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मन में अहंकार क्यों ? जानें

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मन में अहंकार क्यों ? जानें 

जब मन को किसी गलत विक्षिप्तताओं क्रोध, घृणा, ईष्र्या, लालच में अधिक लंबाई तक खींचा जाता है तो मन में अहंकार पैदा होने लगता है। मन में पहले बड़े अहंकार आने लगते हैं जो कि स्थाई होते हैं। फिर धीरे-धीरे सूक्ष्म अहंकार आने लगते हैं जो कि हमें दिखाई नहीं देते हैं और पता भी नहीं चलता है। ये सूक्ष्म अहंकार हमारे शरीर में चल रही हार्मोनिक क्रियाओं पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं और शरीर की व्यवस्थाओं में बिखराव पैदा करना शुरू कर देते हैं। इस बिखराव के द्वारा शरीर की उपापचीय क्रियाएं गड़बड़ाने लगती हैं और धीवैज्ञानिकोंता है| कैंसर वह कोशिका है जो लगातार बढ़ती रहती है और आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं से अपना पोषण प्राप्त करती रहती है। इस कैंसर कोशिका का शरीर के लिए कोई उपयोग नहीं है।

यह कैंसर कोशिका पूरे शरीर पर आक्रमण कर व्यक्ति को मौत के मुंह तक ले जाती है। इसी प्रकार का एक कैंसर मन में पाया जाता है और वैज्ञानिक मान भी चुके हैं कि शरीर में जो कैंसर हुआ है उसका 80 प्रतिशत कारण मन से है और सत्य भी यही है, कैसा भी कैंसर हो शुरूआत मन से ही होती है। तन का कैंसर हम सभी को दिखाई देता है पर मन का कैंसर शायद खुद को भी दिखाई नहीं देता है। जब मन का कैंसर तन के रूप में प्रकट होने लगता है तब हमें कैंसर दिखाई देता है। क्या मन इतना प्रभावशाली होता है कि वह शरीर पर प्रकट हो जाये- शरीर पर जो भी प्रकटता है वह मन ही है। जैसा मन होता है वैसा ही चेहरा होगा, व्यवहार होगा, आवाज होगी, सब कुछ मन का ही रूप है। मन का व्यवहार हमारे शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म कोशिका पर भी अपना प्रभाव छोड़ता है। मन प्रभावशाली ही नहीं शक्तिशाली भी होता है जोकि किसी भी शारीरिक बीमारी से लड़ने की स्वयं क्षमता पैदा कर सकता है। मन की शक्ति इतनी होती है कि किसी भी शारीरिक बीमारी से लड़ने की स्वयं क्षमता पैदा कर सकती है।

मन की शक्ति इतनी होती है कि वह मस्तिष्क को आज्ञा देकर किसी भी रोग के एंटीजन व एंटीबाडीज के निर्माण की क्षमता विकसित करवा दे। मन का संपूर्ण मस्तिष्क पर एकाधिकार होता है। मन के व्यवहार से मस्तिष्क की सभी क्रियाएं संचालित होती हैं और मस्तिष्क की कार्य प्रणाली शरीर के रूप में प्रकट होती है।

वैज्ञानिक मानते हैं कि मानव के गुणसूत्रों में करीब 3 अरब जीन के जोड़े होते हैं जिनमें से करीब 1 लाख के आस-पास सक्रिय होकर मानव के कार्यों, गुणों संरचना को नियंत्रित करते हैं। इन सभी जीनों के पास अपनी सूचनाएं निहित होती हैं जिनमें उनके कार्य सम्मिलित होते हैं। इन सभी जीनों का निर्धारण न्यूरोन्स (तंत्र कोशिकाओं) के माध्यम से मस्तिष्क के पास होता है। मस्तिष्क यह तय करता है कि किस जीन को कौन सा कार्य करना है और कब करना है और यह सब एक नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत चलता रहता है। जब इस नैसर्गिक प्रक्रिया को विक्षिप्त मन के माध्यम से छेड़ा जाता है तो यह प्रक्रिया गड़बड़ाने लगती है और जीन अपना कार्य बदलकर अन्य कार्य में लग जाते हैं और शरीर बीमार हो जाता है।

मन की विक्षिप्ततायें कैसे रोग पैदा करती है मन की विक्षिप्ततायें ही रोग पैदा करती हैं। जैसे समझें, मन में जब लालच आता है कि मेरे पास अधिक होना चाहिए चाहे वह रूपया हो, मकान हो या कोई वस्तु, जब लालच आता है तो उसके साथ-साथ क्रोध, घृणा व ईष्र्या भी आ जाती है। कारण साफ है लालच तभी तो पैदा होगा जब हमारे पास कम होने की ईष्र्या होगी। जब ईष्र्या होगी तो घृणा भी होने लगेगी। इस घृणा को भरने के लिए मन अधिक की चाह करने लगता है और चाहिए- और चाहिए कितना भी मिल जायेगा बस चाहिये ही चाहिए। यही स्वरूप कैंसर का है। यदि गांठ को पूरी तरह काट दिया तो ठीक नहीं तो उसकी एक कोशिका फिर गांठ बन जाती है।

यही लालच का स्वरूप है। लालच को जड़ मूल से नष्ट कर दिया तो ठीक नहीं तो थोड़ा सा बचा रह गया तो फिर वह धीरे-धीरे वही रूप ले लेता है। लालच बढ़ते-बढ़ते हुआ आसक्ति व अहंकार में परिवर्तित होता है जोकि मन में कैंसर का विकराल रूप है। यदि यह बढ़ता रहे तो शरीर में अपना बाह्य प्रक्षेपण देता है। क्या अहंकार का ग्रंथियों द्वारा स्रावित हार्मोनों पर प्रभाव पड़ता है हां बिल्कुल प्रभाव पड़ता है। कारण साफ है, सहज स्थिति में ग्रंथि व अन्य क्रियायें अच्छी तरह कार्य करती हैं। जब इन ग्रन्थियों पर किसी भी तरह का दबाव या तनाव पड़ता है तो यह अपने स्वाभाविक रूप में कार्य नहीं कर पाती है और अपने द्वारा स्रावित हार्मोनों के प्रभाव को बिगाड़ देती है फलस्वरूप स्रावित होने वाले हार्मोन असंतुलित हो शरीर को रूग्ण व बीमार कर देती है। मन का सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है और स्रावी ग्रन्थियों का भी सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है।

जब मन में कोई भी ऐसा विचार आता है जहां तनाव, क्रोध, लोभ, ईष्र्या, घृणा आदि पनपते हैं तो मष्तिष्क के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की कोशिकायें सिकुड़ जाती हैं। फलस्वरूप उनको आक्सीजन की सप्लाई में बाधा पहुंचना शुरू हो जाता है। आक्सीजन की कमी अंतःस्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्रावित हार्मोनों के स्राव में तेजी से बदलाव कर शरीर व मस्तिष्क की कार्य प्रणाली में व्यवधान पैदा करती है जो कि जीन परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। जीन परिवर्तन की वजह से ही शरीर का कैंसर बनता है। आखिर यह मन का अहंकार क्या है- मन का अहंकार एक प्रकार से मन का वह नकारात्मक विचार है जो मन की नकारात्मक सोच को अपने अनुरूप इस प्रकार ढाल लेता है कि वह उसे अच्छा मानता है और मन के अनुरूप कार्य करवाता रहता है।

जब मन में अहंकार आने लगता है तो अहंकार के पीछे से कई ऐसे विचार स्वयं ही आ जाते हैं जो हमें शुरूआत में तो पता नहीं लग पाते हैं पर भयंकर ही खतरनाक होते हैं। अहंकार विक्षिप्त मन का बीज है जिसके फल अत्यंत दुखदायी व खतरनाक हैं। आखिर अहंकार आता कहां से है- अहंकार एक मन का विकार है जो मनुष्य के मन में ही स्वयं उपजता है। जब अहंकार आता है तो व्यक्ति को स्वयं पता लग जाता है कि मुझमें अहंकार जाग रहा है। यदि उस समय सचेत रहें तो अहंकार धीरे-धीरे विदा होने लगता है। यदि इस समय गुबार में भरे रहे तो यह अपनी सीमायें लांघकर अन्य मानसिक विकारों को जन्म देता है। अपनी बात पर अड़े रहना, अपने को सही सिद्ध करना, गलती करने पर स्वीकार नहीं करना, गलत के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना, मैं सही हूं यह भ्रम पैदा हो जाना, मेरा कैसे लाभ हो मुझे कैसे फायदा पहुंचे। यह शुरूआती अहंकार है जो बढ़ता हुआ और सूक्ष्म अहंकारों को जन्म देता है। क्या इस रोग का उपचार है जब रोग है तो इसका उपचार भी है। बस समझ आ जाये कि कहीं कैंसर की शुरूआत मन से तो नहीं हुई। यदि नहीं भी समझ में आये तो उपचार तो मन से ही शुरू होगा। तन का उपचार मात्र 20 प्रतिशत प्रभावकारी है, 80 प्रतिशत मन का ही उपचार प्रभावकारी है।

कैंसर की स्थिति में आपका मनोबल ऊंचा, मन साफ, स्वच्छ, निर्मल है तो मन की क्रियाएं नैसर्गिक होने लगती हैं, आहार प्राकृतिक होने लगता है व्यवहार में आसक्ति का व्यवहार कम होने लगता है। मौत के प्रति जो भय था वह कम होने लगता है और शरीर स्वतः ही धीरे-धीरे एण्टीबाडीज डवलप करने की क्षमता विकसित करने लगता है जिससे आप कैंसर से लड़ सकें। वैज्ञानिकों के पास कई प्रमाण हैं कि व्यक्ति को कैंसर होते हुये भी वह वर्षों तक स्वस्थ जीया। जब उसे मौत आई तब कैंसर उसका कारण नहीं था वह एक प्राकृतिक मौत थी। फिर मन को मजबूत कैसे किया जाये मन को आसानी से मजबूत किया जा सकता है।

मन की सबसे अच्छी खुराक है सहज स्वाभाविक स्थिति में रहना व कुछ नियमों का पालन करना। 1. स्थिति जैसी है उसे स्वीकार करना। 2. स्थिति व परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढालना 3. मन में जो चल रहा है उसे स्वीकार करना। 4. गलती हुई है तो उसे स्वीकार कर फिर न दोहराना यदि नियमित रूप से ध्यान व त्राटक का अभ्यास किया जाये तो मन की सफाई काफी हद तक की जा सकती है। गलत ईच्छाओं को पहचानने की कोई जरूरत नहीं है।

यदि आप नियमित रूप से अपने मन की सफाई करते रहेंगे तो गलत ईच्छाएं, गलत विचार अपने आप ही स्वयं विदा होते रहेंगे। मन की सफाई 1. मस्तिष्क को आक्सीजन की अत्यंत जरूरत होती है, अतः नियमित रूप से नाड़ी शोधन, प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम, अनुलोम प्राणायाम, शवासन, मकरासन, आनापान करें ताकि मन चुस्त-दुरूस्त रहे। 2. आहार में हल्के सुपाच्य आहार लें जैसे अंकुरित अन्न, मौसम के फल सब्जी, मिक्स रोटी आदि। 3. प्रकृति के सान्निध्य में रहें।

अधिक कोशिश हो कि प्रकृति के पंच तत्वों का भरपूर प्रयोग करें। प्रकृति के नियमों को समझना ही होगा। शरीर प्रत्येक रोगों से लड़ने की क्षमता रखता है और शरीर का एक नियम है कि जब शरीर रूग्ण होता है तो वह उनसे लड़ने व रोग को ठीक करने की औषधि स्वयं तैयार कर लेता है। शरीर रोगों से लड़ने की औषधि तभी तैयार कर पाता है जब मन स्वच्छ, साफ व सकारात्मक हो। नकारात्मक स्थिति में मन की ऊर्जा ज्यादा खर्च होती है और उस स्थिति में शरीर को स्वस्थ करने के लिए ऊर्जा नहीं बच पाती है। साफ, स्वच्छ व निर्मल मन के पास ऊर्जा का अथाह भंडार होता है जो कि शरीर की देखरेख करता रहता है।