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जानें,जप-तप-साधना का महत्व…

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जप-तप-साधना का महत्व 

मेरी यह पुस्तक व्रत-उपवास पर कभी भी यह रूप धारण न करती अगर मुझे स. रणधीर सिंह जी का सहयोग और प्रोत्साहन न मिलता। सौभाग्य है कि उनकी कृपा, उदारता और अनुमति से यह पावन ग्रन्थ आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूॅ।यद्यपि पस्तुत पुस्तक में केवल महत्वपूर्ण सामग्री ही दे पाया हूॅ तथापि मेरा प्रयत्न और सामग्री को खोजने में जारी है। विश्वास है कि मैं शीघ्र ही छूटी हुई सामग्री व्याख्या सहित प्रस्तुत करने में सफल हॅूगा।अन्त में, मै ऐसे अनेक प्राचीन ग्रन्थों को प्रकाशित करने वाले प्रज्ञावान स. रणधीरर सिंह को अपनी यह छोटी-सी रचना, जैसी भी है, सादर समर्पित करते हुए आशा करता हूॅ कि यह आपके लिए भी लाभप्रद सिद्ध होगी।

आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतो,
अदब्धासो अपरीतास उद्धिदः।
देवा नो यथा सद्सिद् वृथे असनृ।
नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे।।

भावार्थः हमें जो भी विचार आए, वे सब प्रकार से कल्याणमय हों, उनमें धोखा न हो, उनमें बाधा न हो, वे खुले और स्पष्ट हों, वे उलझे हुए न हों ताकि हमारी दैवी शक्तियाॅ जाग पडें, जो सदैव साथ देने वाली होकर हमारी रक्षा और वृद्धि करती रहें।
साधक और साधारण व्यक्ति में अन्तर यही होता है कि साधक अपनी साधना के बल पर एक अतिरिक्त शक्ति जुटा लेता हैं।साधारण व्यक्ति के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है। आशय यह है कि साधक दूसरों के मनोभावों को भी जान लेगा और अपने मन के प्रत्येक कोने की उसे पूरी सूचना होगी। यह ऐसा सामथ्र्य है जो हर कोई नहीं जुटा सकता है।

साधना की दृष्टि से मन्त्र उल्लेखनीय ही नहीं, बल्कि बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक सोपान है। साधनाकाल में यह न केवल साधक के मन को एकाग्र कर संयमित दिनचर्या व्यतीत करने में सहयोग देता है, बल्कि साधना के लिए अहितकारी तनाव और आलस्य आदि को भी दूर करने में भी उपयोगी भूमिका निभाता है। मन्त्र के इस महत्व को केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि प्रामाणिक तथ्यों पर आधारित वैज्ञानिक आधार भी है। आलस्य का एक बहुत बड़ा कारण असंयमित दिनचर्या है।

सकल जगत् में तीन प्रकार के ताप माने गए है इन्हें हम तीन तरह के कष्ट भी कह सकते हैं। इस त्रिताप का सम्बन्ध भी हमारी अपनी पहचान से है। हमारा सामथ्र्य ही इन्हे रेखांकित करता है और अनुभूति के स्तर पर इनकी पहचान कर लेता है। हमारी यह पहचान ही त्रिताप से मुक्ति का आधार बन जाती है।

त्रिताप हैं-दैहिक और भौतिक ताप। स्पष्ट है कि दैहिक ताप का सम्बन्ध देह से है जबकि दैविक ताप हमारे वश की बात नहीं है। तीसरा ताप है- भौतिक ताप। सांसारिक लोगो के लिए पहले और तीसरे ताप की अनुभूति और पहचान, दोनों ही सरल है जबकि दैविक ताप को हम उन शक्तियों के लिए छोड़ देते हैं जो जगत् में दिखलाई नहीं देती हैं।मन में अनुभव हो तो इन दैविक और भौतिक ताप के विषय में एक प्रकार से अन्धता के शिकार हो जाते हैं। अज्ञात का अन्धेरा ऐसे ही अनुभव से उपजता है। पाप की परिभाषा के सन्दर्भ में देखें तो कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति के लिए कोई भी पाप हो वह तीनों ही पापों को भोगते हुए भी उसके होने के कारणों और उसके निदान को लेकर उदासीन ही बना रहेगा।

आन्तरिक क्रिया मन, बुद्धि एवम् भावना से होती है। हम जितना ही अपने भीतर जाते है, अपनी भीतरी दुनियाॅं में जाते हैं, उतनी ही अधिक सुख और शान्ति मिलती है।इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे हृदय में ईश्वर विराजमान हैं। वे ही शाश्वत् आनन्द के एकमात्र स्रोत हैं। हम अपने भीतर स्थित ईश्वर से जितनी अधिक निकटता बना पाते हैं, हमारा आनन्द भी उतना अधिक घनीभूत होता जाता है। एक बार उस आनन्द का स्वाद मिल जाए तो फिर और सब बाहरी सुख एकदम फीके पड़ जाते है।

उसी की चाह सबको है पर सब कोई उस स्रोत की ओर उन्मुख नही होते। हम चाहें तो अपनी बाहरी क्रियाओं को भी सुख का साधन बना सकते हैं। इसके लिए यह विशेष विचार जोड़ना आवश्यक है कि हम जो क्रियाए कर रहे हैं वे प्रभु की ही इच्छा की पूर्ति के लिए है।

ऐसी भावना होगी तो हमसे सत्कार्य ही होगे। जो क्रियाशील है वही जीवित हैं। जो निष्क्रिय है उसका जीवन भार है। उनकी अपने लिए ही कोई उपलब्धि है और न दूसरों के लिए ही ।जीवन पाकर जिस समाज ने जीवन में निरन्तर सहयोग प्रदान किया है उसके लिए उसका ऋण चुकाने के लिए प्रत्युत्तर में लाभकारी क्रियाशीलता का योगदान करना मानवता है।वस्तुतः मानवता की महानता साधना से ही सम्भव है।