एक ऊंची सी समुद्र की लहर दूसरी छोटी लहर से इठलाकर बोली कि मुझे देखो, मैं कितनी बड़ी और ताकतवर हूं, और फिर कुछ ही क्षणों उपरांत वह समुद्र के किनारे पड़े एक पत्थर से टकराई और शांत हो गई। उसी के साथ फिर दूसरी लहर आई और वह भी पत्थर से टकराकर शांत हो गई और यह क्रम चलता रहा। क्या अब उस पहली लहर का पुनर्जन्म होगा? एक तालाब के किनारे कुछ बच्चे खेल रहे थे। तालाब में पत्थर फेंक रहे थे जिससे कुछ बुलबुले उठ रहे थे। बुलबुले उठते और समाप्त हो जाते फिर नए बुलबुले उठते और वे भी समाप्त हो जाते। क्या इन बुलबुलों का जन्म होगा?क्या ये बुलबुले पहले भी कोई जन्म ले चुके हैं? एक कुम्हार ने बहुत सारे खिलौने बनाए। एक गुड़िया बहुत सुंदर थी जिसे ऊंचे दाम में एक रईस परिवार के बच्चे ने खरीद लिया। वह उसके हाथ से छूट कर चकनाचूर हो गई। क्या इस गुड़िया का पुनर्जन्म होगा? एक बहुत हरा भरा मैदान था जिसमें घास की असंख्य पत्तियां उग रही थीं। घर बनाने के लिए सारी घास को उखाड़ दिया गया। घास सूख कर समाप्त हो गई। क्या घास की उन पत्तियों का पुनर्जन्म होगा? रोशनी की चकाचैंघ में लाखों पतंगे उड़ रहे थे। प्रातः तक उस रोशनी में सभी पतंगे अपना शरीर छोड़ चुके थे। क्या उन पतंगों का पुनर्जन्म होगा? मनुष्य का शरीर अरबों खरबों कोशिकाओं से निर्मित है। शरीर में अनेक प्रकार के जीवाणु भी पल रहे हैं। प्रत्येक कोशिका व जीवाणु अपने आप में जीवित है। हर क्षण कोशिकाएं व जीवाणु मर रहे हैं और नए पैदा हो रहे हैं। क्या इन कोशिकाओं व जीवाणुओं का पुनर्जन्म होगा? यदि ध्यान से विचार करें तो समुद्र की लहर समुद्र में समा गई, जल जल में विलीन हो गया और जो दूसरी लहर उठी, उसे पहली लहर का पुनर्जन्म कहें तो यह तर्कसंगत नहीं लगता। इसी प्रकार से जीव भी मृत्योपरांत पंचमहाभूत में विलीन हो जाता है और पंचमहाभूत के समुद्र से अर्थात इस सृष्टि से नए जीव की उत्पत्ति होती है। इस शरीर का पिछले शरीर से कोई संबंध है यह कहना कठिन है। यदि कहें कि शरीर का विलय तो होता ही रहता है, पुनर्जन्म तो आत्म तत्व का होता है, तो इसका क्या अर्थ होगा जबकि आत्मा एक है और समान रूप से हर जगह विद्यमान है। यह जीव अजीव में एक रूप से विद्यमान है। यदि जीव का पुनर्जन्म होता है तो हर अजीव का भी पुनर्जन्म होना चाहिए। यदि कहें कि पुनर्जन्म आत्मा का न होकर जीवात्मा का होता है तो क्या आत्मा और जीवात्मा में भेद है?तो क्या यह जीवात्मा पेड़ पौधों में या अजीव पदार्थों में नहीं होती?जीव सर्वदा अजीव पर निर्भर है और अजीव में जीवन सुषुप्त अवस्था में विद्यमान रहता है जैसे बीज के अंदर पूरा वृक्ष। अतः जीवात्मा चराचर में एक रूप से विद्यमान है। तो पुनर्जन्म किसका? शरीर के अंदर अन्य जीवाणु व कोशिकाएं विद्यमान हैं तो क्या एक जीवात्मा के अंदर बहुत सारी जीवात्माएं स्थित हैं। एक जीवात्मा के मरने से क्या उन सबकी भी मृत्यु हो जाती है और बाद में उनका भी पुनर्जन्म होता है?ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर पुनर्जन्म के सिद्धांत के आधार पर देना कठिन है। मूलतः मनुष्य का अपने जीवन से मोह उसे नष्ट होते हुए नहीं देख सकता। उसे अपने जीवन का पंचमहाभूत में विलीन होना जीवन का अंत नहीं लगता। अतः वह जन्म मृत्यु के चक्र द्वारा अपनी मृत्यु के पुनर्जन्म का अहसास करता है। हमारे शास्त्र भी इसे सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं क्योंकि प्रथमतः जीव को अपना जीवन निरर्थक न लगे एवं दूसरे वह इस पुनर्जन्म के भय के कारण इस जन्म में मनमानी नहीं करे और अपने कर्मों से दूसरे जन्म को अच्छा बनाने में प्रयासरत रहे। यदि हमारा जीवन इस शरीर तक ही है तो शास्त्र हमें वस्तुओं का उपभोग करने की अनुमति क्यों नहीं देते। क्यों शास्त्र तप व त्याग के लिए ही प्रेरित करते रहते हैं?कारण यह है कि उपभोग शरीर को केवल कुछ समय के लिए ही आनंद देते हैं व उपभोग से शरीर की क्षमताएं कम हो जाती हैं। तप व त्याग कड़वी दवाई की तरह से हैं जो शरीर, मन व बुद्धि को पुष्ट रखने के साथ साथ चिर आनंद देते हैं। पुनर्जन्म का सिद्धांत तो जीवन की गहराइयों के प्रति गहरा विष्वास बनाए रखने के लिए एवं इस जीवन के महत्व को बढ़ाने के लिए निरूपित किया गया है। लेकिन पुनर्जन्म को हमने इतना सच मान लिया है कि इसके विपरीत सोचना हमें निरर्थक लगता है। पुनर्जन्म की कथाओं को क्या हम अस्वीकार करें जो पुनर्जन्म को सिद्ध करती हैं?इसके एउत्तर में यही कहना है कि बहुत सी बातें इस चेतन शरीर से हम महसूस कर लेते हैं जो हमने कभी नहीं देखी होती हैं या फिर वे भविष्य में होने वाली होती हैं। अनेकानेक स्वप्न भी हमें भविष्य का पूर्वाभास कराते हैं। विज्ञान ने भी माना है कि भूत या भविष्य को देखा या महसूस किया जा सकता है। जैसे एक बच्चा भी बिना देखे घंटी बजने पर जान जाता है कि उसके पिता कार्य से लौटे हैं। जैसे फोन की घंटी बजते ही हमें अहसास हो जाता है कि यह अमुक का फोन है। पूर्वाभास होना चेतन शरीर का गुणधर्म है जिसे हम आत्मरूप से समझने लगते हैं। इस शरीर के अंदर जीव तत्व का अस्तित्व समझ लेना गणेश जी की प्रतिमा को दूध पिलाने के समान ही है। अंततः पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन जीवन के स्वरूप को आम मनुष्य को समझाने के लिए ही किया गया है। आत्मा तो अमर है और सर्वव्यापक है। जो अमर है उसका पुनर्जन्म हो ही नहीं सकता। शरीर जो नश्वर है, पंचमहाभूत में विलीन हो ही जाता है और दूसरे शरीर के जन्म का पहले शरीर से संबंध तर्कसंगत नहीं है। केवल शास्त्रों के प्रति हमारी श्रद्धा ही पुनर्जन्म के सिद्धांत को नकारने में अवरोधक है।
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