्य की अपनी-अपनी संस्कृति है, यह त्योहार पूरे भारत वर्ष में अपने-अपने मनोभाव की तरह अलग-अलग तरह से मनाया जाता है।
फसल काटने का त्योहार:
अपने अच्छे फसल के लिए धन्यवादस्वरूप वे इस त्योहार को मनाते है। नवरात्री के पहले दिन, अनाज का दाना घर में मिट्टी में बोया जाता है और रोज पानी डाला जाता है। दंसवे दिन जब अंकुर निकलता है तब देवी को यह अर्पित किया जाता है, जो देवी का आर्शिवाद माना जाता है। यह अच्छे फसल का प्रतीक माना जाता है।
गुजरात का डांडियारास:
मुख्यत: महाराष्ट्र और गुजरात में नवरात्री का सबसे मनोरंजन वाला अंग है डांडिया और गरबा, जो शाम को किया जाता है। यह देवी के सम्मान में किया जाता है। शाम के वक्त लोग एक जगह एकत्र होकर दिल से इस नृत्य को करते हैं। मुम्बई और गुजरात में कई गोष्ठियाँ या दल इसका आयोजन करते है। यह पूरे देश भर में, यहाँ तक भारतीय सम्प्रदायों में यह लोकप्रिय हो गया है जिसमें यू.के. और यू.एस.ए. भी शामिल है।
पश्चिम बंगाल में त्योहार का आनंद
पश्चिम बंगाल में नवरात्री में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। देवी दुर्गा की पूजा महाषष्ठी से शुरू होती है। देवी का आगमन एक विशेष प्रकार के ड्रम, जिसे ढाक कहते है उसे बजा कर की जाती है। दुर्गापूजा का अभिन्न अंग यह ढाक होता है। इस दिन देवी के मूर्ति का अनावरण किया जाता है। पूजा शुरू होने के पहले कल्पारंभ होता है, उसके बाद बोधन, आमंत्रण और अधिवास होता है। प्राचीन काल से ही नौ तरह के पौधें की पूजा की जाती है। देवी के प्रतीक के रूप में एक साथ इन सबकी पूजा की जाती है।
सप्तमी दुर्गापूजा का पहला दिन होता है। सुबह हजारों लोग पूजा पंडाल में पुष्पाजंली देने के लिए एकत्र होते है। आंठवे दिन (महाअष्टमी) संधिपूजा होता है, जो महाअष्टमी और महानवमी का संधिकाल होता है। इस समय विशेष प्रकार का भोजन दिया जाता है जिसमें, खिचड़ी, मैदे का पूरी, मिक्सड वेजिटेबल का व्यंजन, फ्राई किया हुआ बैंगन, और पायेश दिया जाता है।
संधिपूजा के बाद मूल नवमी पूजा आरंभ होता है। नवमी का भोग भगवान को दिया जाता है। जो बाद में भक्तगण में बाँटा जाता है। दंसवे दिन (दशमी) आंसू के साथ देवी को विदा किया जाता है। सफेद और लाल किनारा वाला साड़ी विवाहित महिलायें पहनकर माँ दुर्गा को सिंदूर पहनाती है, संदेश खिलाती है। प्रतिमा को स्थानीय जगहों में जुलूस में घुमाकर नदी में विसर्जित किया जाता है। विजयादशमी पूरे देश भर में मनाया जाता है।
रामलीला की परम्परा:
दंतकथा के अनुसार, भगवान राम ने देवी दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक की थी और दंसवे दिन रावण को मारा था, जो विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। उत्तरी भारत में रामलीला, नौ दिनों तक मनाया जाता है, इन नौ दिनों तक पूरे रामायण को अभिनेताओं द्वारा उस तरह का वेशभूषा पहनकर नाटकीय रूप में चरितार्थ किया जाता है। दशमी के दिन उत्सव का आखिरी दिन होता है। भगवान राम के हाथों राक्षसराज रावण का वध होता है, इसके प्रतीकस्वरूप ड्रम बजाकर पटाखों से बने पुतलाओं को जलाया जाता है।
दक्षिण भारत की दुर्गा पूजा:
दक्षिण भारत के निचले क्षेत्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक में वे देवी की मूर्ति बनाते हैं, देवी को वे बोमाई कालु के नाम से पुकारते हैं। नौ या सात स्तरों तक सजाते हैं। किसी भी चीज़ से मूर्ति बना सकते है मगर लकड़ी का बना मूर्ति ज़्यादा पवित्र और मांगलिक (मारबाची) माना जाता है।
नवें दिन विवाहित महिलायें और कुँवारी महिलायें कुमकुम-हल्दी के लिए बुलाती है। हर दिन अलग अनाज का अंकुर जिसे नैवेद्य कहा जाता है, भगवान को दिया जाता है, फिर औरतों में बाँटा जाता है। हर दिन अलग-अलग दाल से मिठाई बनाकर भगवान को दी जाती है। नवें दिन महानवमी को पुस्तक को रेशम के कपड़े में बाँध करके भगवान के सामने रखा जाता है, देवी सरस्वती की पूजा करने के लिए। दशहरा के दिन उस पुस्तक में एक पन्ना लिखकर या पढक़र देवी सरस्वती को श्रद्धाज्ञापन दिया जाता है। मिठाई देवी सरस्वती को प्रदान किया जाता है, उसमें दूध का बना विभिन्न तरह पुडिंग होता है जिसे पायसम कहते हैं।
रंग की संस्कृति:
नवरात्री के नौ दिनों तक विभिन्न रंग का कपड़ा पहनने का रिवाज है। नव अवतार नौ रंगों का प्रतीक है, देवी दुर्गा के नौ रूपों का प्रकटीकरण है। नौ दिनों तक देवी दुर्गा यह नौ रंग पहनेंगी। हर रंग का अपना एक महत्व है। परम्परागत रूप से हर साल रंग बदलता रहता है। लाल रंग सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देवी को द्दौतित करता है। विभिन्न योग के ऊर्जा के चक्र के रूप में हर एक अपना महत्व है।
महाभोज और उपवास का समय:
नवरात्री उपवास का समय होता है। कुछ लोग नव दिनों तक उपवास रहते हैं मगर कुछ लोग सांतवें और आठंवें दिन ही उपवास करते हैं। नवें दिन देवी को दिए भोग को खाकर उपवास तोड़ते हैं। नवरात्री के दौरान देवी को विभिन्न तरह का भोग दिया जाता है, हर दिन अलग-अलग तरह का भोग होता है।
* पहले दिन उपवास शुरू होता है, माँ शैलपुत्री के चरण में घी दिया जाता है। भक्त को व्याधि रहित जीवन का आर्शिवाद प्राप्त होता है।
* दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी को चीनी भोगस्वरूप दिया जाता है। परिवारजन के लंबे उम्र के लिए यह भोग दिया जाता है।
* तीसरे दिन, दूध, दूध से बनी मिठाई, खीर भोगस्वरूप माँ चंद्रघंटा को दिया जाता है। हर दुख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए और जीवन में आनंद का आगमन करने के लिए यह भोग दिया जाता है।
* चौथे दिन नवरात्री को माँ कुशमांडा की पूजा की जाती है। देवी को भोग में मालपुआ दिया जाता है ताकि देवी भक्तगण को खुश होकर बुद्धि और ज्ञान प्रदान करें।
* माता स्कंधमाता नवरात्री के पांचवे दिन पूजी जाती है। शारीरिक स्वास्थ्य के लाभ के लिए देवी को केला भोगस्वरूप दिया जाता है।
* छठे दिन, माँ कात्यायनी को भोगस्वरूप शहद दिया जाता है। जिससे भक्त ज़्यादा आकर्षक लगे।
* सांतवे दिन, पूरे दिन उपवास के बाद माता कालरात्री को गुड़ भोग में दिया जाता है। इससे देवी भक्त के हर दर्द को हर लेंगी।
* दुर्गा अष्टमी के दिन, माता महागौरी की पूजा की जाती है। भोग में इस दिन नारियल दिया जाता है।
* नवें दिन देवी सिद्धिदात्री को तिल भोग में दिया जाता है। यह माना जाता है देवी भक्त के मृत्यु भय को दूर करती है। दुर्घटना से देवी बचाती है।
उपवास के दौरान भोज:
उपवास के दौरान लोग बहुत सारी चीजें बनाते हैं, लेकिन पूजा के नियम के अनुसार यह पहले से तय रहता है कि किस तरह का विशुद्ध खाना बनाना है और क्या नहींं। खाना बिल्कुल शाकाहारी होना चाहिए, फल, दूध, आलू और दूसरे जड़ वाले सब्जी होने चाहिए। विशेष प्रकार के सामग्रियों का इस्तेमाल नवरात्री के व्यंजन बनाने में होता है। मसालों का इस्तेमाल कम होता है, लाल मिर्च, हल्दी और जीरा का इस्तेमाल कम होता है और नमक के जगह पर सेंधा नमक का इस्तेमाल होता है। प्याज और लहसुन का इस्तेमाल बिल्कुल नहींं होता है। दूध, दही, फल और नट खा सकते हैं।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions