“भयमोचन विभूति: कलचुरी राजकुमार रुद्रसेन की कथा”
भयभूमि: अभूतपूर्व आतंक
संवत् 1242 — कलचुरी वंश का नितांत प्रगतिशील राजकुमार रुद्रसेन अपनी सभा में ही भयभीत दिखता था।
राजमहल के आँगन में प्रत्येक शोर, पशु-मंत्र और काले बादलों के गर्जन से ही उसका हृदय कांप उठता।
पुरोवासी-मंत्री भी समझ न पाए कि स्वयम् पराक्रमी रुद्रसेन को कौन-सा दैवीय भय ग्रस्त कर रहा।
रातों को वह जगकर झूलते फाफूंद की छवि देखता, मानो कालरात्रि स्वयं उसका साया हो।
श्लोकः (शार्दूलविक्रीट, १९ मात्राः)
तमसो मे क्लिन्नचेताः क्लन्ना पथिकपादयोः क्रन्दन्ति ।
किमस्मिन् कालरात्रौ कर्तव्यं, भयमोचनाय महाकरा॥
शापग्रस्त प्रजनन वंश
भय ने इतना विकराल रूप धारण किया कि रुद्रसेन की रानी गर्भ धारण करने में असमर्थ रही।
वंश-धारा रुकने लगी, राज्य की शक्ति क्षीण दिखने लगी।
प्रजा भयभीत हो पराक्राम की अपेक्षा नहीं कर पाती, जहाज जैसे सर्वत्र संकट का सन्नाटा व्याप्त हो गया।
महाकाल धाम की ओर प्रस्थान
एक दिव्यस्वप्न में महाकाल ने रुद्रसेन से कहा—
भय का अन्त: तभी, जब पितृदोष शमितः,
महाकालधामे आगच्छ, पलाशाभिषेकं कुरु।”
उसी संकल्प से प्रातःकाल राजसभा में घोषणा हुई—“अमलेश्वर तीर्थ प्रस्थान।”
राजसी वह रथ खारुन पार करके सीधा महाकाल धाम पहुँचा।
वहाँ की धूल-धूसरित गुफाओं में एक अनाहत कंपन सुनाई दिया, मानो स्वयं शिव स्वरूप स्वराह रहा हो।
त्रिमोर्च्छित अनुष्ठान
राजकुमार ने महती साधना आरंभ की:
पलाश विधि* — पवित्र पलाशकाष्ठ से मृतात्माओं का प्रतीक पिण्ड रचना।
पितृशांति यज्ञ* — एकोदिष्ट श्राद्ध एवं सर्पश्राद्ध यज्ञ।
नारायण बलि* — दीन-दुखियों को अन्न-धान्य वितरित कर नारायण बलि।
श्लोकः (विपरीत, १९ मात्राः)*
पिण्डदानेन सह संत्यज्य शापं, पितरः प्रसन्नाः भवतः ।
महाकाले नमस्कृत्य, भयमोचनं स्वयमेव लभ्यते ॥
भयमोचन और ज्ञानदीक्षा
जप-मन्त्रों के उच्चारण के बीच आकाश गर्जित हुआ। गर्भगुहायाँ नंदी-प्रतिमा के नेत्रों से अमृतरसपात बहा।
उसी बेला रुद्रसेन का भय क्षय हो गया; हृदय सुदृढ़ हुआ।
महाकाल ने दिव्यज्ञानरश्मि दी—राजनीति, युद्धकला, धर्मशास्त्र सब एकसाथ दीक्षा स्वरूप प्रवाहित हुए।
वंशपुनरुद्धार और सत्ता-स्थापन
बिना भय के राजकुमार जब घर लौटा, तो वहाँ चमत्कार हुआ—रानी गर्भवती हुई।
एक वर्ष पश्चात् पुत्रजन्म; जिनका नाम रक्षितसेन रखा गया।
राज्य में पुनः कलचुरी पराक्रम लौटा, पराक्रान्त शत्रु चुप् हो गए।
रुद्रसेन ने महाकालधाम में प्रातः-सायंकाल नियमित दर्शन-यात्रा आरंभ की।
श्लोकः (उत्पत्ति-विभंग, १८ मात्राः)*
वंशो जीवति महाकरणोपादाने, पुत्रोत्पत्तिः च कृतार्थिता मम ।
धीतिपूर्वकं ज्ञानं समाप्य, भयमोचनं महाकाले समर्पितम् ॥
उपसंहार
राजकुमार रुद्रसेन की कथा आज भी अमलेश्वर धाम के प्रांगण में गूँजती है—
जो भयमगाधे समुद्रे से भी गहरा,
महाकालधाम में पलाश विधि से क्षीण हो जाता।”
ऐसी ही कथा हमें सिखाती है कि धैर्य, भक्ति और पितृपुण्य के सम्मिलित अनुष्ठान से ही भयमुक्ति, ज्ञानप्राप्ति, वंशपुनरुद्धार और सत्ता-स्थापन संभव है।