
॥ वैभव प्रदाता श्रीसूक्तम् पुरश्चरण साधना विधि ॥
— यह साधना महालक्ष्मी की स्थायी कृपा, दरिद्रता का नाश, और वैभव-समृद्धि प्राप्ति के लिए अत्यन्त शक्तिशाली मानी जाती है। श्रीसूक्त वेदों से उद्भूत स्तोत्र है और इसकी विधिपूर्वक साधना से लक्ष्मी त्वरित प्रसन्न होती हैं।
🔱 1. श्रीसूक्त का स्वरूप:
- स्रोत: ऋग्वेद (५.८२ सूक्त)
- कुल मन्त्र: १५ मूल मन्त्र + १ लक्ष्मी गायत्री + १ फलश्रुति = १७ मन्त्र
- देवी: श्री लक्ष्मी (वैष्णवी शक्ति), पद्मासना, कमलविलसिनी
🎯 2. श्रीसूक्त पुरश्चरण का उद्देश्य:
उद्देश्य | प्राप्त फल |
---|---|
दरिद्रता का नाश | आर्थिक संकटों से मुक्ति |
वैभव और ऐश्वर्य | धन, सम्पत्ति, सौभाग्य |
शुभ ग्रह फल | शुक्र, चंद्र और गुरु का शुभत्व |
कुल की रक्षा और उन्नति | परिवारिक कल्याण व सुरक्षा |
सिद्धि और स्थायी लक्ष्मी कृपा | दिव्य लक्ष्मी तत्त्व का जागरण |
🔢 3. पुरश्चरण संख्या निर्धारण:
श्रीसूक्त के 17 मन्त्रों का पुरश्चरण = 1 लाख मन्त्र
👉 यानी:
- 1 पाठ = 17 मन्त्र
- 1,00,000 मन्त्र ÷ 17 = 5,885 पाठ लगभग
🔹 लघु पुरश्चरण = 10,000 मन्त्र (≈ 589 पाठ)
🔹 पूर्ण पुरश्चरण = 1,00,000 मन्त्र (≈ 5,885 पाठ)
📍 4. कब, कहाँ, कैसे?
तत्त्व | विधि |
---|---|
काल | प्रातःकाल (ब्रह्ममुहूर्त) सर्वोत्तम, संध्या वैकल्पिक |
दिशा | पूर्व या उत्तराभिमुख बैठें |
स्थान | एकांत, पवित्र साधना कक्ष या लक्ष्मी मंदिर |
वार | शुक्रवार आरम्भ करना शुभ |
आसन | पीले वस्त्र पर ऊन/कुशा आसन |
🔅 5. आवश्यक सामग्री:
- लक्ष्मी प्रतिमा / श्री यंत्र / चित्र
- पीले पुष्प (कमल, गेंदे)
- घी/तिल का दीपक (दो मुखी शुभ)
- नैवेद्य: खीर, गुड़, मिश्री, पान, केले
- जल पात्र, अक्षत, चंदन, गंध, फल
- रुद्राक्ष या स्फटिक की माला (108 मनकों की)
🧘♂️ 6. साधना नियम:
नियम | अनिवार्यता |
---|---|
सात्त्विक भोजन | ✔️ |
ब्रह्मचर्य का पालन | ✔️ |
मौन/स्वल्प वाणी | ✔️ |
एक ही स्थान पर प्रतिदिन बैठें | ✔️ |
🪔 7. दैनिक साधना विधि (विस्तार से):
🔰 पूर्व विधि:
- स्नान, शुद्ध वस्त्र
- आसन पर बैठें, दीपक जलाएं
- लक्ष्मी ध्यान मन्त्र:
“पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षि पद्मसंभवे ।
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यम् लभाम्यहम् ॥” - संकल्प लें:
“मैं अमुक नाम, अमुक उद्देश्य हेतु श्रीसूक्त का इतने पाठों द्वारा पुरश्चरण करता हूँ।”
📜 मुख्य पाठ विधि:
1 पाठ = 17 मन्त्र → यह एक आवृत्ति गिने।
- माला द्वारा गिनती करें (108 पाठ/दिन करें तो ≈ 55 दिन में 5885 पाठ पूर्ण होंगे)
- मन्त्रों का उच्चारण स्पष्ट व भावपूर्वक करें
- उदाहरणतः आरंभिक 3 मन्त्र:
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१॥
श्रीः च क्लीं च कामले कमलालये श्रीं च स्वाहा ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः ॥२॥
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥३॥
(पूरे श्रीसूक्त का PDF मैं दे सकता हूँ)
🙏 उत्तरकर्म:
- लक्ष्मी अष्टोत्तर नामावली से अर्चना
- “ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः” मंत्र 11 या 108 बार जपें
- नैवेद्य अर्पण, क्षमा प्रार्थना करें
🔥 8. पूर्णाहुति (यदि पूर्ण पुरश्चरण हो):
अनुष्ठान | विधि |
---|---|
होम | श्रीसूक्त की अंतिम पंक्तियों से तिल-घृत होम करें |
तर्पण | मन्त्र + जल + तिल से ब्रह्मा-ऋषि-देवताओं को अर्पण |
मार्जन | वही जल शरीर पर छिड़कें |
ब्रह्मभोज | 5 ब्राह्मणों को भोजन, दक्षिणा या दान दें |
📊 9. साधना योजना (तालिका):
दिन | प्रतिदिन पाठ | कुल पाठ | अनुमानित समय (प्रति दिन) |
---|---|---|---|
21 दिन | 280 | 5880 | ~2.5 घंटे |
40 दिन | 150 | 6000 | ~1.5 घंटे |
84 दिन | 70 | 5880 | ~50 मिनट |
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॥ वैभव प्रदाता श्री सूक्त ॥
हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥3॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥4॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥5॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥7॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥8॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥9॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥11॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥12॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥13॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥15॥
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥16॥
पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम्॥17॥
अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥18॥
पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम्॥19॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते॥20॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥21॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा॥22॥
वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि॥23॥
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥24॥
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी।
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया॥25॥
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता॥26॥
लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम्।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम्॥27॥
श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम्।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥28॥
सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा॥29॥
वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम्।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं त्वाम्॥30॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥31॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥32॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥33॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥34॥
श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥35॥
ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥36॥
य एवं वेद ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥37॥