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धन, सौभाग्य, दरिद्रता का नाश, धन वृद्धि एवं लक्ष्मी की दिव्य कृपा हेतु विशेष तांत्रिक उपाय

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॥ श्रीलक्ष्मीस्तोत्रम् (अगस्त्य ऋषि कृत) – पुरश्चरण विधि सहित संपूर्ण साधना विवरण ॥
(संपत्ति, सौभाग्य, दरिद्र्य नाश, श्री वृद्धि और दिव्य लक्ष्मी-कृपा हेतु विशिष्ट तांत्रिक स्तोत्र)

🔱 १. पुरश्चरण क्यों करें?
अगस्त्य ऋषि कृत श्रीलक्ष्मीस्तोत्रम् देवी लक्ष्मी की एक तांत्रिक और अत्यंत प्रभावकारी स्तुति है। यह स्तोत्र विशेष रूप से सकल दरिद्रता नाश, स्थिर लक्ष्मी प्राप्ति, वास्तविक वैभव (धन+धर्म) और शुभ ग्रह स्थिति हेतु साधक को अद्भुत फल देता है।

✨ लाभ:
उद्देश्य
फल
दारिद्र्य नाश
धन, अनाज, साधन की प्राप्ति
गृह क्लेश से मुक्ति
पारिवारिक सुख, सौम्यता
व्यापार/व्यवसाय में वृद्धि
स्थायी आय स्रोत
कुबेर-कृपा का संकेत
अचानक संपत्ति, भाग्योदय
लक्ष्मी स्थिरता
स्थायी वैभव और शांति

📘 २. स्तोत्र का स्वरूप
यह स्तोत्र प्राचीनतम ग्रंथ “अगस्त्य संहिता” में उल्लिखित है। इसमें महर्षि अगस्त्य द्वारा लक्ष्मी देवी का स्तवन करते हुए उन्हें “जगद्धात्री, करुणामयी, सर्वमंगलप्रदा” बताया गया है।

🔹 यह स्तोत्र लगभग १५–१७ श्लोक का है, प्रत्येक श्लोक अत्यंत तेजस्वी बीजों से युक्त होता है।
🔹 प्रारंभिक पंक्ति:

ॐ नमो देवि लक्ष्म्यै, नमस्ते सुरपूजिते ।
सर्वसम्पत्तिप्रदे देवि नमस्तेऽस्तु महेश्वरि ॥

🔢 ३. पुरश्चरण संख्या निर्धारण
स्तर
पाठ संख्या
अनुशंसित अवधि
लघु
१०८ बार
९–११ दिन
मध्यम
१००८ बार
२१–४० दिन
पूर्ण
१०,०००+ पाठ
४०–८४ दिन
विशिष्ट तांत्रिक
१,२५,००० पाठ
१०८ दिन, विशेष व्रत पालन सहित
🔸 १ पाठ = सम्पूर्ण श्रीलक्ष्मीस्तोत्रम् एक बार जप

📍 ४. स्थान, समय, पात्रता
विषय
विवरण
स्थान
लक्ष्मी-मंदिर, घर का पूजा स्थल, या शुद्ध साधना कक्ष
दिशा
पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके
समय
प्रातः काल (ब्रह्ममुहूर्त) या प्रदोष काल (संध्या के समय)
प्रारंभ तिथि
शुक्रवार, पूर्णिमा, अक्षय तृतीया, दीपावली या नवरात्र
व्रत/नियम
सात्त्विकता, ब्रह्मचर्य, मौन, यथाशक्ति उपवास

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🌸 ५. आवश्यक सामग्री
वस्तु
प्रयोग
लक्ष्मी चित्र/मूर्ति
कमलासन या धनवर्षा मुद्रा में
दीपक
देसी घी या तिल तेल का
पुष्प
कमल, गुलाब, चमेली, केवड़ा
नैवेद्य
खीर, मिश्री, पायस, फल
वस्त्र
सफेद या लाल
आसन
ऊन, कुश, रेशमी वस्त्र
माला
कमलगट्टा माला (108 दानों की)

🪔 ६. दैनिक साधना विधि
🧘‍♂️ १. संकल्प:
मम दरिद्र्यनाशार्थं, श्रीसंपद्प्राप्त्यर्थं, श्रीलक्ष्मीस्तैर्यवृद्ध्यर्थं,
श्रीलक्ष्मीस्तोत्रस्य (उदाहरण: १००८) पाठानां पुरश्चरणं करिष्ये ॥

जल लेकर संकल्प करें।

🔰 २. ध्यान:
सिद्धलक्ष्मीं च सर्वज्ञां सर्वशक्तिसमन्विताम् ।
सर्वाभीष्टप्रदां देवीं वन्दे मां शुभदां शिवाम् ॥

या:

सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां लक्ष्मीं सहस्रारिणीम्
सर्वाभीष्टफलप्रदां भगवतीं वन्दे भजे श्रीधराम् ॥

📖 ३. मुख्य पाठ
प्रतिदिन नियत संख्या में पाठ करें
यदि चाहें, पहले या बाद में बीजमंत्र जप जोड़ सकते हैं:
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः ॥ (१०८ बार)

📿 कमलगट्टे की माला से जप करना सर्वश्रेष्ठ

🪔 ४. आरती और समर्पण
आरती:
“जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता…”
या
“ॐ जय लक्ष्मी मातारम”
पुष्पांजलि अर्पण करें
जल के छींटों से समापन करें:
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

🔥 ७. पूर्णाहुति / समापन विधि
क्रिया
विधि
हवन
“ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै नमः” मंत्र से 108 आहुतियाँ
तर्पण
देवी लक्ष्मी, गुरु, ऋषियों के लिए जल तर्पण
दान
कमलगट्टा, खीर, वस्त्र, चांदी का सिक्का
कन्या/वृद्धा सेवा
5 कन्याओं को भोजन एवं दक्षिणा देना
विशेष दीपदान
शुक्रवार को 11 दीप जलाना — दक्षिण दिशा में

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🧾 ८. साधना योजना चार्ट
दिन
प्रति दिन पाठ
कुल पाठ
११ दिन
१० पाठ
१०८
२१ दिन
४८ पाठ
१००८
४० दिन
२५ पाठ
१०००
८४ दिन
१२ पाठ
१००००+

⚠️ ९. विशेष निर्देश
लक्ष्मीजी का निवास स्वच्छता, सात्त्विकता, मौन और नियम में होता है।
ब्रह्ममुहूर्त साधना में दृढ़ संकल्प और मौन विशेष फलदायक
शुक्रवार को दीप, लाल पुष्प, सुगंधित इत्र अर्पण करें
स्तोत्र जप से पूर्व घर/कक्ष की धूप, दीप से शुद्धि करें
साधना काल में किसी को साधना साझा न करें

🔚 निष्कर्ष:
“जहाँ नियमपूर्वक अगस्त्यकृत श्रीलक्ष्मीस्तोत्र का जप होता है,
वहाँ लक्ष्मी सदा स्थायी रूप से वास करती हैं।”
संपत्ति + शांति = लक्ष्मी
यह साधना केवल धन नहीं, धर्मयुक्त वैभव भी प्रदान करती है

श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं अगस्त्यरचितम्

जय पद्मपलाशाक्षि जय त्वं श्रीपतिप्रिये ।
जय मातर्महालक्ष्मि संसारार्णवतारिणि ॥

महालक्ष्मि नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि ।
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ॥

पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे ।
सर्वभूतहितार्थाय वसुवृष्टिं सदा कुरु ॥

जगन्मातर्नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे ।
दयावति नमस्तुभ्यं विश्वेश्वरि नमोऽस्तु ते ॥

नमः क्षीरार्णवसुते नमस्त्रैलोक्यधारिणि ।
वसुवृष्टे नमस्तुभ्यं रक्ष मां शरणागतं ॥

रक्ष त्वं देवदेवेशि देवदेवस्य वल्लभे ।
दरिद्रात्त्राहि मां लक्ष्मि कृपां कुरु ममोपरि ॥

नमस्त्रैलोक्यजननि नमस्त्रैलोक्यपावनि ।
ब्रह्मादयो नमस्ते त्वां जगदानन्ददायिनि ॥

विष्णुप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं जगद्धिते ।
आर्तहन्त्रि नमस्तुभ्यं समृद्धिं कुरु मे सदा ॥

अब्जवासे नमस्तुभ्यं चपलायै नमो नमः ।
चंचलायै नमस्तुभ्यं ललितायै नमो नमः ॥

नमः प्रद्युम्नजननि मातुस्तुभ्यं नमो नमः ।
परिपालय भो मातर्मां तुभ्यं शरणागतं ॥

शरण्ये त्वां प्रपन्नोऽस्मि कमले कमलालये ।
त्राहि त्राहि महालक्ष्मि परित्राणपरायणे ॥

पाण्डित्यं शोभते नैव न शोभन्ति गुणा नरे ।
शीलत्वं नैव शोभेत महालक्ष्मि त्वया विना ॥

तावद्विराजते रूपं तावच्छीलं विराजते ।
तावद्गुणा नराणां च यावल्लक्ष्मीः प्रसीदति ॥

लक्ष्मित्वयालंकृतमानवा ये पापैर्विमुक्ता नृपलोकमान्याः ।
गुणैर्विहीना गुणिनो भवन्ति दुशीलिनः शीलवतां वरिष्ठाः ॥

लक्ष्मीर्भूषयते रूपं लक्ष्मीर्भूषयते कुलं ।
लक्ष्मीर्भूषयते विद्यां सर्वाल्लक्ष्मीर्विशिष्यते ॥

लक्ष्मि त्वद्गुणकीर्तनेन कमलाभूर्यात्यलं जिह्मतां ।
रुद्राद्या रविचन्द्रदेवपतयो वक्तुं च नैव क्षमाः ॥

अस्माभिस्तव रूपलक्षणगुणान्वक्तुं कथं शक्यते ।
मातर्मां परिपाहि विश्वजननि कृत्वा ममेष्टं ध्रुवं ॥

दीनार्तिभीतं भवतापपीडितं धनैर्विहीनं तव पार्श्वमागतं ।
कृपानिधित्वान्मम लक्ष्मि सत्वरं धनप्रदानाद्धन्नायकं कुरु ॥

मां विलोक्य जननि हरिप्रिये । निर्धनं त्वत्समीपमागतं ॥

देहि मे झटिति लक्ष्मि । कराग्रं वस्त्रकांचनवरान्नमद्भुतं ॥

त्वमेव जननी लक्ष्मि पिता लक्ष्मि त्वमेव च ॥

त्राहि त्राहि महालक्ष्मि त्राहि त्राहि सुरेश्वरि ।
त्राहि त्राहि जगन्मातर्दरिद्रात्त्राहि वेगतः ॥

नमस्तुभ्यं जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं नमो नमः ।
धर्माधारे नमस्तुभ्यं नमः सम्पत्तिदायिनी ॥

दरिद्रार्णवमग्नोऽहं निमग्नोऽहं रसातले ।
मज्जन्तं मां करे धृत्वा सूद्धर त्वं रमे द्रुतं ॥

किं लक्ष्मि बहुनोक्तेन जल्पितेन पुनः पुनः ।
अन्यन्मे शरणं नास्ति सत्यं सत्यं हरिप्रिये ॥

एतच्श्रुत्वाऽगस्तिवाक्यं हृष्यमाण हरिप्रिया ।
उवाच मधुरां वाणीं तुष्टाहं तव सर्वदा ॥

लक्ष्मीरुवाच
यत्त्वयोक्तमिदं स्तोत्रं यः पठिष्यति मानवः ।
श‍ृणोति च महाभागस्तस्याहं वशवर्तिनी ॥

नित्यं पठति यो भक्त्या त्वलक्ष्मीस्तस्य नश्यति ।
रणश्च नश्यते तीव्रं वियोगं नैव पश्यति ॥

यः पठेत्प्रातरुत्थाय श्रद्धा-भक्तिसमन्वितः ।
गृहे तस्य सदा स्थास्ये नित्यं श्रीपतिना सह ॥

सुखसौभाग्यसम्पन्नो मनस्वी बुद्धिमान् भवेत् ।
पुत्रवान् गुणवान् श्रेष्ठो भोगभोक्ता च मानवः ॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं लक्ष्म्यगस्तिप्रकीर्तितं ।
विष्णुप्रसादजननं चतुर्वर्गफलप्रदं ॥

राजद्वारे जयश्चैव शत्रोश्चैव पराजयः ।
भूतप्रेतपिशाचानां व्याघ्राणां न भयं तथा ॥

न शस्त्रानलतोयौघाद्भयं तस्य प्रजायते ।
दुर्वृत्तानां च पापानां बहुहानिकरं परं ॥

मन्दुराकरिशालासु गवां गोष्ठे समाहितः ।
पठेत्तद्दोषशान्त्यर्थं महापातकनाशनं ॥

सर्वसौख्यकरं नृणामायुरारोग्यदं तथा ।
अगस्रिआमुनिना प्रोक्तं प्रजानां हितकाम्यया ॥

॥ इत्यगस्तिविरचितं लक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णं ॥