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आधुनिक उद्योग संस्थानों तथा व्यवसाय में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका

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विज्ञान की प्रगति के साथ तकनीकी एवं प्राविधिकी विकास तथा परिवर्तनों ने उद्योग संस्थानों को प्रभावित किया है। श्रम-विभाजन तथा अति परित्कृत मशीनो के कारण हुए कार्यों का स्वचलन तथा बदलती हुई कार्य-प्रणाली ने उद्योगों के वातावरण में यांत्रिकता तथा एकरसता को बढावा दिया है । इसका प्रभाव कर्मचारी तथा मशीन एंव कर्मचारी एव प्रबंधन के बीच विरोध के रूप में पडा है तथा कर्मचारियों के बौद्धिक तथा संवेगात्मक्त पक्षों पर भी इसका नाकारात्मक प्रभाव पडा है । जिस कार्य को करने में मनुष्य की इच्छा, बुद्धि एवं प्रयास नहीं लगे हो वह कार्यं उसे सन्तुष्टि नहीं दे सकता और आज के अति उन्नत उद्योग संस्यानों में मनुष्य एक बटन दबने वाला साधन मात्र बन कर रह गया है । किसी भी कार्य को करने में उसकी बुद्धि तथा कौष्टाल का प्रयोग नहीं होता जिसका फल यह होता है कि न तो मनुष्य को उस कार्य में रुचि त्तथा अनुरक्ति विकसित हो पाती है न ही वह कार्य उसे कोई चुनौती दे पाता है जो उस व्यक्ति में कार्यं को संपादित करने की तत्परता एवं प्रेरणा जगा सके। इन स्थितियों मेँ औद्योगिक संस्यानों में विभिन्न प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती है जिनके समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों की सहायता आवश्यक हो जाती है, न मात्र उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका है वरन हर उन संस्थानों में उनकी उपयोगिता है जहाँ कर्मचारियो के चयन एवं प्रशिक्षण की समस्या होती है, यथा-विभिन्न सेवा आयोग, सेना के संस्थान, आरक्षी प्रशिक्षण केन्द्र, ग्राम्य एवं सामुदायिक विकास योजनाएँ आदि। विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भी मनोवैज्ञानिकों की भूमिका को लोग अब पहचानने लगे हैं।
आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों ने उद्योग संस्थानों में अपनी भूमिका तथा कार्य- कलापों में आमूल परिवर्तन बताया है। द्वितीय महायुद्ध के बाद तक के दिनो में मनोवैज्ञानिकों का कार्यक्षेत्र औद्योगिक वातावरण के भौतिक पक्षी तक ही सीमित था। किन्तु क्रमश: उनका ध्यान उद्योगो में कार्यरत् मनुष्यों के वैयक्तिक कारकों यर जाने लगा तथा उनके व्यक्तित्व का नैदानिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन का उन्हें उद्योग के लिए अधिक उपयोगी बना देने का प्रयास मनोवैज्ञानिकों का अभीष्ट हो गया। आज के मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन क्षेत्र में मनुष्य के प्रेरण, इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, आकाक्षाएँ, आदि तो है ही, उनके क्षेत्र का विस्तार निरीक्षण, नेतृत्व प्रकार, नियोक्ताकर्मी संबंध, कार्यं के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति, मनोबल, आदि के अध्ययन के दिशा में भी हुआ है। उनकी मान्यता है कि व्यक्ति के ये वैयक्तिक कारक उद्योग संस्थानों के अन्तर्गत उनकी कार्य प्रणाली तथा कार्यक्षमता को प्रभावित करते है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादन पर पता है।
1.कर्मचारियों की उधोग में सहभागिता बढाने की भूमिका-मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगशाला तथा क्षेत्र-प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि उद्योग संस्थानों में कर्मचारियों की सहभागिता तथा प्रबंधकों की ओर से लोकतात्रिक एव सहकारी वातावरण का उन्नयन नियोक्ता एवं कर्मिंर्या के पारस्परिक संबंर्धा को न सिर्फ बढाता है वरन् उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पाता है। मनोवैज्ञानिकों की भूमिका कर्मचारियों की स्थितियों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं है। उनका अभीष्ट उद्योगपतियों तथा प्रबंधकों की लक्ष्य-प्राप्ति के संसाधनों का अध्ययन करना भी है। अत: उद्योग संसाधनों की संरचना की योजना को कार्यान्वित करना मनोवैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्र में आ जाता है।
2. उद्योग क्षेत्रों में श्रम-कल्याण-विभाग की स्थापना कराने की भूमिका-विभिन्न देशों की सरकारों ने भी उद्योगपतियों तथा कामगारों के प्रति अपना दायित्व स्वीकारा है। उद्योगों की सफलता मात्र के लिए हो कामगारों की सुख-सुविधा तथा संतुष्टि के लिए प्रयास हो यह उनका दर्शन नहीं रहा है। उनकी मान्यता रही है कि राष्ट्र के एक नागरिक के नाते हर कामगार को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन साधनो को प्राप्त करने का अधिकार है जो उससे ऊपर के वर्गों के नागरिको को प्राप्त हैं। अत: उद्योगों में कार्यरत कामगारों की सुबिधा तथा सुरक्षा के लिए श्रम अधिनियमों को पारित किया गया और उनके आलोक में सरकारी नीतियों के आघार पर उद्योगपतियों और उद्योग मनोवैज्ञानिकों के सम्मिलित प्रयास से उद्योगो में श्रम कल्याण विभाग के स्थापना हुईं। इस विभाग के अधिकारी को कार्मिक पदाधिकारी का पद दिया गया। इस पदाधिकारी के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत् कामगारों की कार्य-प्रणाली, कार्यस्थल पर उचित व्यवहार, निरीक्षकों के साथ उचित पारस्परिक सम्बन्ध आदि के अतिरिक्त उनके भविष्य की सुरक्षा के हर संभव प्रवासी का करना भी है-प्राविडेंट फण्ड, ग्रेच्युटी आदि की योजनाओं को पारित करना, दुर्घटना तथा बीमारी आदि की अवस्था में उनकी आर्थिक सुरक्षा की देखभाल आदि। ये सारे कार्यं सुचारु रूप से पारित हो सके। इसका दायित्व भी उद्योग मनोविज्ञानी की भूमिकाओं में शामिल है ।
3. औद्योगिक अभियंताओं के कार्य में सहयोग की भूमिका-उधोग संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर कार्यंरत् अभियंताओं के समक्ष जब विभिन्न प्रवर की समस्याएँ आ जाती है तब वहाँ भी उन्हें मनोवैज्ञानिकों की सहायता की आवश्यकता पड़ जाती है। मशीनों के निर्माण की योजना बनाते समय अभियन्ता मनोवैज्ञानिकों के सुझाव मांगते है ताकि ऐसी मशीनो का निर्माण हो सकै जो मनुष्यों की क्षमताओं तथा सीमाओं के अनुरूप हो। ऐसी मशीनो पर काम करना मनुष्य के लिए भार-स्वरूप नहीं होता तथा उन्हें उन पर कार्य करने में आनन्द मिलता है। स्पष्ट है कि इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर तथा उत्पादन, शक्ति पर साकारात्मक रूप से पडेगा।
4. कर्मचारी का व्यक्तित्व विश्लेषण कर उन्हें सही सुझाव देने को भूमिका -आज के युग के बदलते हुए स्वरूप ने मनुष्य की प्रकृति में अनेकानेक परिवर्तन तथा विकृति को उत्पन्न कर दिया है। धैर्य, सहनशिनलता, त्याग, सहयोग, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों के लगभग लोभ होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और इसके स्थान पर स्वार्थ तथा व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्रधानता मिलने लगी है। इन बातों का प्रभाव औद्योगिक वातावरण पर भी पड़। है। आज के उद्योग संस्थान इस सदी के पूर्वार्द्ध के उद्योगों के समान नहीं रह गये है जब औद्योगिक जीवन एक बंधी बंधायी लीक पर चलता था और नियोक्ता तथा कर्मचारी अपनी प्राप्ति से लगभग संतुष्ट रहा करते थे। आज के मनुष्य उनका समाधान कर सके यह देखना मनोवैज्ञानिक का कार्यं है।
5. उद्योग के कार्मिंक विभाग को सुझाव तथा सहयोग देने की भूमिका-आज़ के उद्योग मनोविज्ञानी ने पहले की तरह मनौवैज्ञानिक परिक्षण रचना मात्र में अपने कार्य क्षेत्र को सीमित नहीं कर रखा है। उद्योग में उसकी भूमिका का क्षेत्र व्यापक तथा विस्तृत हो गया है और उस विस्तृत क्षेत्र का अंग है उद्योग के कार्मिक विभाग को उपयुक्त सुझाव तथा सहयोग देना: कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व औद्योगिक परिवेश से सबसे अधिक
है। प्रबंधन की नीतियों को कर्मचारियों तक सही रूप में पहुँचाना तथा कर्मचारियो की कार्य प्रणाली का निर्धारण,निरीक्षकों को समुचित निर्देश तथा कर्मचारियों के विचारों को प्रबंधन तक सही रूप से आने देना आदि कार्मिक विभाग के कार्य-कलापों के अंतर्ग्रत विभाग में आता है |अत: कार्मिक विभाग अपना कार्य समुचित रूप से करता रहे इसी पर उधोग की प्रगति निर्भर है |
6. प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच मध्यस्थता की भूमिका-औद्योगिक प्रगति के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सामंजस्य, सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध तथा एकदूसरे से विचारों के स्तर पर त्तादात्स्य। इन स्थितियों की अनुपस्थिति में औद्योगिक लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती, और ये स्थितियों उत्पन्न होती है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच वार्ता के अभाव में। अत: उद्योग मनोवेज्ञानिको की एक अहम् भूमिका बन जाती है प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच वार्ता की स्थिति को उत्पन्न करने की। यों देखा जाए तो यह कार्यं श्रम कल्याण विभाग के पदाधिकारियों का है क्योंकि वे ही प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सेतु का कार्यं करते है। किन्तु आज कल दिन-व-दिन मूल्य रहित होते हुए समाज में हर पदाधिकारी अपनी भूमिका निस्वार्थ रह कर तथा ईमानदारी से निभाह दे यह अमूमन देखने में नहीं आता। श्रम पदाधिकारियों को रिश्वत देकर तथा अन्य भौतिक प्रलोभन देकर उद्योगपतियों का उनको अपनी और मिला लेने और फलस्वरूप गरीब कर्मचारियों की उचित मानो को अनदेखा का कर देने की घटनाएँ आज आम हो गयी हैं। इस स्थिति में कर्मचारियों का आक्रोश बढ़ता है और एक हतोत्साह कर्मचारी उद्योग के लिए कितना अनुपयोगी और हानिकारक हो सकता है यह समझना बडा ही सहज है। हड़ताल, तालानंदी तथा श्रम-परिवर्तन आदि अवांछनीय घटनाएँ ऐसे ही कर्मचारियों की हताशा की देन हैँ। अत उद्योग मनोविज्ञानी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका यहाँ यह हो जाती है कि वह प्रबंधन तथा कर्मचारियों के सम्मुख एकदूसरे के विचारों को स्पष्ट रूप से रखे और समझाएं, उन विचारों के औवित्य तथा उद्योग के लिए प्रभावकारिता का स्पष्टीकरण करें तथा दोनो को यह समझ लेने की स्थिति में ले आएँ कि एकदूसरे की अनुपस्थिति में वे अस्तित्वहीन है। उनका अस्तित्व पारस्परिक सहयोग तथा सामंजस्य पर ही निर्भर है।
7. विज्ञापन के क्षेत्र में सहयोगी की भूमिका-आज का युग विज्ञापन-युग है। आज विज्ञापन न सिर्फ उत्पादन के विपणन का एक साधन मात्र रह गया है वरन् स्वय एक उद्योग बन गया है। विश्व के हर उन्नत तथा विकासशील देश में विज्ञापन तेजी से उद्योग का रूप लेता जा रहा है जिसके सहारे अन्य उद्योग तथा व्यवसाय विकसित हो रहे हैं। अत: विज्ञापन के स्वरूप तथा उसके विभिन्न पक्षों का वैज्ञानिक तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन करना भी आधुनिक मनोविज्ञान की कार्यं-सीमा मेँ आ गया है।
अत: हम कह सकते है किं औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की व्यापक भूमिका आधुनिक उद्योग संस्यानों तथा व्यवसाय गृहों में है, और यही कारण है कि आज हर छोटे-बड़े उद्योग संस्थानों में मनोवैज्ञानिको को स्थायी रूप से नियोजित किया जा रहा है । कर्मचारियों के चयन से लेकर प्रशिक्षण तक, निरीक्षण से लेकर कार्य-मुल्यांकनं तक तथा जीविका आयोजन से लेकर श्रम संबंधो तक औद्योगिक मनोविज्ञानी एक विस्तृत तथा सतत् परिवर्ती घटनास्थल में घूमता हैं।

Pt.P.S.Tripathi
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