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वास्तुशास्त्र में दिशाओं का महत्व

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विज्ञान में चार दिशाओं उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। इसके अलावा मूल दिशाओं के मध्य की चार दिशाओं को चार विदिशाएं ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश-पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि ग्रह नौ हैं। ये ग्रह विभिन्न दिशाओं के स्वामी हैं।
सूर्य: सितो भूमिसुतोऽदय राहु: शनि: शशीज्ञश्च बृहस्पतिश्च प्राच्यादितो दिक्षुविदिक्षुचापि दिशामधीशा: क्रमत: प्रदिष्टा॥ (मुहूर्त चिंतामणि)
वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा:
वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए. यह सुख और समृद्धि कारक होता है. इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं. परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं. उन्नति के मार्ग मे भी बाधा आति है। इस दिशा में भवन शास्त्र के अनुसार उचित प्रकार से बना हो, इस दिशा का विकिरण घर में आता हो, कोई दोष नहीं हो तो उस घर में निवास करने वाले व्यक्तियों को उत्तम स्वास्थ्य, धन-धान्य की प्राप्ति होती है। निर्माण दोषपूर्ण होने पर व्यक्ति इनसे वंचित रहता है। रोगी होने की आशंका अधिक रहती है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा:
घर के दक्षिण की दिशा मंगल की है, इस दिशा के स्वामी यम देव हैं. इसका सबसे अधिक प्रभाव गृहस्वामी पर होता है, उसकी स्वास्थ्य व प्रगति मुख्यत: इसी दिशा पर आधारित है। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है. दक्षिण भाग में ऊँचा रहने वाला घर सम्पूर्ण वास्तु के नाम से अभिहित किया जाता है। वह मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। दक्षिण दिशा की ओर बढ़ाया हुआ वास्तु मृत्युकारी होता है, इसमें संदेह नहीं है।
वास्तुशास्त्र में पश्चिम दिशा:
पश्चिम दिशा का स्वामी शनि है। इसका प्रभाव बंधु, पुत्र, धान्य तथा उत्कृष्ट उन्नति पर अधिक होता है।
वास्तुशास्त्र में उत्तर दिशा:
उत्तर दिशा का स्वामी बुध है। यह दिशा विजय, धन व वृद्धि को प्रभावित करती है। उत्तर की किरणें घर में सीधे प्रवेश करें तो उसमें निवास करने वाले उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए लक्ष्य प्राप्त करते हुए सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
अन्य दिशाएं:
* नैऋत्य दिशा राहु की है। यह दोषपूर्ण होने पर कलह कराती है तथा पितृ का स्थान होने से वंशवृद्धि को प्रभावित करती है।
* पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी चंद्रमा है। चंद्रमा चंचलता का, मन का, गति का प्रतीक है। यह दिशा नौकर, वाहन, गमन तथा पुत्र को प्रभावित करती है।
* पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी बृहस्पति है। घर का यह भाग साफ-सुथरा तथा अनुकूल होने पर सभी कामनाओं की पूर्ति करते हुए आनंद देता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि घर का प्रत्येक हिस्सा महत्वपूर्ण है तथा अलग-अलग दिशा अलग-अलग बातों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। इसलिए घर का प्रत्येक भाग उचित रूप से बना होना चाहिए। पूर्व तथा घर के चारों ओर तथा द्वार के सम्मुख और पीछे कुछ भुमि को छोड़ देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है; क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है।
ईशानकोण में सूत्रपात और अग्निकोण में स्तम्भारोपण होता है। स्तम्भ उत्तर या पूर्व की ओर ढालू होना चाहिये, अस्पष्ट दिशा में नहीं कराना चाहिये। इस बात का ध्यान भवन, स्तम्भ, निवासगृह तथा द्वार निर्माण के समय भी स्थापन रखना चाहिये; क्योंकि दिशा की अस्पष्टता से कुल का नाश हो जाता है।
घर के किसी अंश को पिण्ड से आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशा में बढ़ावे। पूर्व दिशा में बढ़ाया गया वास्तु सर्वदा वैर पैदा करता है, जो वास्तु पश्चिम की ओर बढ़ाया जाता है, वह धनक्षयकारी होता है तथा उत्तर की ओर बढ़ाया हुआ दु:ख एवं सन्ताप की वृद्धि करता है। जहाँ अग्निकोण में वृद्धि होती है, वहाँ वह अग्नि का भय देने वाला नैर्ऋत्यकोण बढ़ाने पर शिशुओं का विनाशक, वायव्य कोण में बढ़ाने पर वात-व्याधि- उत्पादक, ईशान कोण में बढ़ाने पर अन्न के लिये हानिकारक होता है। गृह के ईशान कोण में देवता का स्थान और शान्तिगृह, अग्निकोण में रसोई घर और उसके बगल में उत्तर दिशा में जलस्थान होना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष सभी घरेलू सामग्रियों को नैर्ऋत्य कोण में करे। पशुओं आदि के बाँधने का स्थान और स्नानागार गृह के बाहर बनाये। वायव्य कोण में अन्नादिका स्थान बनाये। इसी प्रकार कार्यशाला भी निवास-स्थान से बाहर बनानी चाहिये। इस ढंग से बना हुआ भवन गृहपति के लिये मंगलकारी होता है।
ईशान कोण उत्तर-पूर्व कोना:
उत्तर-पूर्व दिशा को ईशान कोण कहते हैं। इसमें जल तत्व का प्रभाव रहता है। प्लॉट व घर का यह कोना थोड़ा बढ़ा हुआ होना शुभ रहता है। अत: पूजाघर इसी कोण में होना चाहिए। अन्य रचनात्मक कार्य जैसे लेखन आदि भी इस कोण में किए जाएं तो निश्चित रूप से ज्यादा फायदा मिलता है। घर में ऊर्जा का प्रवेश मुख्य दरवाजे से होता है। पूर्व और उत्तर दिशा को उर्जा प्रधान दिशाएँ कहा जाता है। इसीलिए प्रवेश द्वार उत्तर या पूर्व में यदि रखा जाए तो उसमें रहने वाले काम में रूचि लेते हैं। इसी प्रकार घर की पूर्व एवं उत्तर दिशा को खाली रखा जाना चाहिए।
अगर ऐसा संभव न हो तो पूर्व या उत्तर दिशा में रखी वस्तुओं के वजन से लगभग डेढ़ गुना वजन नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) या दक्षिण दिशा में रखा जाना चाहिए क्योंकि नैऋत्य कोण भारी एवं ईशान कोण (पूर्व-उत्तर) हलका होना चाहिए। इसी प्रकार घर की घडिय़ों को हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा में लगाया जाना जाना चाहिए इससे अच्छे समय के आगमन के व्यवधान समाप्त होते हैं। ईशान कोण पवित्र एवं स्वच्छ रखा जाना चाहिए एवं एक घड़ा जल भरकर इस कोने में रखना चाहिए, इसके सत्परिणाम मिलते हैं। घर में उर्जा को बनाए रखने के लिए अनावश्यक घर का मुख्यद्वार खोलकर नहीं रखना चाहिए। उर्जा का संतुलन बनाए रखने के लिए घर के कुल दरवाजों की संख्या सम होना चाहिए। यदि यह संख्या विषम है तो इसके कारण विपरित परिणाम होते हैं। घर में दरवाजों की ज्यादा संख्या अतिरिक्त ऊर्जा पैदा करती है। इसलिए किसी घर में दस या दस के गुणक में जैसे बीस या तीस दरवाजे नहीं होना चाहिए।
घर का मध्य भाग:
घर के मध्य भाग में आकाश तत्व का प्रभाव होता है, जो घर का संतुलन बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह भाग हमेशा खुला रहे एवं छत आकाश के लिए खुली रहे। इस स्थान को ब्रह्म स्थान भी कहा जाता है। यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मनुष्य के शरीर में हृदय। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि पूरे घर में ऊर्जा का प्रसार इसी जगह से होता है। इस जगह को हमेशा साफरखना चाहिए। किसी भी तरह का बेकार या पुराना सामान यहाँ नहीं होना चाहिए। यहाँ पूजा घर भी बनाया जा सकता है। यदि संभव हो तो इस जगह एक तुलसी का पौधा लगाने से भी बेहतर परिणाम मिलते हैं। इस जगह रोशनी और हवा ठीक प्रकार से आती हो इसका ध्यान रखना चाहिए। घर में हमेशा एकता कायम रखने के लिए परिवार के सभी सदस्यों को दिन में कभी भी एक बार इस जगह बैठ कर बातचीत करना चाहिए।
नैऋत्य कोण दक्षिणी-पश्चिमी कोना:
पृथ्वी तत्व का प्रभाव रहता है। यह कोना सबसे ऊँचा होना चाहिए। इस कोने के कमरे का फर्श सभी कमरों से ऊँचा हो। छोटे बच्चे इस कमरे में न सोएँ एवं नौकर को भूल से भी इस कोने का कमरा न दें। नैऋत्य कोण में घर का टॉयलेट, बेडरूम या स्टोर रूम बनाना चाहिए। यह घर का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र होता है। घर का वजनी सामान भी यहाँ रखा जा सकता है लेकिन बेकार सामान यहाँ नहीं रखना चाहिए। इस कोण में घर का मेन गेट नहीं बनाना चाहिए।
आग्नेय कोण उत्तर-पश्चिम कोण:
घर में वायु तत्व का प्रभाव रहता है। घर के मेहमानों का निवास, शौचालय (इस कोने में भी ठीक रहता है) यह कोना बढ़़ा हुआ नहीं होना चाहिए। अग्निकोण का स्वामी शुक्र ग्रह है, यह ग्रह भौतिक सुख व भौतिक उन्नति देता है। यह दिशा शास्त्रानुसार होने पर धन, प्रसिद्धि, भौतिक सुख, इच्छाओं की पूर्ति सुगमता से होती है। घर के इस भाग में गंदगी, कचरा-कूड़ा, शौचालय आदि नहीं होना चाहिए। इसे लक्ष्मी का स्थान भी कहा गया है।