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कृषि उत्पादन के सहयोगी तत्व वायु,वृष्टि व भूमि की उपयोगिता

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प्राचीन काल से आज तक मनुष्य अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए प्रकृति पर अविलम्बित रहा है। प्रकृति ने भी उसे अपनी ममतामयी गोद में कृषि के माध्यम से शस्य (धान्य) से समृद्ध बनाया। किन्तु वृष्टि, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि अनेक प्राकृतिक अपदाओं का भय भी अक्सर देखा ही जा रहा है और इनसे निपटने के लिए ज्योतिष की सहायता ली जा सकती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र इस मामले में बेजोड़ है। ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रत्येक घटना के घटित होने के पहले प्रकृति में कुछ विकार उत्पन्न देखे जाते हैं जिनकी सही-सही पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं का सरलतापूर्वक परिज्ञान कर सकता हैं जैसे उल्कापात मेघ, वात, मेघगर्भ लक्षण आदि।
ज्योतिष के माध्यम से वर्षा का
पूर्वानुमान:
यदां जनिनो मेघ: शान्तायम दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विधाज्जलं शुभम्।।
यदि अंजन के समान गहरे काले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई पड़े और ये चिकने तथा मंद गति वाले हों तो भारी जल वृष्टि होती है।
पीतपुष्पनिभो यस्तु यदा मेघ: समुत्थीत:।
शंतायम यदि दृश्यते स्निग्धो वर्षं तदुच्यते।।
पीले पुष्प के समान स्निग्ध मेघ पश्चिम दिशा में स्थित हों तो जल की तत्काल वृष्टि कराते हैं। ये वर्षा के कारक माने जाते हैं ।
रक्तवर्णों यदा मेघ: शान्तया दिशि दृश्यते।
स्निग्धो मंदगतिश्र्वापि तदा विद्याजलं शुभम्।।
यदि लाल वर्ण के तथा स्निग्ध और मंद गति वाले मेघ पश्चिम दिशा में दिखाई दें तो अच्छी जल वृष्टि होती हैं ।
तिथौ मुहूर्तकारणे नक्षत्रे शकुन शुभे।
संभवन्ति यदा मेघा: पापदास्ते भयंकरा:।।
अशुभ तिथि, मुहूर्त कारण, नक्षत्र और शकुन में यदि मेघ आकाश में आच्छादित हों तो भयंकर पाप का फल (अनिष्ट) देने वाले होते हैं ।वराह संहिता में वराहमिहिर ने 34 अध्याय के 4-5 श्लोक में परिवेश के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है कि चांदी और तेल के समान वर्ण वाले परिवेष सुभिक्ष करने वाले होते हैं ।घाघ, भड्डरी एक जैसे ही ज्योतिषी हुए जिन्होंने आम बोलचल की भाषा में कई ज्योतिष सम्बंधित कहावते कहीं हैं, वें वर्षा के सम्बन्ध में लिखते हैं:
आगे मंगल पीछे भान।
बरसा होय ओस सामान।।
जब मंगल ग्रह आगे और सूर्य उनके पीछे हो तो वर्षा ओस के सामान अर्थात बहुत कम होती हैं।आगे मेघा पीछे भान। पानी-पानी रटे किसान।।जब मघा आगे-आगे हों और सूर्य पीछे हो तो वर्षा का योग बहुत कम हैं, किसान पानी पानी रटते रहेंगे । आगे मंगल पीठ रवि, जो आषाढ़ के मास।
चौपट नाश चहूं दिशा, विरलै जीवन आस।।
जब आषाढ़ के महीने में मंगल आगे और सूर्य उसके पीछे हो तो अनाव्रष्टि का भय रहता हैं । नारद पुराण के त्रिस्कन्ध ज्योतिष सहिंता प्रकरण में ग्रह के माध्यम से वर्षा के सम्बन्ध में कहा गया हैं-
मंगल-
जिस दिन मंगल का उदय हो और उदय के नक्षत्र से दसवे, ग्यारहवे तथा बारहवे नक्षत्र में मंगल वक्र हो तो (अश्र्वमुख) नामक वक्र होता हैं। उसमें अन्न व वर्षा का नाश होता है।
बुध-
1. यदि आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा इन नक्षत्रों में बुध दृश्य हो तो वर्षा नहींं होती हैं और अकाल होता हैं ।
2. हस्त से छ: नक्षत्रों में बुध के रहने से लोक-कल्याण, सुभिक्ष व आरोग्य प्राप्ति होती हैं ।
बृहस्पति- बृहस्पति जब नक्षत्रों के उत्तर चले तो सुभिक्ष व कल्याणकारी तथा बायें हो तो विपरीत परिणाम देता हैं ।
शुक्र-
1. शुक्र जब बुध के साथ रहता हैं तब सुवृष्टि (अच्छी वर्षा) का कारक होता हैं ।
2. कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या में यदि शुक्र का उदय हो या अस्त हो तो पृथ्वी जल से परिपूर्ण रहती हैं।
शनि-
श्रवण, स्वाति, हस्त, आद्र्रा, भरणी और पूर्वाषाढ़ इन नक्षत्रों में विचारने वाला शनि मनुष्य के लिए सुभिक्ष व खेती की उपज बढ़ाने वाला होता है।
पौस इजोडिया सप्तमी अष्टमी नवमी वाज।
डाक जल्द देखे प्रजा, पूरन सब विधि काज।।
अर्थात पौस शुल्क प्रतिपदा, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, तिथि को यदि आकाश में बादल दिखाई पड़े तो उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है।
वायु के लक्षण:
वर्षा भय तथा क्षेम राज्ञो जय पराजयम।
मरुत: कुरुते लोके जन्तूनां पुण्य पापजाम।।
वायु सांसारिक प्राणियों के पुण्य एवं पाप से उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजा की जय-पराजय को सूचित करती हैं |वायु के चलने से भी प्राचीन ज्योतिषियों ने अनेक फलादेश कियें हैं जिसमे कृषि तथा वर्षा, सुभिक्ष आदि का वर्णन किया गया हैं। भद्रबाहू के निमित ग्रन्थ में उल्लेख हैं कि-
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु पूर्व वातो यदा भवेत्।
प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टि: सुषमा तदा।।
आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पूर्व दिशा की वायु यदि सारे दिन चले तो वर्षा काल में अच्छी वर्षा होती हैं और वह वर्ष अच्छा व्यतीत होता हैं ।
आषाढ़ी पूर्णिमायां तु वायु: स्यादुत्तरो यदि।
वापयेत सर्वबीजनी शस्यं ज्येष्ठ समृध्यति।।
आषाढ़ी पूर्णिमा को उत्तर दिशा की वायु चले तो सभी प्रकार के बीजों को बो देना चाहिये क्योंकि उक्त प्रकार की वायु में बोये गए बीज बहुतायत से उत्पन्न होते हैं। किसी भी दिशा का वायु यदि साड़े सात दिन तक लगातार चले तो उसे महान भय का सूचक जानना चाहिये। इस प्रकार की वायु अतिवृष्टि की सूचक होती हैं ।
सर्व लक्षण संपन्न मेघा मुख्या जलावाहा:।
मुहुर्तादुत्थितो वायुर्हान्या सर्वोआपी नैऋत:।।
सभी शुभ लक्षण से संपन्न जल को धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं, उन्हें भी नैऋत्य दिशा का उठा हुआ पूर्व पवन एक मुहूर्त में नष्ट कर देता हैं ।
घाघ कवि वायु के सम्बन्ध में कहते हैं-
वायु चलेगी उत्तरा।
माढ़ पियेंगे कुत्तरा।।
जब उत्तर दशा की वायु चलेगी तब कुत्ते भी माढ़ पियेंगे अर्थात धान की फसल अच्छी होगी। इसी तरह पूरब की वायु भी धान की फसल के लिये अच्छी मानी जाती हैं-
चले वायु जब पूरवा।
माढ़ पियों भर कुरवा।।
‘डाक’ कवी लिखते हैं-
श्रावण पछवा भादों पुरिवा, आशिं बह ईशान।
कार्तिक कांता सिकियोने डोले, कहाँ तक रखवह धान।।
श्रावण पछवा बह दिन चारी, चूल्हिक पांछा उपजै सारी।।
बरिसे रिमझिम निशिदिन वारि, कहीगेल वचन ‘डाक’ परचारि।।
यदि सावन मास में पश्चिम हवा, भाद्रपद मास में पूर्वी हवा और आश्विन मास में ईशान कोण की हवा चले तो अच्छी वर्षा होती हैं तथा फसल भी उत्तम होती हैं। श्रावण में यदि चार दिनों तक पश्चिमी हवा चले तो रात-दिन पानी बरसता है। इस तरह ज्योतिष द्वारा वायु का पूर्वानुमान कर कृषि कार्य में सहायता प्राप्त की जाती थी।
खेती योग्य उचित भूमि भी उत्तम खेती के लिए आवश्यक भूमि शोधन अंग हैं। प्राचीन काल में कृषि बीज बोने से लेकर फसल काटने तथा रखने तक की प्रक्रिया ज्योतिष के वैज्ञानिक विधि द्वारा वर्णित शुभ मुहूर्तो में की जाती थी। अत: बिना रासायनिक खादों के उत्तम फसल की प्राप्ति होती रही। वर्षा का पूर्वानुमान लगाकर उस हिसाब की पूर्ववत तैयारी कर ली जाती थी। अंतत: निष्कर्ष है कि ज्योतिष शास्त्र एक सार्वभौमिक शास्त्र हैं जो कि जातक के भविष्य, भवन निर्माण से लेकर कृषि कार्य में भी अपनी उपादेयता को सदियों से सिद्ध करता रहा हैं।

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