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(दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्त, अमर और भरा-पूरा जीवन विधान ही धर्म है।)

धर्म क्या है — एक प्रकार की ब्रम्हाण्डीय जानकारी और उस जानकारी के अनुसार अपने आपको स्थित और व्यवस्थित करना अर्थात् ब्रम्हाण्डीय स्थिति की यथार्थत: जानकारी रखते हुये अपने को उसके अनुसार व्यस्थित कर देना । जो कुछ और जितना भी हम ब्रम्हाण्डीय विधान से अलग हट चुके हैं, उसमें अपने को स्थित कर देना । पिण्ड (शरीर) ब्रम्हाण्ड की एक इकाई है । ब्रम्हाण्डीय विधान क्या है और उसमें यह जो हमारा पिण्ड है यह कहाँ और कैसा है– इसकी सम्पूर्ण जानकारी रखते हुये, यह जहाँ जैसा था, वहाँ वैसा रख देना, उसमें जोड़ देना या व्यवस्थित कर देना । ब्रम्हाण्डीय विधान से जानकारी रखते हुये उसमें पिण्डीय स्थिति को स्थित कर देना। जो ब्रम्हाण्डीय विधान से छूट चुके हैं अथवा किसी विपरीत गति में जा चुके हैं उस विपरीत गति से अनुकूल गति में स्थित कर देना । जब हम ऐसा कर लेंगे तो हमारा सारा उद्देश्य भगवन्मय होता रहेगा ! अपनी दृष्टि को हमेशा ‘तत्त्व’ के तरफ मोड़ते हुए तत्त्वमय बनाए रखना चाहिये। शरीर रूप में अपने को देखने की कोशिश कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि शरीरमय देखने से ही संसार में सारे दोष और दुष्कृत्य उत्पन्न होते रहते हैं जिससे पतन और विनाश को हर कोई ही जाने लगता और जाता ही रहता है।

‘धर्म’ अपने आप में एक परिपूर्ण शब्द है । ”परमाणु से परमात्मा तक का सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड शिक्षा (एजुकेशन) से तत्त्वज्ञान (नॉलेज) तक का सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण प्रयोग-उपलब्धि समाहित रहता है जिसमें वह विधान ही ‘धर्म’ है।”

जड़ जगत्-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर:– संसार और शरीर के मध्य शरीर तक की पूर्ण जानकारी शिक्षा (Education); शरीर और जीव के मध्य जीव तक की पूर्ण जानकारी स्वाध्याय (Self Realization); जीव और ईश्वर के मध्य ईश्वर तक की पूर्ण जानकारी अध्यात्म (Spiritualization) और ईश्वर और परमेश्वर के मध्य की जानकारी, साथ ही साथ सम्पूर्ण जानकारी ( True Supreme KNOWLEDGE ) समाहित रहता है जिसमें, वही है ‘धर्म’ ।

भगवान श्री कृष्ण जी महाराज के अनुसार– ”जिस माध्यम से अनन्य भगवद् भक्ति-भाव होता रहता हो वही ‘धर्म’ है; जिस माध्यम से अद्वैत्तत्त्व बोध—भगवत्तत्त्व बोध रूप एकत्व बोध होता हो, वही तत्त्वज्ञान है; जिस माध्यम से सम्पूर्ण संसार के प्रति त्याग-भाव (विषयों से असंग) और भगवान के प्रति समर्पण-शरणागत भाव हो, वही वैराग्य है और अणिमा-गणिमा आदि सिध्दियाँ जिसमें हों, वही ऐश्वर्य है।” आप श्रीमद्भागवत् महापुराण के अधोलिखित श्लोक में जान-देख सकते हैं–

धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्।

गुणेष्वसंगो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादय: ॥

(श्रीमदभागवत्महापुराण 11/19/27)

उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से सूत्र रूप में श्रीकृष्ण जी महाराज ने धर्म-ज्ञान-वैराग्य और ऐश्वर्य की जो परिभाषा दिया है, वह अपने आप में पूर्ण है । मगर सूत्र रूप में होने के नाते सभी पाठक जनों से उसे समझ पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है और कोई चीज समझ में न आने का अर्थ उसका गलत होना नहीं है ।

स्वामी विवेकानन्द जी ने भी ‘धर्म’ की परिभाषा को अपने ‘मेरे गुरुदेव’ नामक पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 18 के दूसरे पैरा में दिया है–

‘मनुष्य को परमेश्वर प्राप्त करना चाहिए, परमेश्वर का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए तथा उससे बातचीत करनी चाहिए–यही ‘धर्म’ है ।’ (यथार्थता हेतु ईश्वर के स्थान पर परमेश्वर प्रतिस्थापित)

स्वामी विवेकानन्द जी ने जो उपर्युक्त परिभाषा दिया है, उसमें कुछ भ्रामकता है । अर्थ और भाव तो बिल्कुल ही सत्य है मगर जानकारी और शब्द भ्रामकता को प्रदर्शित कर दे रहे हैं । जैसे स्वामी विवेकानन्द की स्थिति आत्मामय जीव प्रधानता की थी अर्थात् कभी-कभी आत्मामय और बराबर जीव की स्थिति में रहा करते थे। प्राय: जितने आत्मामय जीवधारी होते हैं, वे भी नाजानकारी और भूल-भ्रम के कारण आत्मा को ही परमात्मा, ईश्वर को ही परमेश्वर, ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह, नूर-सोल-स्पिरिट को ही खुदा-गॉड-भगवान, पतनोन्मुख सोऽहँ–भ्रामक शिवोऽहँ–ऊर्ध्वमुखी हँसो- -स: ज्योति रूप शिव शक्ति को ही परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अद्वैत्तत्त्वं मान बैठते हैं । यह स्थिति आदिम काल से वर्तमान तक के सभी योगी-साधक तथा अध्यात्मवेत्ताओं की ही रही है और है भी। इसी के अन्तर्गत स्वामी विवेकानन्द भी आ जाते हैं । इसीलिए ‘धर्म’ की परिभाषा में इन्होंने परमेश्वर के जगह पर ईश्वर का प्रयोग कर दिया है ।

आप पाठक बन्धुओं को योगी-योगेश्वर तथा तथाकथित भगवानों आदि-आदि आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं और तथाकथित गुरुओं-सद्गुरुओं आदि के द्वारा दिग्भ्रमित कर-करा दिया गया है कि जीव-आत्मा और परमात्मा अथवा जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा जीव-ब्रम्ह और परमब्रम्ह अथवा रूह-नूर और अल्लाहतआला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-शिवोऽहँ- हँसो-स: ज्योति; दिव्य ज्योति रूप शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अलम् रूप गॉड रूप अद्वैत्तत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान तीनों को ही एक ही बता कर वास्तव में अपने जानकारी एवं नासमझदारी का और अपने मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्या अहंकार का ही परिचय दिए हैं और दे भी रहे हैं, मगर सामान्य जनमानस तो यह समझ पाता नहीं और इन लोगों के भरमाने-भटकाने में भ्रम-भटककर तीनों; जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा रूह-नूर और अल्लातऽला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-हँसो ज्योति-शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् को एक ही मान-मनवा कर ‘परमसत्य रूप वास्तविक सत्य’ और उनके यथार्थत: ज्ञान से वंचित कर-करा दिया जा रहा है।

आप सत्यान्वेषी ज्ञानाभिलाषी बन्धुओं को निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से इन तीनों के नाम-रूप-स्थान- गुण-कर्म-प्रभाव -लीला भाव आदि को पृथक्-पृथक् रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन एवं यथार्थत: जानने परिचय-पहचान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। ये उपर्युक्त तीनों ही तीन हैं और पृथक्-पृथक् हैं, न कि एक ही ।

वास्तव में हमारा इन उपर्युक्त तथाकथित भगवानों -सद्गुरुओं आदि महानुभावों से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं है और न ही किसी प्रकार के लेनी-देनी का टकराव या झगड़ा ही है । हाँ, उनसे टकराव अथवा झगड़ा अवश्य है जो असत्य-अधर्म-ढोंग-पाखण्ड आदि-आदि वाले रहते हुए अपने को सत्य-धर्म और वास्तविक ‘तत्तवज्ञान’ दाता अथवा भगवद् ज्ञान दाता होने की घोषणा करते हैं। जैसे कि बताते-जनाते हैं—नूर-सोऽहँ-शिवोऽहँ-ह्ँसो-ज्योति की आध्यात्मिक अथवा साधनात्मक क्रियाओं को यह घोषित करते-कराते हैं कि यही ‘तत्त्वज्ञान’ अथवा भगवद् ज्ञान, अथवा अद्वैत्तत्त्व ज्ञान है जबकि यह बिल्कुल गलत बात है। ऐसे लोगों के असत्य-अधर्म आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड का पर्दाफास करना इनके वास्तविकता को समाज में उजागर करना तथा इनके गलत तथ्यों के जगह पर परमसत्य रूप वास्तविक सत्य को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करना या रखना और प्रत्येक जिज्ञासु को सत्य प्रधान बनाना और बनाए रखना ही हमारा उद्देश्य अथवा लक्ष्य है जिसका परिपालन करना-कराना ही हमारा कर्तव्य है और हम अपने कर्तव्य पालन में लगे भी हैं। अब हमारे इस कर्तव्य पालन करने में इन उपर्युक्त तथाकथित महानुभावों अथवा इनके अनुयायियों को अपना अथवा अपने गुरुदेव का पर्दाफास होते हुए अपमान और दु:ख-कष्ट ही होता हो तो आखिरकार हम क्या करें? क्या हम इनके असत्य- अधर्म और मिथ्याज्ञानाभिमान- मिथ्यावादिता रूप आडम्बर- ढोंग-पाखण्ड के वास्तविकता को जानते हुए भी उन्हें सत्य स्वीकार कर लें? ऐसा तो मेरे वश का नहीं! मेरे वश का कदापि नहीं, क्योंकि असत्य-अधर्म विनाशक और सत्य-धर्म संस्थापक एवं संरक्षक होने-रहने के कारण मुझसे ऐसा हो ही नहीं सकता। वास्तविकता तो यह है कि जीव, ईश्वर और परमेश्वर आदि तीनों की जानकारी तो इन्हें होती नहीं, प्राय: शरीर से हटकर मात्र ज्योति को ही कुछेक जान-देख पाते हैं, हालाँकि इनमें से अधिकतर यह भी समझ नहीं पाते कि साधनात्मक ध्यान के अन्तर्गत जिस ज्योति का दर्शन करते हैं, वह पंच पदार्थ तत्वों की है अथवा आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट की । यदि ये शरीर और ज्योति मात्र, दो को ही मान-जान पाये हैं जिसे चेतन दिव्य-ज्योति, चेतन-दिव्य-ज्योति, चेतन-दिव्य-ज्योति कहकर गुण गाते हैं और जगत् सहित शरीर को जड़ कह-कह कर निन्दा करते हैं तो इनके दृष्टि में तो जड़-चेतन ब्रम्हाण्ड में दो ही रूप हैं।

ये उपर्युक्त योगी-साधक-अध्यात्म वाले जगत् सहित शरीर को जड़ तथा जीव-ईश्वर-परमेश्वर आदि तीनों उपाधियों वाले को चेतन ज्योति है– ऐसा ही नाजानकारी एवं नासमझदारीवश मानने वाले हैं। इनके दृष्टि में आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह तो चेतन है ही, बस यही चेतन ही जीव और परमेश्वर भी हैं अर्थात् जीव-ईश्वर और परमेश्वर अथवा रूह-नूर और अल्लाहतआला अथवा सेल्फ-सोल एण्ड गॉड अथवा नूर-सोऽहँ-हँसो-ज्योति-शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् तीनों ही एक ही चेतन के विभिन्न नाम-उपाधियाँ हैं । ये लोग समझ ही नहीं पाते कि जीव और परमेश्वर अथवा रूह और अल्लातऽला अथवा सेल्फ और गॉड दोनों ही इस आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट से भिन्न-भिन्न हैं अथवा पृथक्-पृथक् हैं । उपर्युक्त तथाकथित महानुभाव लोग शरीरस्थ जीवात्मा रूप हँस को ही परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह-खुदा-गॉड आत्मतत्त्वम्

शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् भी स्वयं तो मान बैठते ही हैं, अनुयायियों को भी प्रभावी रूप से मनवाने लगते हैं और उपनिषद्-गीता-रामायण आदि से अपने पक्ष वाला-काट वाला (सत्य वाला नहीं) उदाहरण भी तुरन्त पेश कर देते हैं कि–

एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये

स एवाग्नि:सलिले सन्निविष्ट: ।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति

नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/15)

व्याख्या- इस ब्रम्हाण्ड के बीच में जो एक प्रकाश स्वरूप परमब्रम्ह-परमेश्वर (यहाँ हंस: को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमेश्वर नहीं है। प्रकाशमय हंस परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर से प्रकट और पृथक् होता रहता है । वास्तव में वह परमतत्त्वम् रूप ही परमेश्वर है, यह प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है । ऐसा आगे के मन्त्र में देखने को मिलेगा।) है, वही जल में स्थित अग्नि है उसे जानकर ही मृत्यु रूप संसार समुद्र से सर्वथा पार हो जाता है; दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है ।

नवद्वारे पुरे देही हँसो लेलायते बहि: ।

वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/18)

व्याख्या- सम्पूर्ण स्थावर और जंगम जीवों के समुदाय रूप इस जगत् को अपने वश में रखने वाले वे प्रकाशमय परमेश्वर (यहाँ भी हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमेश्वर नहीं है । यह विशुध्दत: ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है । वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है।) दो ऑंख, दो कान, दो नासिका, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ– इस प्रकार नौ दरवाजों वाले मनुष्य शरीर रूप नगर में अन्तर्यामी रूप से स्थित हैं और वे ही इस बाह्य जगत् में भी लीला कर रहे हैं ।

श्वेताश्वतरोपनिषद् के उपर्युक्त मन्त्रों को दिखलाकर कि हँसो प्रकाश स्वरूप परमात्मा और अर्थ-व्याख्या में हँस के स्थान पर प्रकाश स्वरूप परमात्मा उल्लिखित किया है और प्राय: यही मान्यता समस्त तथाकथित भगवानों सद्गुरुओं-आध्यात्मिक गुरुओं, सन्त-महात्मनों की भी आदिम काल से रही है और वर्तमान में भी है, जबकि इसी श्वेताश्वतरोपनिषद् के अन्तर्गत उन मन्त्रों को ये महानुभाव लोग अपने शिष्यों एवं अनुयायियों को नहीं बताते-दिखाते अथवा उनसे छिपा लेते हैं जिन मन्त्रों में हँसों को जीवात्मा मात्र कहकर उल्लिखित किया गया है और अविनाशी चेतन आत्मा (ईश्वर या ब्रम्ह) से भी पृथक्, परे, उत्तम और इसका मालिक-शासक परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह होता है । उन मन्त्रों को प्राय: ये लोग छिपा ही लेते हैं । यदि यहाँ पर यह कहा जाय कि अपने शिष्यों-अनुयायियों को ये धोखा नहीं देते हैं तो एक ही उपनिषद् गीता-रामायण- बाइबिल-कुर्आन आदि के वे मन्त्र-श्लोक-उध्दरण आदि तो इनको याद होते हैं और प्रमाण में दिखलाते हैं जो इनके अनुकूल पड़ता है और जहाँ इनके प्रतिकूल पड़ता है वे इन्हें याद ही नहीं होते अथवा दिखलाई ही नहीं देते हैं ! क्या इसे मान लिया जाय ? नहीं, ऐसा कदापि सम्भव नहीं । आप स्वयं उन प्रमाणों को देखे-पढ़ें-ज़ानें और समझते हुये निर्णय लें । आप के लिये हम उन्हें यहाँ उल्लिखित कर रहे हैं–

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते

अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे ।

पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा

जुष्टस्ततस्तेनामृत्तात्त्वमेति ॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/6)

व्याख्या– जो सबके जीवन निर्वाह का हेतु है और जो समस्त प्राणियों का आश्रय है, ऐसे इस जगत् रूप ब्रम्हचक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही विराट शरीर रूप संसार चक्र में यह जीवात्मा (ह्ँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है । (श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 6/15 और 3/18 में हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कहा गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है परमेश्वर नहीं है । यह विशुध्दत: ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्ववम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है। यहाँ पर ऐसे उस हँस रूप जीवात्मा को परमब्रम्ह-परमात्मा द्वारा इस संसार चक्र में घुमाया जाना बताया गया है ।(जब तक यह जीवात्मा (ह्ँसो) इसके संचालक (परमात्मा) को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाता, अपने को उनका प्रिय नहीं बना लेता, तब तक इस जीवात्मा (हँसो) का इस चक्र से छुटकारा नहीं हो सकता । जब यह जीवात्मा (हँसो) अपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक्-पृथक् जान-समझ लेता है कि उन्हीं के घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्हीं की कृपा से छूट सकता हूँ, तब वह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है । (कठोपनिषद् 1/2/23 और मुण्डकोपनिषद् 3/2/3 में भी इसी प्रकार का वर्णन है।) फिर तो वह अमृत ‘तत्त्वम्’ को प्राप्त हो जाता है,। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट जाता है । परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है ।

द्वे अक्षरे ब्रम्हपरे त्वनन्ते

विद्याविद्ये निहिते यत्रा गूढे ।

क्षरं त्वविद्या ह्ययमृतं तु विद्या

विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ।,

(श्वेताश्वतरोपनिषद्5/1)

व्याख्या– परमेश्वर, ब्रम्ह से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है। अपनी माया के पर्दे में छिपा हुआ है, जो सीमा रहित और अविनाशी है अर्थात् जो देश-काल से सर्वथा अतीत है तथा जिनका कभी किसी प्रकार से विनाश नहीं हो सकता तथा जिन परमात्मा में अविद्या और विद्या –दोनों विद्यमान रहते हैं, वे ही पूर्णब्रम्ह पुरुषोत्तम हैं । इस मन्त्र में परिवर्तनशील घटने-बढ़ने वाले और उत्पत्ति विनाशशील-क्षरतत्त्व को तो अविद्या नाम से कहा गया है, क्योंकि वह जड़ है, उसमें विद्या का सर्वथा अभाव है । उससे भिन्न जो अविनाशी कूटस्थ जीवात्मा है, उसको विद्या के नाम से कहा गया है, क्योंकि वह चेतन है, विज्ञानमय है। उपनिषदों में जगह-जगह उसका विज्ञानात्मा के नाम से भी वर्णन आया है । यहाँ श्रुति में स्वयं ही विद्या और अविद्या की परिभाषा कर दी गयी है। अर्थान्तर की कल्पना अनावश्यक है । जो इस अविद्या नाम से कहे जाने वाले क्षर और विद्या नाम से कहे जाने वाले अक्षर– दोनों पर शासन करते हैं, दोनों के स्वामी हैं, दोनों जिनकी प्रकृतियाँ अथवा शक्तियाँ हैं, वे परमेश्वर इन दोनों से अन्य —सर्वथा विलक्षण और श्रेष्ठ हैं ।

श्रीमद्भगवद् गीता में भी कहा है-

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥

(गीता 15/16 )

अर्थ–इस संसार में नाशवान एवं अविनाशी ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ।

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत : ।

यो लोकत्रायमावृत्य बिभर्त्यव्यय परमेश्वर: ॥

(गीता 15/17 )

अर्थ–इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों को घेर करके सबका धारण-पोषण करता है एवं ‘परमात्मा-परमेश्वर’ नाम से जाना जाता है ।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥

(गीता 15/18)

अर्थ–क्योंकि ‘मैं’ (परमपिता परमात्मा) नाशवान् जड़ वर्ग ;क्षर जगत् से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीव-आत्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिध्द हूँ ।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥

(गीता 18/55)

अर्थ–उस पराभक्ति के द्वारा जिज्ञासु भक्त मुझ परमात्मा को, ‘मैं’ जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा का वैसा ही ‘तत्त्व’ से जान लेता है, तथा उस भक्ति से मुझ को ‘तत्त्व’ से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ।

इन्द्र्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: ।

मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ॥

महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: ।

पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गति: ॥

(कठोपनिषद् 1/3/10-11)

अर्थ–इन्द्रियों से श्रेष्ठ शब्दादि विषय हैं, विषयों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुध्दि और बुध्दि से भी अत्यन्त श्रेष्ठ और बलवान महान् आत्मा है । उस आत्मा से भी बलवती भगवान की मायाशक्ति; आदिशक्ति है और उस माया शक्ति से भी श्रेष्ठ व परे वह परमप्रभु परमेश्वर है जिससे श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी और कोई भी नहीं है, वही सबका परम अवधि और वही परम गति है ।

इन उपर्युक्त सारे तथ्यों और उदाहरणों के आधार और माध्यम से आप पाठक जिज्ञासु बन्धुओं को प्रारम्भिक जानकारी-समझदारी तो हो ही जानी चाहिए कि वास्तव में ”धर्म” क्या है । ‘धर्म’ कोई कपोल-कल्पित अथवा साम्प्रदायिक वर्ग-संघर्ष जैसे घृणित कोई बात नहीं अपितु सम्पूर्ण की सम्पूर्णतया भरा-पूरा परमसत्य रूप एक ब्रम्हाण्डीय जीवन विधान है ।