मनुष्य की भौतिक उपलब्धियों में भिन्नताएँ विचारणीय है। तीव्र बुद्धि के न्यूटन ने जहाँ अपने आविष्कारों से अमरत्व प्राप्त किया वहीँ कुछ ऐसे मद व्यक्ति भी हमें मिल जाएँगे जो अपने प्राथमिक आवश्यकताओं के पूर्ति नहीँ कर सकते। विभिनन क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियों के आधार पर हम उनकी योग्यताओं का आकलन करते है। इन योग्यताओं के बारे में सामान्य जन की धारणा यह है कि व्यक्तियों की यह विलक्षण तथा जन्म-जात विशेषताएँ है जो उनकी उपलब्धियों को प्रभावित करती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के संस्थापक सर फ्रांसिस गाल्टन मानव सृजनन विज्ञान में अधिक इच्छुक थे। उनका विश्वास था कि अधिकतर मानव भिन्नताएँ जन्मजात होती है तथा इन भिन्नताओं के लिए उत्तरदायी विशेषताएं एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में शारीरिक वंशानुत्क्रम के रूप में स्थान्तरित हो जाती है। गाल्टन ने इस तथ्य पर बल दिया कि कोई भी दो व्यक्ति एकदूसरे के समान नहीं है। किसी में बौद्धिक योग्यता की मात्रा अधिक पाई जाती है तो किसी में कमा बौद्धिक योग्यत्ता (मानसिक योग्यता) के आधार पर जब व्यक्तियों का श्रेणीकरण किया जाता है तो निम्नस्तर प्राप्त करने वाले व्यक्तिव को ही मानसिक मंदत्ता के वर्ग में रखा जाता है।
मानसिक मंदता एक प्रकार का मानसिक रोग है जो निम्म बौद्धिक योग्यता की ओंर संकेत करता है। मानसिक मंदता एक प्रकार की मानसिक रुग्णता है। यह एक ऐसी मानसिक दशा है जिससे बौद्धिक क्षमता एक सीमित मात्रा में पाई जाती है ।मनोवैज्ञानिक साहित्य के अवलोकन से यह विदित होता है कि मानसिक मंदता के लिए क्षीणमन्दयकता, मंद्बुद्धिता, जड़ता,मानसिक अप सामान्यता,अल्पमानसिकता आदि शब्दों को पर्यायवाची के रूप म प्रयोग किया जाता है।
मानसिक इतिहास का इतिहास नया नहीँ है, वरन मानव इतिहास जैसा ही पुराना है। मानसिक रोगी सभी काल में पाये जाते रहे है, परन्तु उनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण पहले अमानवीय रहा है। परन्तु अब लोगे के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है और लोगों ने मानसिक मन्द व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया है । 1799 में सर्वप्रथम जीन इटराड ने मानसिक मदन का अध्ययन प्रारंभ किया । इंगलैड में 1840 तथा 1847 में अमेरिका में मानसिक रूप से मंद बालकों के लिए विद्यालयों के स्थापना की गई। डारविन के विकासवाद सिद्धांत से प्रभावित होकर उनके रिश्ते के भाई सर फ्रांसिस गाल्टन ने आनुवंशिकता के प्रमाण का अध्ययन किया। यही नहीं बुंट ने 1879 में अपनी प्रयोगशाला में उपकरण के माध्यम से बुद्धि का मापन किया। उनके प्रभावों से प्रभावित होकर गाल्टन, पियर्सन, कैटेले, बिने, थोर्नडाइक, टरमन आदि मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अल्फ्रेड बिने ( 1908 ) में सर्वप्रथम मानसिक आयु प्रत्यय का प्रयोग किया और यह मत प्रकट किया कि वास्तविक आयु में वृद्धि के साथ-साथ मानसिक आयु में भी वृद्धि होती है। बुद्धि लब्धि का सम्प्रत्ययीकरण टरमन और उनके सहयोगियों द्वारा हुआ। स्टर्न ( 1911 ) ने मानसिक लब्धि संप्रत्यय को प्रस्तुत किया।
मानसिक मंदन के लक्षण
न्यून बौद्धिक क्षमता-ऐसे व्यक्तियों में मस्तिष्क का विकास अपूर्ण रहता है तथा बुद्धि के विकास की गति मंद पड़ जाती है जिससे मानसिक मंदन पाया जाता है।
2. न्यून शरीरिक विकास-यदि सामान्य बालक की तुलना मानसिक मंद बालकों से की जाय तो मानसिक मंद बालको का कद अपेक्षाकृत छोटा, पैर छोटा, होंठ भद्दे तथा सिर बड़ा होता है। इनकी संज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक योग्यताएँ देर से विकसित होती है। यही नहीं, भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी इनमें पाई जाती है। ”
3. जीवन की समस्याओ के समाधान में असफलता-मंद बालकों में अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को समझने और उनके समाधान की योग्यता पाई जाती है। ऐसे बालको में व्यवहार कुशलता का अभाव पाया जाता है।
4. अनुपयुक्त समायोजन-मानसिक मंद व्यक्तियों में मानसिक एवं शारीरिक न्यूनता पाई जाती है इसलिए इनके व्यवहार में विचित्रता पाई जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के व्यवहार से पूर्णत: भिन्न होती है। इनमें व्यवहार कुशलता तथा सामाजिक परिस्थिति को समझने की योग्यत्ता का अभाव पाया जाता है इसलिए इनका समायोजन ठीक नहीं होता है ।
5. सामाजिक गुणों को अनुपयुक्ता-मानसिक मंद व्यक्तियों में कल्पनाशीलता, तर्कशीलता, व्यवहार कुशलता, आत्मसंयम, आत्म विश्ववास, आत्मरक्षा जैसे सदगुणों का अभाव पाया जाता है। परिणामस्वरूप वे सामाजिक और असामाजिक कार्यों में अन्तर नहीं कर पाते है जिससे उनके व्यवहारों से समाजविरोधी कार्यों की अभिव्यक्ति होती है।
6. असामान्य मस्तिष्क संरचना-मानसिक मद व्यक्तियों में ज़लशीर्षता तथा लघुशीर्षता पाई जाती है, जिसमे उनकी मस्तिष्क संरचना का उपयुक्त विकास नहीं हो पता है और उनमें मानसिक मंदन पाया जता है।
7. जीविकोपार्जन में असमर्थता-चूँकि मानसिक मंद व्यक्तियों को अपनी देनिक जीवनचर्या के लिए ही नहीं, वरन व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए ऐसे व्यक्तियों में निर्भरता बहुत अधिक पाई जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने लिए जीविकोपार्जन नहीँ कर सकते हैँ। .
8. अन्य जीवनकाल-मानसिक में बालक कभी दीर्घायु नहीं होते। कम बालक ही किशोरावस्था प्राप्त कर पाते है। जीवनकाल और मानसिक मंदन की तीव्रता में अनुसंधानकर्ताओं ने यह परिणाम प्राप्त किया है कि मानसिक मंदन जितना ही तीव्र होगा, जीवनकाल के कम होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
9. शैक्षिक अयोग्यता-मानसिक मंद बालकों का बौद्धिक स्तर औसत से नीचे होते है इसलिए उसे औपचारिक या अनौपचारिक प्रशिक्षण के द्वारा प्रशिक्षित करके उन्हें किसी प्रकार शिक्षित नहीं किया जा सकता है।
10. असमान्य शारीरिक अंग-सामान्य तथा मानसिक मंद बालकों की तुलना करने पर शारीरिक अंगों में असामान्यत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मानसिक मंद बालकों के शारीर के अपेक्षाकृत असामन्य होते है।
11. प्रेरणा एवं संवेग की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-मानसिक मंद बालकों में अपने प्राथमिक आवश्यकताओं तथा भूख प्यास के प्रति ही कोई चिन्तास नहीं पाई जाती है। यही नहीं, इनमें किसी प्रकार के संवेग तथा प्रेम, घृणा, दुख, प्रसन्नता आदि की अभिव्यक्ति भी प्रदर्शित नहीँ होती है। इनका जीवन आवेगहीन, उद्देश्यहीन, आवश्यकताहीन, प्रेरणाहिन एवं संवेगहीन होता है।
12. शरीरिक विकार की अधिकता-मानसिक मंद बालकों में अनेक प्रकार के शारीरिक विकार पाए जाते है जैसे चपरासी सम्बन्धी विकार, मस्तिष्क के उत्तकों एवं कोशिकाओं के अपक्षय आदि, इन्ही विकारों के कारण मानसिक मंदन पाया जाता है | इन विकारों की मात्रा जितनी ही अधिक होगी,मानसिक मंदन भी उतना ही अधिक होगा|
Pt.P.S.Tripathi
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