॥ श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् पुरश्चरण साधना विधि ॥
(प्राचीन परम शिवभक्त गंधर्व पुष्पदन्तकृत स्तोत्र)
🔱 १. पुरश्चरण क्यों करें?
शिवमहिम्नस्तोत्रम् का जाप केवल स्तवन नहीं, भक्ति, ब्रह्मज्ञान और शिवतत्त्व की सिद्धि का महान साधन है। पुरश्चरण से:
उद्देश्य | फल |
---|---|
आत्मिक शुद्धि | चित्त, मन, वाणी की पवित्रता |
शिव कृपा | आयु, आरोग्य, आय, ऐश्वर्य |
समस्त दोष शांति | पाप, ग्रहबाधा, पितृदोष शमन |
मोक्षमार्ग में प्रवेश | शिवतत्त्व का बोध |
पारिवारिक कल्याण | सुख-शांति और संतान सौभाग्य |
🔢 २. पुरश्चरण संख्या
शिवमहिम्नस्तोत्र में ४३ श्लोक हैं। पाठ की संख्या निम्नानुसार हो सकती है:
साधना स्तर | पाठ संख्या | अवधि सुझाव |
---|---|---|
लघु | १०८ बार | ११ दिन में |
मध्यम | १००८ बार | २१–४० दिन |
पूर्ण | ११,००० बार | ४०–८४ दिन |
उच्च | १,२५,००० पाठ | १०८ दिन या महाशिवरात्रि-नवरात्र संयोजन साधना |
📌 एक पाठ = संपूर्ण ४३ श्लोकों का एक बार पाठ।
अनुष्ठान विधि के अनुसार एक पाठ ~12–15 मिनट लेता है।
📍 ३. स्थान, समय, पात्रता
विषय | विवरण |
---|---|
स्थान | एकांत, शांत, पवित्र स्थान; शिवलिंग समीप या घर में पूजन कक्ष |
दिशा | पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें |
समय | ब्रह्ममुहूर्त (सुबह ४–६ बजे) सर्वोत्तम; न हो तो संध्या भी |
वार प्रारंभ | सोमवार, प्रदोष, पूर्णिमा, या महाशिवरात्रि |
पात्रता | ब्रह्मचर्य पालन, सात्त्विक आहार, मानसिक/शारीरिक पवित्रता आवश्यक |
🌸 ४. साधन-सामग्री
- शिवलिंग/शिव यंत्र/शिव चित्र
- बेलपत्र, जल, दूध, शहद, अक्षत, धूप-दीप
- भस्म या चंदन
- रुद्राक्ष माला (१०८ दानों की)
- आसन – कुश/कंबल
- दीप – घी का दीपक अनिवार्य
- नैवेद्य – फल, दूध, पंचामृत या मिष्ठान्न
🪔 ५. दैनिक साधना विधि (प्रत्येक दिन)
🔰 १. संकल्प:
मम आत्मशुद्ध्यर्थं, शिवकृपाप्राप्त्यर्थं, रोग-शत्रु-दारिद्र्य-निवारणार्थं,
शिवतत्त्वप्रकाशार्थं च, शिवमहिम्नस्तोत्रस्य (उदा. १००८) पाठानां
पुरश्चरणं करिष्ये ॥
जल लेकर संकल्प करें।
🧘♂️ २. ध्यान / पूजन
- पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन
- शिव ध्यान:
ध्यायामि शुद्धस्फटिकाभकाशं, त्रिनेत्रं पञ्चवक्त्रं दशबाहुमीशम्।
नागेन्द्रभूषं वृषभारूढमीशं, विश्वाधिपं निर्मलमक्षरं च॥
📖 ३. मुख्य पाठ: शिवमहिम्नस्तोत्रम्
🔸 “महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी…” से प्रारंभ करें
🔸 माला की सहायता से नियत संख्या में पाठ करें
🔸 शिव बीजमंत्र जोड़ना अत्युत्तम होगा:
ॐ नमः शिवाय ॥ या
ॐ ह्रीं नमः शिवाय ॥ (यदि तांत्रिक भक्ति हो)
🙏 ४. समाप्ति
- शिव की आरती करें (जैसे – “ॐ जय शिव ओंकारा…”)
- पुष्पांजलि, नमस्कार, क्षमा प्रार्थना:
यदक्षरं प्राप्तमत्र दोषं, तत्सर्वं क्षम्यतां शम्भो।
प्रसन्नो भव मे नाथ, त्राहि त्राहि महेश्वर॥
🕉 ६. पूर्णाहुति/समापन (पुरश्चरण के अंत में)
विधि | विवरण |
---|---|
हवन | शिव गायत्री / पंचाक्षरी मंत्र से १०८ आहुतियाँ (घी, तिल, जौ, बेलपत्र) |
तर्पण | जल+तिल से शिव, ऋषि, मातृकाओं का तर्पण |
मार्जन | जल से स्वयं पर छिड़काव |
भोजनदान | ब्राह्मण, साधक, गऊ या किन्नर भोज |
दक्षिणा+भक्ति | यथाशक्ति वस्त्र, दक्षिणा आदि अर्पण |
🧾 ७. साधना ट्रैकर उदाहरण:
अवधि | प्रति दिन पाठ | कुल | समय |
---|---|---|---|
११ दिन | १० पाठ | १०८ | ~१.५ घंटे |
२१ दिन | ४८ पाठ | १००८ | ~२ घंटे |
४० दिन | २५ पाठ | १००० | ~१.५ घंटे |
८४ दिन | १२ पाठ | १००८ | ~३०–४५ मिनट |
📌 ८. विशेष बिंदु
- सोमवार, प्रदोष या महाशिवरात्रि प्रारंभ दिन सर्वोत्तम
- “ॐ नमः शिवाय” के साथ संयुक्त पाठ करने पर शक्तिशाली फल
- रुद्राभिषेक के साथ समन्वित हो तो फल अनंतगुणित
- यथासंभव शुद्धता और मौन पालन करें
📜 निष्कर्ष:
शिवमहिम्नस्तोत्रम् पुरश्चरण, शंकर को शब्दों में बाँधने का प्रयास है। जो इसे श्रद्धा से करता है —
“स एव दुर्गाणि जयंति नान्ये शिवं विना”
— वही संसार के सभी कष्ट पार करता है।
शिव महिम्न स्तोत्रम्
पुष्पदंत उवाच
महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः॥
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिमाणावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः॥1॥
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो:।
रतदव्यावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधिगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥2॥
स्तवब्रह्मन्किवागपि सुरगुरोविस्मय पदम्।।
मम त्वेतां वाणों गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥3॥
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासुतनुषु ॥
अभव्यानामस्मिन्वरद रमणीयामरमणीम्।
विहन्तु व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥4॥किमीहः किङ्कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम्।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च॥
अतक्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः।
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः॥5॥
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति॥
अनीशो वा कुर्याद्भुवनजनने कः परिकरो।
यतोमन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥6॥
प्रभिन्न प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च॥
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां।
नृमाणेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥7॥महोक्षः खट्वांग म्परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालंचेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्॥
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भ्द्ध प्रणिहिताम्।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।। 8।।
परोधौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये॥
समस्तेऽप्येतस्मिन्पुरमथन तैविस्मित इव।
स्तुवज्ञ्जिद्देमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।
परिच्छेत्तु यातावनलमनलस्कन्धवपुषः॥
ततोभक्ति श्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्।
स्तयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।अयत्नादापाद्यत्रिभुवनमवैरव्यतिकरम्।
दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्॥
शिरः पद्मश्रेणोरचितचरणाम्भोरु हबलेः।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर वियस्फूर्जितमिदम् ॥11॥
बलाकैलासेऽपि त्वदधिवसतौविक्रमयतः॥
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलितांगु ष्ठशिरसि।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।12।।
मधश्चक्र बाणः परिजनविधैयस्त्रिभुवनः॥
नतच्चित्रं तस्मिन्वरिवसिरित्वच्चरणयोः।
न कस्याप्युन्नत्यं भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥13॥अकाण्ड: ब्रह्माण्ड क्षयचकितदेवासुरकृपा।
विधेयस्याऽसीद्यस्त्रिनयन विषं संह तवतः ।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपिश्लाघ्यो भुवनभयभगंव्यसनिनः ॥14॥
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। 15।।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्॥
मुहुर्योदौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता॥ 16॥वियद्व्यापीतारागणगुणितफेनोद्गमरुचिः।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते॥
जगद्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः।।17।।
रथांगेचन्द्राकौं रथचरणपाणिः शर इति॥
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।18।।
र्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहर कमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा।।
त्रयाणां रक्षायं त्रिपुरहर जागति जगताम् ॥19॥क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् ।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलतिपुरुषाराधनमृते ॥
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवम् ।
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥20॥
सृवीणामात्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः।।
क्रतुन षस्त्वत्तः क्रतुफल विधानव्यसनिनो।
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः॥ 21॥
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुः पाणेर्यातं दिवमपि सपत्नाकृतममुम्।
त्रसन्तन्तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥22॥स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह वाय तृणवत्।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वापुरमथन पुष्पायुधमपि॥
यदिस्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्ध-घटनाद्।
अवैति त्वामद्धावत वरद मुग्धा युवतयः॥23॥
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु ना मैवमखिलम्।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। 24।।
प्रहष्यद्रोमाणः प्रमदसलिल्लोत्संगितदृशः।।
यदालोक्याह लावं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये।
यधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥25॥त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वंहुतवह।
स्त्वमापरत्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च ॥
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता ब्रिभ्रतिगिरम्।
न विद्मस्तत्तत्वंवयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥26॥
नकाराद्यं र्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥27॥
भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ॥
अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रविचरति देवः श्रुतिरपि।
प्रियायास्मैधाम्नेप्रणिहितनमस्योऽस्मि भवते ॥28॥नमोनेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः॥
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः ॥29॥
प्रबलतम से तत्संहारे हराय नमो नमः ॥
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौमृडाय नमो नमः ।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥30॥
क्व च तव गुणसीमोल्लङ् घिनीशश्ववृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥31॥
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥32॥
ग्रंथित गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकलगुणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो।।
रुचिरमलघुवृत्तेः स्तोत्रमेतच्चकार ॥33॥अहरहरनवद्य धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्य:।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥34॥
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥35॥
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 36॥कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः।
शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।
स्तवनमिदमकार्षीवृदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥37॥
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेतः।।
ग्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥38॥
आसमाप्त मिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्व मीश्वर वर्णनम् ॥39॥
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥40॥तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ॥41॥
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते ॥42॥
स्तोत्रेण किल्विष-हरेण हर-प्रियेण ।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥43॥।। इति श्री पुष्पदंत विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं समाप्तम् ।।