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ज्योतिष के बहुत से मिथको में एक मुझे अष्ट कूट भी लगते है जिसपर खुली बहस होनी चाहिए खासकर हम जब ज्योतिष को विज्ञान मानते हो तो फिर तर्क की कसौटी पर मान्यताओ को कसना चाहिएजहाँ पर १८ गन विवाह का न्यूनतम पैमाना हो वह २८ और ३२ गुणों में तलाक एक विडम्बना ही है….. नाड़ी की व्याख्या करने वाले बड़े गर्व से इसे संतान की वजह और कभी वैचारिक ऐक्यता की वजह बना कर बहुत से अच्छे समबन्धों को मना कर देते है.…तो वे बताए की यह सिर्फ ब्राम्हणो में ही क्यों ????बाकि जातिओ पर ये असर कारक क्यों नहीं ??????क्या विवाह के मेलापक में जातिगत आधार इसे विज्ञान की जगह मान्यता की श्रेणी में नहीं खड़े कर रहे है ??????इस पर तुर्रा की समाधान कराने से ये दूर भी हो सकते है !!!!! बहुत सारे प्रश्न लोग मुझसे करते है मैं वही प्रश्न ज्यो का त्यों समाज के सामने रख रहा हु फ्यूचर क्लब में आज डाक्टर गीता शर्मा जी छत्तीसगढ़ की मूर्धन्य विदुषी एवं अनुभवि ज्योतिषचार्या के साथ बातचीत हुई जिसका यथा रूप मैं आपके सामने रख रहा हु यह क्लब ज्योतिष के टोटको और मिथको के पड़ताल में जुटा है …… विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है । इस संस्कार मे बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्म नामानुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है । गुण मिलान नही होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्व नही होगी । गुण मिलाने हेतु मुख्य रुप से अष्टकूटों का मिला न किया जाता है । ये अष्टकुट है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, राशि, नाड़ी । विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाडी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है । नाडी जो कि व्यक्ति के मन एवं मानसिक उर्जा की सूचक होती है । व्यक्ति के निजि सम्बंध उसके मन एवं उसकी भावना से नियंत्रित होते हैं । जिन दो व्यक्तियों में भावनात्मक समानता, या प्रतिद्वंदिता होती है, उनके संबंधों में ट्कराव पाया जाता है । जैसे शरीर के वात, पित्त एवं कफ इन तीन प्रकार के दोषों की जानकारी कलाई पर चलने वाली नाडियों से प्राप्त की जाती है, उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी आदि, मध्य एवं अंत्य नाम की इन तीन प्रकार की नाडियों के द्वारा मिलती है । वैदिक ज्योतिष अनुसार आदि, मध्य तथा अंत्य – ये तीन नाडियाँ यथाक्रमेण आवेग, उदवेग एवं संवेग की सूचक हैं, जिनसे कि संकल्प, विकल्प एवं प्रतिक्रिया जन्म लेती है । मानवीय मन भी कुल मिलाकर संकल्प, विकल्प या प्रतिक्रिया ही करता है और व्यक्ति की मनोदशा का मूल्यांकन उसके आवेग, उदवेग या संवेग के द्वारा होता है । इस प्रकार मेलापक में नाडी के माध्यम से भावी दम्पति की मानसिकता, मनोदशा का मूल्यांकन किया जाता है । वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाडी दोष – इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है । यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6+7+8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1+2+3+4+5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । अकेली नाडी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं । इसलिए मेलापक में नाडी दोष एक महादोष माना गया है ।
नाडी दोष :- नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहे हो तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता अन्यता उनमे व्यभिचार का दोष पैदा होने की सभांवना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अंह के कारण सम्बंन्ध अच्छे बन पाते । उनमे विकर्षण कि सभांवना बनती है । परस्पर लडाईझगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है । अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी इस प्रकार की स्थिति मे प्रबल नाडी दोश होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखे । जिस प्रकार वात प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए वात नाडी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है अथवा कफ प्रकृ्ति के व्यक्ति के लिए कफ नाडी के चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाडी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित किया जाता है । तात्पर्य यह है कि लडका-लडकी की एक समान नाडियाँ हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्यों कि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है । इसलिए मेलापक में आदि नाडी के साथ आदि नाडी का, मध्य नाडी के साथ मध्य का और अंत्य नाडी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है । जब कि लडका-लडकी की भिन्न भिन्न नाडी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का द्योतक है । यदि वर एवं कन्या कि नाड़ी अलग -अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है । यदि वर एवं कन्या दोनो का जन्म यदि एक ही नाड़ी मे हो तो नाड़ी दोष माना जाता है ।
१- आदि नाड़ी – अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पुर्वाभाद्रपद
२- मध्य नाड़ी – भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पुर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तरासभाद्रपद
३- अन्त्य नाड़ी – कृतिका, रोहिणी, अश्लेशा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण, रेवती
आदि मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है लेकिन कुछ स्थानो पर चर्तुनाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्र भी प्रचलित है । लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाडी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पडता है । नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यो दिया गया है, इसके बारे मे जानकारी हेतु त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवष्यक है । आदि नाड़ी वात् स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित स्वभाव की मानी गई है । एवं मध्य नाड़ी पित प्रति एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की । यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है । इसका प्रमुख कारण यही है कि वात् स्वभाव के वर का विवाह यदि वात स्वभाव की कन्या से हो तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नही हाती । विवाह के पष्चात उत्पन्न संतान मे भी वात सम्भावना रहती है । इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है । अन्यथा उनमे व्याभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहम्के कारण सम्बंन्ध अच्छे नही बन पाते । उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है । परस्पर लडाई-झगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी गई है । इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमे कामभाव की कमी पैदा होने लगती है । शान्त स्वभाव के कारण उनमे परस्पर सामञ्जस्य का अभाव रहता है । दाम्पत्य मे गलत फहमी होना भी स्वभाविक होती है । नाड़ी होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है । लेकिन नाडी दोष परिहार की स्थिति मे यदि कुण्डली मिलान उत्तम बना रहा है तो विवाह किया जा सकता है ऐसी धारणा है …मगर
समाज में होते दनादन तलाक इस पूरी वर्षो से स्थापित धारणा, पर ही सोचने को मजबूर कर रहे है ,आप कहेंगे की समाज में बदलते परिवेश मान्यताए और कानून इसके लिए दोषी है,पर इससे बात नहीं बनती,बल्कि हमें भी अपने ज्योतिषीय नियमो में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करती है ,जैसे ज्यादातर सामाजिक कानूनो की इन दिनों समीक्षा हो रही है हमे भी एक बार फिर से चिंतन करना होगा, नियमो की पुनः व्याख्या करनी होगी, मैं बहुत जल्दी में कोई निर्णय नहीं लेने को कहता ,अपितु सोचने को जरूर प्रेरित कर रहा हु की आप यदि किसी असामयिक बातो के आधार पर समाज में मुखातिब होते है तो निश्चित जानिए देर सबेर आपको सोचना ही होगा की ये आखिर क्यों ??????????बेहतर है अभी सोच ले !!!!!!!!!!!
१- आदि नाड़ी – अश्विनी, आर्द्रा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पुर्वाभाद्रपद
२- मध्य नाड़ी – भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पुर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पुर्वाषाढा, धनिष्ठा, उत्तरासभाद्रपद
३- अन्त्य नाड़ी – कृतिका, रोहिणी, अश्लेशा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढा, श्रवण, रेवती
आदि मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है लेकिन कुछ स्थानो पर चर्तुनाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्र भी प्रचलित है । लेकिन व्यावहारिक रुप से त्रिनाडी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पडता है । नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यो दिया गया है, इसके बारे मे जानकारी हेतु त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवष्यक है । आदि नाड़ी वात् स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित स्वभाव की मानी गई है । एवं मध्य नाड़ी पित प्रति एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की । यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माना जाता है । इसका प्रमुख कारण यही है कि वात् स्वभाव के वर का विवाह यदि वात स्वभाव की कन्या से हो तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नही हाती । विवाह के पष्चात उत्पन्न संतान मे भी वात सम्भावना रहती है । इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है । अन्यथा उनमे व्याभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है । मध्य नाड़ी को पित स्वभाव की मानी गई है । इसलिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमें परस्पर अहम्के कारण सम्बंन्ध अच्छे नही बन पाते । उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है । परस्पर लडाई-झगडे होकर तलाक की नौबत आ जाती है । विवाह के पश्चात् संतान सुख कम मिलता है । गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव की मानी गई है । इसलिए अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमे कामभाव की कमी पैदा होने लगती है । शान्त स्वभाव के कारण उनमे परस्पर सामञ्जस्य का अभाव रहता है । दाम्पत्य मे गलत फहमी होना भी स्वभाविक होती है । नाड़ी होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है । लेकिन नाडी दोष परिहार की स्थिति मे यदि कुण्डली मिलान उत्तम बना रहा है तो विवाह किया जा सकता है ऐसी धारणा है …मगर
समाज में होते दनादन तलाक इस पूरी वर्षो से स्थापित धारणा, पर ही सोचने को मजबूर कर रहे है ,आप कहेंगे की समाज में बदलते परिवेश मान्यताए और कानून इसके लिए दोषी है,पर इससे बात नहीं बनती,बल्कि हमें भी अपने ज्योतिषीय नियमो में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करती है ,जैसे ज्यादातर सामाजिक कानूनो की इन दिनों समीक्षा हो रही है हमे भी एक बार फिर से चिंतन करना होगा, नियमो की पुनः व्याख्या करनी होगी, मैं बहुत जल्दी में कोई निर्णय नहीं लेने को कहता ,अपितु सोचने को जरूर प्रेरित कर रहा हु की आप यदि किसी असामयिक बातो के आधार पर समाज में मुखातिब होते है तो निश्चित जानिए देर सबेर आपको सोचना ही होगा की ये आखिर क्यों ??????????बेहतर है अभी सोच ले !!!!!!!!!!!