विकास का अर्थ
विकास एक प्रक्रम है, जिसे प्रेक्षण और उत्पाद जाना जा सकता है। विकासात्मक परिवर्तन, व्यक्तित्व की संरचना एवं उसके प्रकार्य में होते है। दैहिक संरचना में परिवर्तन जीवन पर्यन्त होते रहते है। ये परिवर्तन शरीर की कोशिकाओं एवं उतकों तथा अन्य रासायनिक तत्वों में होते रहते है। इसके साथ ही व्यक्ति के सवेंगों, व्यवहारों एवं अन्य व्यक्तित्यशाली गुणों में परिवर्तन होते रहते है जिन्हें प्रेक्षण द्वारा प्रत्यक्ष या व्यक्ति द्वारा किये गये व्यवहार के परिणाम के आधार पर परोक्षत: जाना जा सकता है। चूँकि विकास प्रगतिशील एवं निषिचत्त क्रम में होनेवाला परिवर्तन है। इस परिवर्तन से व्यक्ति में समायोजन की योग्यता विकसित होती है तथा यह एक पूर्ण मानव बनता है। विकास में अनुक्रम होता है अर्थात् एक अवस्था का विकास इसके पूर्व की अवस्था के विकास के प्रारूप का निर्धारण करता है तथा आगे की अवस्था के विकास के प्रारूप का निर्धारण करता है। अत स्पष्ट है कि विकास का अनुक्रम गर्भादान के समय से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक सिलसिलेवार होता रहता है। इसी विकास को गत्यात्पक कहा जाता है।
विकासात्मक परिवर्तन दो प्रकार के होते हैँ। संरचनात्मक विकास में वृद्धि महत्वपूर्ण है। वृद्धि में मात्रात्मक परिवर्तन होते है तथा परिपक्वता में गुणात्मक परिवर्तन होते है। ये परिवर्तन आपस में इतने घुले-मिले हुए होते है कि इन्हें एक-दूसरे से पृथक करना दुष्कर होता है। क्योंकि व्यक्तित्व के संरचना एवं प्रकार्य में विकास एक-दूसरे पर आश्रित रहते है। विकसित संरचना के अभाव में विकास संभव ही नहीं है। अत: व्यक्तित्व का प्रकाथत्मिक विकास संरचनात्मक विकास पर निर्भर होता है। अच्छी तरह प्रकार्य करने के लिए उसे वृद्धि एवं परिपक्वता की प्रतीक्षा करनी होती है । जैसे-जैसे शिशु में वृद्धि व विकास होता है वैसे-वैसे उसके व्यक्तित्त्व की संरचना में परिवर्तन आता है। जिसके परिणामस्वरूप वह परिवेश के साथ प्रक्रिया करने का ढंग विकसित करता है। व्यक्तित्व के विकास का तात्पर्य केवल शारीरिक विकास तक ही सीमित नहीं है बल्कि व्यक्तित्व की संरचना की इकाइयों में सरलता से जटिलता का परिवर्तन. है । इकाइयों की संख्या में वृद्धि होना व्यक्तित्व की संरचना में विकास का अर्ध है।
.विभिन्न प्रकार के अनुभव तथा अधिगम आते है जिससे व्यक्ति की पहचान होती है तथा साथ-हीं-साथ वह विशेषता भी निर्यात होती है जिससे व्यक्ति का निजी व्यक्तित्व निर्मित होता है तथा अनोखे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्ति भौतिक सामाजिक उद्दीपका के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है, यही सीखी गयी अनुक्रियाएँ अभिप्रेरर्का, अभिव्यक्तियों एवं व्यवहारों को संगठित स्वरूप प्रदान करती है।
विकास को एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया माना जाता है। व्यक्तित्व का निर्माण विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होता है। व्यक्तित्व विकास में दैहिक बृद्धि के साथ-साथ शारीरिक संरचना में वृद्धि तथा उसके प्रकाश में विविधता आती है जिससे वह परिवेश में भौतिक अभौतिक उहीपकों के प्रति अनुक्रिया करके समायोजन स्थापित करता है। व्यक्ति के जीवन काल में विकास की कमी में अलग-अलग परिवर्तन होते है। जन्म के पूर्व विकास तेजी से होता है। जन्म के बाद विकास की गति मन्द पड़ जाती है,पुनः तेरह से बीस वर्ष में विकास के गति अति तीव्र हो जाती है। मानव के जीवन में विकास का क्रम-सामान्य वितरण चक्र के समान होता है।
विकास के संरूप (प्रतिमान) या अवस्थाएँ
चूँकि व्यक्तित्व का विकास एक सतत् प्रक्रिया है जिसका बीजारोपण गर्भाधान के साथ होता है तथा यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। इस प्रक्रिया को विकास के संरूप
प्रतिमान के रूप में निम्मवत् स्पष्ट किया जा सकता है|
1. गर्भकालीन अवस्था एवं व्यक्तित्व विकास-व्यक्तित्व स्वरूप पर आनुवंशिक कारको का भी प्रभाव पड़ता है अत: गर्भकालीन परिस्थितियों जन्मोपरांत प्राप्त होनेवाली व्यक्तित्व संरचना की नीव के रूप में मानी जाती है। गर्भकालीन अवस्था अवधि 280 दिनों तक चलती है |
2. शैशवावस्था एवं व्यक्तित्व विकास-वास्तविक अर्थों में व्यक्तित्व का विकास इसी अवस्था में होता है। यद्यपि यह अवस्था बहुत लधु होती है फिर भी महत्वपूर्ण होती है।
जन्म के समय ही शिशुओं में वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती है। यहीं से शिशु समायोज़न करना सीखता है। इसी अवस्था से पेशीय विकास के प्रक्रिया आरम्भ होती है। अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि यदि जन्मोपरांत बच्चे माँ से अलग कर दिये जाते है तो उनमें समायोजन की क्षमता अपेक्षाकृत कम विकसित होती है। । इससे व्यक्ति के भविष्य के बारे में उसी प्रकार की झलक मिलती है, जिस प्रकार पुस्तक के स्वरूप के बरि में उसकी प्रस्तावना से।
3. बचपनावस्था एवं त्यदितत्व विकास-यह अवस्था जन्मोपरांत द्वितीय सप्ताह से द्वितीय वर्ष तक मानी जाती है। इसमें बच्चों में अनेक प्रकार के शारीरिक तथा व्यावहारिक परिवर्तन होते है जो उसके समायोजन को प्रभावित करते है। इस अवस्था में आत्म का बोध होने लगता है तथा सज्ञानात्मक योग्यताएं आदि का भी प्रदर्शन होने लगता है। वस्तुओ पर अधिकार जमाना, हँसना, खेलना. नाराज होना एवं निर्भरता में कमी आदि प्रदर्शन बच्चों में होने लगता है। व्यक्तित्व के विकास के दृष्टिकोण से यह क्रान्तिक समय होता है क्योंकि इस ममय जो नीव पडती है उसी पर प्रौढ व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस अवधि में व्यक्तित्व संबंधी परिवर्तन का स्पष्ट आभास मिलता है। बचपनावस्था में व्यक्तित्व के विकास पर माता के व्यवहार का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि इसी अवधि में बच्चों की निर्भरता में कमी आने लगती है।
4. बाल्यावस्था एवं व्यक्तित्व विकास-यह अवस्था दो वर्ष से लगभग बारह बर्ष तक होती है। इसमें बच्चों में व्यापक परिवर्तन होने लगते है। वे घर से बाहर जीने लगते है। उनपर परिवार के अतिरिक्त मित्र मण्डली का भी प्रभाव पड़ने लगता है। इस अवधि से बच्चों का तीव्र गति से मानसिक, शारीरिक व सामाजिक विकास होता है। परिपाक व्यक्तित्व का प्रतिमान भी परिमार्जित होने लगता है। बच्चों में जिज्ञासा, अन्वेषण एवं भाषा विकास भी परिलक्षित होने लगता है। इस अवस्था में बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति भी दिखाई पडती है। इसी अवधि में संवेगों में स्थिरता, कौशलों का अर्जन तथा लैंगिक अन्तर भी दिखाई पड़ता है । बाल्यावस्था क्रान्तिकारी परिवर्तन का समय है। इस अवस्था में होने वाले व्यक्तित्व विकास पर माता-पिता मित्रों एवं सम्बन्धियों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।
5. पूर्व-किशोरावस्था एवं व्यक्तित्व विकास-इसकी अवधि 10-14 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवधि में व्यक्तित्व सम्बन्धी विकासात्मक परिवर्तनों की सख्या तथा सीमा अपेक्षाकृत कम होती है, क्योंकि इस अवधि पर किशोरावस्था की स्पष्ट छाप होती है। फिर भी बालक तथा बालिकाओं में लैंगिक शक्तियों का विकास होने के साथ-साथ उनके सामाजिक क्षेत्र में भी वृद्धि होती है। उन्हें अनेक प्रकार के नविन समायोजन सीखना पड़ता है तथा चपलता, जिज्ञासा एवं अस्थिरता की प्रवृति बढने लगती है तथा उनमे निषेधात्मक दृष्टिकोण का भी प्रदर्शन होने लगता है।
6. किशोरावस्था एवं व्यक्तिव विकास-म अवधि 13 से 18 वर्ष तक होती है। इसमें व्यक्ति में अनेक प्रकार के परिवर्त्तन प्रदर्शित होते हैँ। इस अवधि में व्यक्ति में सामाजिक संवेगात्मक, मानसिक एव अन्य प्रकार के व्यवहार परिपक्वता की ओर अग्रसर होते है। माता- पिता तथा सम्बन्धियो के प्रति यह धारणा विकसित होने लगती है कि वे उन्हें समझने का प्रयत्न नहीं कर पाते हैं। बच्चे अपनी संवेदनाओ तथा संवेगों को अधिक महत्व देने लगते हैं। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण यथार्थ से परे होने लगता है। उन्हें समायोजन के नवीन आयाम सीखने पडते है। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण यथार्थ से परे होने लगता है। उन्हें समायोजन के नवीन आयति सीखने पड़ते है। उनमें नवीन मूत्यं। का भी विकास होता है। इस अवस्था में व्यक्ति गन्दी व अच्छी आदतों के प्रति सतर्क हो जाता है तथा अपना मूल्याकन अपने मित्रों के साथ करने लगता है। वह सामाजिक अनुर्मादन प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसमें व्यक्ति आवांछित आदतों को त्याग ने तथा वाछित आदतों को अगीकृत करने लगता है।
7. प्रौढावस्था एवं व्यक्तिव विकास-प्रौढावस्था का प्रसार अठारह वर्ष से चालीस वर्ष तक माना जाता है। व्यक्तित्व के जो प्रतिमान किशोरावस्था तक विकसित हो जाते हैं उनका अन्य अवस्थाओं में स्थिरीकरण होता है तथा कुछ नवीन शील गुण भी विकसित होते हैँ। प्रौढावरथा से व्यक्ति नवीन, सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुरूप कार्य करना सीखता है। उसके ऊपर परिवार सँभालने की जिम्मेदारी आ जाती है। वह स्वतन्त्रता से सोचना प्रारम्भ करता है। इससे उसमें सर्जनशीलता की शक्ति बढती है।
8 मध्यवस्था एवं व्यक्तित्व विकास-इसका प्रसार चालीस वर्ष से साठ वर्ष तक माना जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति की योग्यताओं में हास प्रारम्भ हो जाता है। उसकी मानसिक एकाग्रता, मानसिक स्थिरपा व सक्रियता में कमी आने लगती है । इन्हें कारणों से समायोजन में कठिनाई अनुभव की जाती है । जीवन में स्थिरता, एकरूपता तथा परिवर्तनों में अभाव के कारण व्यक्ति में चिंता, नीरसता तथा उदासी बढ़ने लगती है। इनका समायोजन पर बाधक प्रभाव पड़ता है। अत : स्पष्ट है कि इस अवस्था में व्यक्तित्व प्रणाली में समनव्य की कमी आने लगती है तथा पचास वर्ष के बाद उपर्युक्त लक्षण पूर्णतया स्पष्ट होने लगते हैँ।
9. वृद्धावस्था एवं व्यवित्तत्व विकास- इसका प्रारम्भ साठ वर्ष से माना जाता है तथा जीवन के शेष समय तक यही अवस्था रहती है। इसमें हास की गति तीव्र हो जाती है जिससे व्यक्ति में शारीरिक तथा मानसिक दुर्बलता आने लगती है। स्मरण शक्ति कमजोर पडने से समायोजन की समस्या स्थायी रूप धारण करने लगती है। व्यक्ति में रुड़ीवादिता बड़ जाती है, उसमें हीनता की भावना भी उत्पन्न हो सकती है।नयी पीढी सेउसका सम्बन्ध तथा समायोजन सन्तोषनक नहीँ रह पाता। एकाकीपन ही उसका सहारा रह जाता है। इस प्रकार व्यक्ति में समन्वय का अभाव तथा वह असहाय अवस्था मेँ पहुँच जाता है।
व्यक्ति में कोई नवीन प्रतिमान उत्पन्न नहीं होते बल्कि प्रतिमानों में हास होने लगते है। अत: व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से किशोरावस्था तक की अवस्थाएँ ही विशेष महत्व रखतीं हैँ।
Pt.P.S.Tripathi
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