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सत्यव्रत श्रीमहाकालानुग्रही – अमलेश्वर की पावन कथा

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“सत्यव्रत: श्रीमहाकालानुग्रही” – अमलेश्वर की पावन कथा

श्री अमलेश्वर महाकालधाम, खारून नदी तट, प्राचीन काल।

भूमिका:

अमलेश्वर ग्राम में एक निर्धन ब्राह्मण दंपत्ति रहते थे — श्री हरिपाल शास्त्री और उनकी पत्नी सौम्या। वे खंडित पुरोहिती से बड़ी कठिनाई से दो वक्त का भोजन जुटाते। उनका इकलौता पुत्र *सत्यव्रत*, अत्यंत तेजस्वी, धर्मनिष्ठ और बाल्यकाल से ही श्री महाकाल का परम भक्त था।

कथा आरंभ:

एक दिन सत्यव्रत अपने पिता के साथ श्री महाकाल के मंदिर में गया। वहाँ उसने देखा कि कुछ बड़े आचार्य शास्त्रार्थ कर रहे हैं, परंतु वह बालक उनकी बातें नहीं समझ पाया। उसके हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई:

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“हे महाकाल! यदि आप मुझे कृपा करें, तो मैं भी वेद-शास्त्रों में पारंगत हो जाऊँ।”

उसी रात्रि, जब सत्यव्रत मंदिर में सो रहा था, उसे एक अद्भुत स्वप्न हुआ। स्वयं *भगवान श्री महाकाल* प्रकट हुए — विकराल किंतु सौम्य स्वरूप में। उनके नेत्र अग्नि से चमक रहे थे, जटाएं गंगा को धारण किए हुए और हाथ में त्रिशूल!

स्वप्न-संदेश:

“वत्स सत्यव्रत! तू मेरा अर्चक है। आज मैं तुझे वह दिव्य श्रृंगी प्रदान करता हूँ, जिसे कान में धारण करने से तू स्वयं वेद, उपनिषद, व्याकरण, न्याय, तंत्र, गायन, गणित, वास्तु, खगोल सभी विद्याओं में पारंगत हो जाएगा। किंतु इस ज्ञान का उपयोग केवल धर्म और जनकल्याण हेतु करना।”

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भगवान ने श्रृंगी को उसके दाहिने कान में लगाया, और बालक चमत्कृत हो गया।

परिणाम:

अगले ही दिन, सत्यव्रत ने अपनी माता को वेदपाठ कर के सुनाया, संस्कृत में श्लोक रचे, और मूर्छित संगीत गा कर दिखाया। गांववाले आश्चर्यचकित रह गए। कुछ वर्षों में वह बालक इतना विद्वान हुआ कि:

राजा धनराज ने उसे राजपुरोहित बनाया।
काशी, उज्जयिनी, तक्षशिला के पंडितों से वह शास्त्रार्थ में विजयी हुआ।
अमलेश्वर में उसने एक ‘महाकाल विद्यापीठ’की स्थापना की।

श्लोक – स्तुति श्री महाकाल की:

सत्यव्रतोऽहममलेशपुराधिवासी,
शम्भोः कृपां लभ्य वचोविदुषां वरिष्ठः।
यो श्रृंगिकेण श्रवणे विधिना प्रसूतः,
साक्षात् शिवाय नम एष कृतार्थतायै॥**

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इतिहास में प्रमाण:

“अमलेश्वर-कल्पतंत्र” नामक एक ग्रंथ में “सत्यव्रत महाशास्त्री” का उल्लेख मिलता है।
खारून नदी के प्राचीन तट पर एक पुरानी लिपि में ‘श्रृंगी विद्यावान’ अंकित है, जिसे सत्यव्रत की कथा से जोड़ा जाता है।