तपस्वी विश्वामित्र और अमलेश्वर की गाथा
आत्मसम्मान बनाम अपमान
प्राचीन काल में एक प्रतापी क्षत्रिय राजा थे—कौशिक, जो युद्धकला के महारथी और धर्मनिष्ठ राजर्षि थे। किंतु एक दिन उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में कामधेनु के चमत्कार देखे। वशिष्ठ के एक मन्त्र से संपूर्ण सैन्यशक्ति निष्फल हो गई। यह दृश्य कौशिक के आत्मसम्मान को चुभ गया।
उनका मन भीतर तक काँप गया—
“मैं सब कुछ जानता हूँ, पर क्या ब्रह्मतेज के बिना मेरी शक्ति अधूरी है?”
श्लोक (शार्दूलविक्रीडित):*
वशिष्ठगौकार्याद् मन्दोऽहं किंचित् भ्रान्तो हृदि मया ।
“कर्मज्ञोऽहं भव” इति संकल्प्य महाकालं समाश्रितः ॥
“वशिष्ठ की गौ के कारण मुझे अपनी अल्पता का बोध हुआ, हृदय में भ्रम उत्पन्न हुआ। तब यह निश्चय किया कि मैं कर्मयोगी बनूँगा, और महाकाल की शरण में गया।”
स्वप्न में मिला महाकाल अमलेश्वर का आदेश
एक रात्रि स्वप्न में विश्वामित्र को एक दिव्य रूप दिखा—*स्वयं महाकाल अमलेश्वर* प्रकट हुए। उन्होंने कहा:
“यदि ब्रह्मर्षि बनना चाहते हो, तो अमलेश्वर धाम जाओ। वहाँ के अंधकार में दिव्य प्रकाश है। वहाँ ‘चार चरणों’ की पूजा करो – तब दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा।”
अमलेश्वर धाम की यात्रा
सुबह होते ही विश्वामित्र ने रथ को त्याग दिया और पैदल ही खारून नदी पार कर अमलेश्वर पर्वत की गुफा में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने गहन तपस्या आरंभ की।
विशेष अनुष्ठान (अमावस्या तिथि पर):
चारुभुक्त नैवेद्य से चतुर्भुज शिवलिंग की अर्चना।
पलाश-पिण्डदान – मृत पितरों को समर्पित, पितृदोष की शांति हेतु।
नंदी पूजन – वशिष्ठ की गौसत्ता की स्मृति में।
गायत्री मंत्र जप एवं “ॐ महाकालाय विद्महे” मन्त्र का जप।
श्लोक (विपरीतछन्दः):
प्रतिग्रहं निर्मूल्य चतुष्पदैर्नार्हकार्चितः ।
महाकाले प्रणम्य तु प्रज्ञा समुन्नता मदीया ॥
“सभी सांसारिक ग्रंथियों को त्याग, चारों पदों से पूजन कर महाकाल को प्रणाम किया — और मेरी बुद्धि का दिव्य उदय हुआ।”
ब्रह्मर्षि की दीक्षा और ज्ञानोदय
अनेक वर्षों की तपस्या के बाद एक रात्रि आकाश गूंज उठा। अमलेश्वर की गर्भगुहा से तेज प्रकट हुआ, और शिव के रूप में वह वाणी गूंजी:
“विश्वामित्र! अब तुम केवल राजर्षि नहीं – तुम्हारी तपस्या ने ब्रह्मर्षित्व का स्तर पाया। तुम्हें ज्ञान, ब्रह्मतेज और मंत्रशक्ति प्रदान की जाती है।”
विश्वामित्र ने वहीँ गायत्री मंत्रमाला धारण की और सत्यनारायण संवादशास्त्र की रचना की।
५. ऐतिहासिक प्रभाव
इस साधना और महाकाल के आशीष से विश्वामित्र की कीर्ति दूर-दूर तक फैली—
त्रेतायुग में रामायण में वर्णित ‘गंगास्नान’ का प्रस्थान बिंदु “मिथिला गंगोत्री” उन्हीं की तपस्थली से जुड़ा।
गायत्री मंत्र* – जिसका रचयिता स्वयं विश्वामित्र बने।
आमलेश्वर विद्यापीठम्* – उज्जयिनी के निकट एक गुरुकुल की स्थापना, जहाँ वेद और गायत्री शिक्षा दी जाती रही।
श्लोक (उत्पत्तिविभंगछन्दः):
विश्वामित्रपूजनात् महाकाले, ब्रह्माण्डं जज्ञार रश्मिभिः सदा ।
“तपोबलप्रशस्तं ब्रह्मर्षिर्भर्याम्”—इतिहासे लिखितम् ॥
“महाकाल की उपासना से विश्वामित्र ने जो तेज पाया, उससे ब्रह्माण्ड प्रकाशित हुआ। इतिहास कहता है – ‘तप से ब्रह्मर्षि बना वह, न केवल शस्त्र से।’”
उपसंहार
*यह कथा केवल एक ऋषि की नहीं – यह उस पथ की कथा है, जहाँ अहंकार आत्मज्ञान में परिवर्तित होता है।
जहाँ राजधर्म, आत्मग्लानि, तप, भक्ति और शिव की कृपा – मिलकर एक राजर्षि को ब्रह्मर्षि बनाते हैं।और इस रूपांतरण की साक्षी है —
श्री महाकाल अमलेश्वर धाम।