जनतांत्रिक शासन प्रणाली में प्रधान नेता, मंत्री और शासकीय अधिकारी आदि उच्च पदों का विचार राजयोगों से और निम्न पदों (शासकीय सेवकों) का विचार राज प्रधान योगों से करना चाहिये। उच्चस्तरीय आजीविका की प्राप्ति में यह योग ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। महर्षि पाराशर प्रणीत इन योगों को जानने के लिये आत्मकारक, अमात्यकारक ग्रह और आरुढ लग्न/पद लग्न को समझना पड़ेगा। आत्मकारक: जन्मकालीन ग्रहों में से जिस ग्रह के अंश सर्वाधिक हो वह आत्मकारक होता है। जहां ग्रहों के अंश तुल्य हों, वहां कला से अधिकता लेनी चाहिये और कला समान हो तो विकला से जो अधिक हो, वही आत्मकारक होता है। महर्षि पाराशर ने कहा है- जिनके जन्मकाल में दो ग्रह सम अंश वाले हो तो दोनों ही उस कारक के स्वामी होते हैं। परंतु उसका फल स्थिर कारक से कहना चाहिये। आत्मकारक ग्रह से न्यून अंश वाला ग्रह अमात्यकारक होता है। इसी प्रकार क्रमशः भ्रातृकारक, मातृकारक, पुत्रकारक, ज्ञातिकारक व स्त्रीकारक होते हैं। इन सभी में आत्मकारक प्रधान होता है व जातक का स्वामी होता है। आत्मकारक के वश से अन्य कारक फल देने वाले होते हैं। क्योंकि आत्मकारक सभी ग्रहों का राजा होता है। लग्नारूढ़ पद: जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद दूरं हितिष्ठति। तावद् दूरं तदग्रे च लग्नारूढं चं कथ्यते।। लग्न लग्न से लग्नेश जितने दूर भाव में स्थित हो, उससे उतने ही भाव आगे की राशि लग्नेश का पद या आरुढ़ होता है। उसे लग्न पद या आरुढ़ लग्न कहते हैं। इस प्रकार लग्नारुढ़ को लग्न मानकर चक्र बनाये उसमें जो ग्रह जिस स्थान में हो उसे वहां लिखकर फल कहें। इस प्रकार द्वादश भावों का आरुढ़ पद बनाया जा सकता है लेकिन सभी पदों में लग्न का पद मुख्य होता है। निर्वध अर्गला: पद या लग्न से 2, 4, 7, 11 भाव में शुभ ग्रह होने से या उक्त भावों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने से निर्बाध अर्गला होती है। निर्बाध अर्गला हो तो व्यक्ति भाग्यवान होता है। इस प्रकार प्रत्येक भाव से अर्गला का विचार किया जा सकता है। यदि 2, 4, 7, 11 भावों में अशुभ ग्रह हो या अशुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो फल का आनुपातिक ह्रास होता है। चतुर्थ का दशम, द्वितीय का द्वादश और एकादश का तृतीय भाव क्रमशः बाधक होते हैं। अतः तृतीय, दशम, द्वादश भाव में स्थित ग्रह प्रतिबंधक अर्गला होते हैं अर्थात निर्बाध अर्गला में वधिक होते हैं। शुभ ग्रह की अर्गला भाव फल को खेलती है, धन की वृद्धि करती है और पाप ग्रह की अर्गला भाव फल को रोकती है एवं अल्प धन देती है। शुभ एवं पाप ग्रह की मिश्रित अर्गला होने पर कहीं वृद्धि कहीं ह्रास होता है। लग्न पद या चंद्रमा के साथ कोई उच्चस्थ ग्रह हो तथा उनसे गुरु शुक्र का योग हो और पाप ग्रह कृत अर्गला योग न हो तो निसंशय विशेष राजयोग होता है। पद या लग्न से सातवें भाव में निर्वध अर्गला होती है यदि यह अर्गला हो तो मनुष्य भाग्यवान होता है। शुभ ग्रह की अर्गला बहुत द्रव्य देने वाली होती है। महाराज योग और उच्चाधिकारी महर्षि पाराशर के मतानुसार में दैवज्ञ राजयोगों को जानता है वह राजा (शासक) द्वारा पूज्य होता है। आइये हम भी प्रमुख राज योगों को जानने का प्रयत्न करते हैं। लग्नेऽय पंचमे वापि लग्नेशे पंचमाधिपे। पुत्रात्मकारकौ विप्र लग्ने वा पंचमेऽपि च ।। सम्बंधे वीक्षिते तत्र दृष्टैवं पंचमाधिपे। स्वोच्चे स्वांशे स्वभे वापि शुभग्रह निरीक्षिते।। महाराजेति योगोऽयं सोडत्र जात सुखी नरः। गजवाजिरधैर्युक्तः सेनास्ग्मनेकधा।। 1. लग्नेश और पंचमेश लग्न या पंचम भाव में स्थित हो अथवा लग्नेश पंचम भाव में और पंचमेश लग्न में स्थित हो। तो राजयोग होता है। 2. अथवा आत्मकारक और पुत्रकारक दोनों लग्न या पंचम मे हो, या दोनों में किसी प्रकार का संबंध हो। तो राजयोग होता है। 3. जन्म लग्नेश तथा पंचमेश के संबंध से तथा आत्मकारक और पुत्रकारक के संबंध से और इनके बलाबल के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम राजयोग होता है। 4. राजयोगकारक ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हों और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उत्तम श्रेणी का राजयोग ‘महाराज योग’ होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति शासन के उच्च पदों पर या उच्च प्रशासकीय अधिकारी होता है। 5. राजयोगकारक ग्रह अपने स्वयं के नवांश में स्थित होने और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट होने पर जातक शासन या प्रशासन में द्वितीय श्रेणी का अधिकारी होता है। 6. राजयोग कारक ग्रह यदि स्वयं की राशि में स्थित हो तो जातक तृतीय श्रेणी का शासकीय कर्मचारी होता है तथा उसे राज्याश्रय प्राप्त होता है। उपरोक्त सभी स्थितियों में उत्पन्न मनुष्य वाहन आदि से युक्त और सुखी होता है। ‘महाराज योग’ श्रेष्ठ राजयोग है। जिनके जन्मकाल में यह योग पड़ता है। उस जातक का सभी सम्मान करते हैं तथा उसके आदेश का पालन करते हैं। भाग्येशः कारके लग्ने पंचमें सप्तमेऽपि वा। राजयोगप्रदातारौ गजवाजिधनरैपि।। यदि भाग्येश और आत्मकारक लगन, पंचम या सप्तम में हो तो हाथी, घोड़े और धन से युक्त राज्य देते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह लग्न को देखता हो तो राजयोग होता है। छठवे या आठवे भाव में अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह यदि लग्न को देखे तो योगकारक होता है और राजयोग का फल देता है। धमकर्माधिपौ चैव व्यत्यये तावुभौ स्थितौ। युक्तश्चेद्वै तदा वाच्यः सर्व सौख्य समन्वितः।। नवमेश दशमेश के स्थान परिवत्रन से अर्थात नवमेश दशम भाव और दशमेश नवम भाव में स्थित हो अथवा इन दोनों की युति हो तो जातक सभी सुखों से युक्त होता है। लघु पाराशरी में परम केन्द्रेश और परम त्रिकोणेश के इस योग को प्रथम श्रेणी का राजयोग कहा गया है तथा इस योग का फल यश-कीर्ति और विजय बताया गया है। यह योग मैंने अनेक नेताओं और अधिकारियों की जन्मकुंडली में पाया है। जिसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि उक्त योग में यदि राजभंग योग न हो तो जातक शासक वरिष्ठ मंत्री या उच्च अधिकारी होता है और धन-मान-सम्मान के साथ सुखी जीवन जीता है। सुख कर्माधिपौ चैव मन्त्रिनायेन संयुतौ। धर्मेशेनाऽथवा युक्तौ जालश्चेदिह राज्यभाक् सुखेश, कर्मेश यदि पंचमेश या धर्मेश (नवमेश) से युक्त हो तो जातक राज्य का अधिकारी होता है। यहां भी केंद-त्रिकोण के संबंध से राजयोग बताया गया है। किंतु इस योग में प्रथम और सप्तम केंद्र को शामिल नहीं किया गया है। पंचमेश सप्तमेश के संबंध से अमात्य योग होता हे। इसी योग में यदि कर्मेश योग करता है तो राजा या मंत्री होता है। केंद्रेश और नवमेश का योग हो तो राजा से वंदित राजा होता है। निष्कर्ष यह है कि सुखेश और पंचमेश का संबंध लक्ष्मीदायक है, सुखेश और नवमेश का संबंध इससे भी अच्छा (शुभ) है किंतु दशमेश और नवमेश का युति दृष्टि या स्थान परिवर्तन संबंध प्रबल राजयोग कारक है। लग्नेश, पंचमेश और नवमेश इन तीनों की युति यदि लग्न, चतुर्थ या दशम स्थान में हो तो राजवंश में उपन्न जातक राजा होता है। ऐसा महर्षि पाराशर का कथन है किसी शासक या अधिकारी के पुत्र की कुंडली में उक्त योग हो तो वह बालक भी अपने पिता के समान शासक या अधिकारी होता है। अपनी जन्म कुंडली में उक्त योग रखने वाला जातक यदि साधारण पिता का पुत्र हो तो ऐसा जातक निम्न श्रेणी का अधिकारी, मंत्री का सचिव होता है। सप्तमेश दशमस्थ में स्थित हो तथा अपनी उच्चराशि में कर्मेश भाग्येश के साथ हो तो ‘श्रीनाथ’ योग होता है। इस योग में उत्पन्न जातक द्वंद के समान राजा होता है।
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