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सम्राट लक्ष्मिकार्ण का जीवन महाकालधाम अमलेश्वर से अभिन्न था

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वीर लोकमणि: कलचुरी सम्राट लक्ष्मिकार्ण की कथा

संवत् 1098 (ई. सन् 1041) — मध्य भारत की कलचुरी वंशीय धरा पर एक नूतन नक्षत्र उदित हुआ, जिसका नाम था लक्ष्मिकार्ण। महाकाल की नगरी उज्जैन से लेकर गोदावरी तट तक फैले उनके साम्राज्य में वीरता, संस्कृति और धर्म की ज्योति उज्ज्वल हो उठी।

बाल्य से पराक्रम तक
लखनऊपुरी (आज का खड़गपुर, छत्तीसगढ़) में जन्मे लक्ष्मिकार्ण बचपन से ही मेष राशि के गुणों से युक्त थे—दृढ़निश्चयी, साहसी और न्यायप्रिय।
केवल 15 वर्ष की अवस्था में माता-पिता का सान्निध्य खोकर सिंहासन संभाला।
प्रथम चुनौती थी—क्षेत्रीय नदियों के किनारे बसे बुनकरों पर पड़ रही लूट की तक्रार।

“धर्मस्य रक्षा कर्तव्यः”
— यही श्लोक उन्होंने जल-परिषद में उद्घोषित किया।

वे स्वयं घुड़सवार टुकड़ी लेकर निकले, लुटेरों का संहार किया, और स्वयं आर्थिक सहायता देकर बुनकरों को पुनः उत्साह से भर दिया।

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कन्नौज का अभियान
भारत-महात्मा भोजराज की प्रभुता रेखा कन्नौज पर छाई थी।
लक्ष्य था—उत्तर की शक्तियों से भिड़कर कलचुरी साम्राज्य का विस्तार।

  • रणनीति: घुड़सवारों की कुशल टोली, मातहट बाजुओं से ढके शिवजूते, और अमलेश्वर धाम के पवित्र पिंडदान से प्राप्त विजय तिलक।
  • संकेत: युद्ध आरंभ से पूर्व उन्होंने प्रतिज्ञा की—
    “यदि विजय न मिली, तो मैं स्वयं महादेव मठ में उपवास रहूँगा।”

युद्धभूमि में लाक्षाग्रीव रथ तथा “वृषभवाहन” ध्वज के नीचे उनकी सेना ने अपूर्व पराक्रम दिखाया।
अल्पनगरी कन्नौज के तत्कालीन राजा को पराजित कर, लक्ष्मिकार्ण ने उत्तर भारत में कलचुरी प्रभाव स्थापित किया।

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संस्कृति के संरक्षक
सम्राट लक्ष्मिकार्ण केवल रणभूमि के नायक नहीं थे, वे साहित्य-संस्कृति के वाड्मयाधिपति भी थे।

  1. माटखा-खण्ड:
    उन्होंने उज्जैन के नागेश्वर मंदिर का विस्तार कराया, जहाँ त्रिमूर्ति शिलालेखों पर उनकी वंशावली अंकित है।
  2. गीत-भव:
    महाकवि कालिदास के प्राचीन ग्रंथों का सुदृढ़ संरक्षण किया।
    महाकवि गोविन्दाचार्य को राजप्रशस्ति प्रदान कर नवपुराण रचना का आदेश दिया।
  3. विद्या और विज्ञान:
    खगोलशास्त्र के प्रणेता वाराहमिहिर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, उन्होंने “गोपिनाथ ज्योतिष पीठ” की स्थापना की।

महाकाल अनुग्रह और अंतिम वर्ष
सम्राट लक्ष्मिकार्ण का जीवन महाकालधाम अमलेश्वर से अभिन्न था।
वर्ष 1108 (ई. सन् 1051) में चंद्रग्रहण के दौरान अमावस्या की अंधकारपूर्ण रात्रि में
एक अज्ञात रक्षकदूत ने मंदिर मूर्ति की रक्षा की।
उसी समय सम्राट को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई।

“शिवाय नमः — यः रक्षकः शिवः सदा शरणिम्…”

ज्वरग्रस्त समय में उन्होंने अपना अधिकार पुत्र त्रैलोक्यमल्ल को सौंपा,
और स्वयं गुहाना में कल्याणकारी वृक्षारोपण के लिए ध्यानस्थ हुए।

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विरासत
आज भी उज्जैन और अमलेश्वर के बीच स्थित “महाकाल श्रृंखला” पर
“लक्ष्मिकार्ण स्तम्भ” देखा जा सकता है—
एक प्राचीन पत्थर का शिलालेख, जिस पर अंकित है:

“युद्धेन किं व राजस्थानं, धर्मेण हि सन्ति लोकाः।
यत्र धर्मः तत्र कल्याणं, कलचुरयोर्वा यशः स्थिरः।”

उपसंहार

सम्राट लक्ष्मिकार्ण की कथा सिखाती है कि
“पराक्रम और परोपकार” के समन्वय से ही राष्ट्र उन्नति के शिखर को प्राप्त करता है।