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प्राचीन भारतीय शास्त्र अनुसार प्रत्येक ग्रह की अपनी एक दिषा तथा स्थान निर्धारित है जोकि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी सच साबित हुई है। माना जाता है कि प्रत्येक ग्रह की अपनी एक उॅर्जा होती है उसी के अनुरूप उसकी दिषा तथा स्थान तय करते हैं। सूर्य के लिए पूर्व दिषा निर्धारित है चूॅकि सूर्य तेजोमय तथा प्रकाष का कारक है अतः सूर्य को पूर्व दिषा तथा उच्च स्थान का स्वामी माना जाता है। उत्तर पूर्व पर गुरू का अधिकार है चूॅकि गुरू को सकारात्मक और तेज का ग्रह माना जाता है अतः उत्तर पूर्व दिषा तथा धनु एवं मीन राषि प्रदान किया गया है। उत्तर पर बुध का अधिकार इस उद्देष्य से दिया गया है कि बुध सक्रियता तथा रचनात्मकता का स्वामी होता है अतः उत्तर दिषा में इस प्रकार के कर्म से जीवन में रचनात्मकता तथा सक्रियता के कारण सफलता प्राप्ति में सहायता मिल सकती है। मिथुन तथा कन्या राषियों वालों के लिए उत्तर दिषा लाभदायी होती है। उसी प्रकार चंद्रमा को उत्तर पष्चिम का स्वामी माना जाता है क्योंकि यह रचनात्मकता विचार ज्यादा करने का कारक होता है। कर्क राषि वाले इस क्षेत्र में ज्यादा सफल हो सकते हैं। शनि को पष्चिम दिषा का अधिकार है क्योंकि शनि ग्रह को नाकारात्मक तथा धीमा ग्रह माना जाता है। पष्चिम दिषा तथा कमजोर लोग के साथ मकर तथा कुंभ राषि वाले सफल होते हैं। दक्षिण दिषा में मंगल का अधिकार है चूॅकि मंगल उग्र तथा दाह देने वाला ग्रह माना जाता है अतः मेष तथा वृष्चिक राषि वाले दक्षिण दिषा कू्रर तथा भारी कार्य में सफल बनते हैं। उसी प्रकार दक्षिण पष्चिम दिषा को राहु का कारक माना जाता है क्योंकि रहस्य और नाकारात्मक प्रभाव राहु से आता है। इलेक्टानिक तथा लिक से हटकर कार्य करने में राहु से प्रभावित कुंडली ज्यादा सक्षम होती है। दक्षिण पष्चिम पर शुक्र का राज है क्योंकि उष्ण और तेजयुक्त माना जाता है अतः दक्षिण-पष्चिम दिषा तथा सुख तथा भोग के साधन एवं वृषभ तुला राषि वाले उन्नति प्राप्त करते हैं। साथ ही उत्तर पूर्व पर केतु का अधिकार काल्पनिक तथा तेज के कारण प्रदान किया गया है। अतः यदि जीवन में अपनी राषि एवं दिषा के अनुरूप व्यवसाय या कार्य का चयन किया जाय तो परिणाम साकारात्मक हो सकता है।