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सत्य के पुजारी भगवान परशुराम

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अक्षय तृतीया का भारतीय जनमानस में बड़ा महत्व है। इस दिन स्नान, होम, जप, दान आदि का अनंत फल मिलता है, ऐसा शास्त्रों का मत है। अक्षय तृतीया को ही पीतांबरा, नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम के अवतार हुए इसीलिए इस दिन इनकी जयंती मनाई जाती है। भारतीय कालगणना के सि‍द्धांत से इसी दिन त्रयेता युग का आरंभ हुआ। इसीलिए इस तिथि को सर्वसिद्ध (अबूझ) तिथि के रूप में मान्यता मिली हुई है।
वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि त्रेतायुग आरम्भ की तिथि मानी जाती है और इसे अक्षय तृतीया भी कहते है इसी दिन भगवान परशुराम जी का जन्म हुआ था. भागवत अनुसार हैहयवंश राजाओं के निग्रह के लिए अक्षय तृतीया के दिन जन्म परशुराम जी का जन्म हुआ. जमदग्नि व रेणुका की पांचवी सन्तान रूप में परशुराम जी पृथ्वी पर अवतरीत होते हैं इनके चार बड़े भाई रूमण्वन्त, सुषेण, विश्व और विश्वावसु थे अक्षय तृतीया को भगवान श्री परशुराम जी का अवतार हुआ था जिस कारण यह परशुराम जयंती के नाम से विख्यात है.
पूर्वके अवतारोंके समान इनके नामका स्वतंत्र पुराण नहीं है ।
अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।
अर्थ : चार वेद मौखिक हैं अर्थात् पूर्ण ज्ञान है एवं पीठपर धनुष्य-बाण है अर्थात् शौर्य है । अर्थात् यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाणसे परशुराम पराजित करेंगे । ऐसी उनकी विशेषता है ।
भगवान परशुराम जी शास्त्र एवम् शस्त्र विद्या के ज्ञाता थे. प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य रहा. परशुराम जी तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरूष रहे. परशुराम जी अन्याय का निरन्तर विरोध करते रहे उन्होंने दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की हर प्रकार से रक्षा व सहायता की. भगवान परशुराम जी की जयंती की अक्षततिथि तृतीया का भी अपना एक अलग महत्त्व है. इस तारीख को किया गया कोई भी शुभ कार्य फलदायक होता है. अक्षत तृतीया तिथि को शुभ तिथि माना जाता है इस तिथि में बिना योग निकाले भी कार्य होते हैं. भगवान परशुराम की जयंती हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है. प्राचीन ग्रंथों में इनका चरित्र अलौकिक लगता है. महर्षि परशुराम उनका वास्तविक नाम तो राम ही था जिस वजह से यह भी कहा जाता है कि ‘राम से पहले भी राम हुए हैं’.
अक्षय तृतीया का भगवान परशुराम के अवतार से संबंध होने से यह पर्व राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के लिए भी एक विशेष स्मरणीय एवं चिंतनीय पर्व है। दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (बगलामुखी) के अनन्य साधक परशुरामजी ने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। निर्बल और असहाय समाज की रक्षा के लिए उनका कुठार अत्याचारी कुशासकों के लिए काल बन चुका था।
बताया जाता है कि इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
आज के युग में भगवान परशुराम जी के आदर्श मनुष्य जीवन में महत्वपूर्ण है । माता-पिता के पूर्ण आज्ञाकारी भगवान परशुराम जी से हमें अपने माता-पिता के आज्ञाकारी बनने का आदर्श अपने जीवन में साक्षात करते हुवें मानव कल्याणर्थ कार्य करने के उनके आदर्शो को अंगीकार करना चाहियें ।  भगवान परशुराम  जो कल्याणकारी धर्मरक्षक, वेद-शास्त्र एवं शस्त्र विद्या के ज्ञाता, परम शिव भक्त एवं अन्याय के घोर विरोधी थे । मानव मात्र के कल्याणर्थ एवं धर्म की रक्षा के उनके चारित्रिक गुण से हमें यह सीख लेनी चाहिये कि हम भी मानव कल्याण एंव धर्म की रक्षा हेतु अपनी शक्ति एवं सामथ्र्य के अनुसार कार्य करें…वेद शास्त्र एवं शस्त्र विद्या के पूर्ण ज्ञाता भगवान परशुराम जी गौ, ब्राह्मण एवं कमजोर व्यक्ति के हितकारी होते हुवें भक्ति, शक्ति, माता-पिता के आज्ञापालक थे । उनके जन्मोत्सव दिवस पर हमें उनके इन आदर्शो को जीवन में अंगीकर करने की प्रतिज्ञा लेनी चाहियें
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र,परशुराम जी भगवान विष्णु के अवतार थे. परशुराम भगवान शिव के अनन्य भक्त थे. वह एक परम ज्ञानी तथा महान योद्धा थे इन्ही के जन्म दिवस को परशुराम जयंती के रूप में संपूर्ण भारत में बहुत हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है.भगवान परशुराम जयंती के अवसर पर देश भर में हवन, पूजन, भोग एवं भंडारे का आयोजन किया जाता है तथा परशुराम जी शोभा यात्रा निकली जाती है. विष्णु के अवतार परशुराम जी का पूर्व नाम तो राम था, परंतु को भगवान शिव से प्राप्त अमोघ दिव्य शस्त्र परशु को धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए.
भगवान विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार के रूप में अवतरित हुए थे धर्म ग्रंथों के आधार पर परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया, वैशाख शुक्लतृतीया को हुआ था जिसे परशुराम जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन व्रत करने और पर्व मनाने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था. परशुराम ने शस्त्र विद्या द्रोणाचार्य से सीखी थी.
पिता जमदग्नि और माता रेणुका ने तो अपने पाँचवें पुत्र का नाम ‘राम’ ही रखा था, लेकिन तपस्या के बल पर भगवान शिव को प्रसन्ना करके उनके दिव्य अस्त्र ‘परशु’ (फरसा या कुठार) प्राप्त करने के कारण वे राम से परशुराम हो गए। ‘परशु’ प्राप्त किया गया शिव से। शिव संहार के देवता हैं। परशु संहारक है, क्योंकि परशु ‘शस्त्र’ है। राम प्रतीक हैं विष्णु के। परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के महान पराक्रमी पुत्र थे जिन्होंने पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने के लिए उनका 21 बार सामूहिक रूप से संहार किया था।
परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। उन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र” भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-“ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।” वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।
विष्णु पोषण के देवता हैं अर्थात्‌ राम यानी पोषण/रक्षण का शास्त्र। शस्त्र से ध्वनित होती है शक्ति। शास्त्र से प्रतिबिंबित होती है शांति। शस्त्र की शक्ति यानी संहार। शास्त्र की शांति अर्थात्‌ संस्कार। मेरे मत में परशुराम दरअसल ‘परशु’ के रूप में शस्त्र और ‘राम’ के रूप में शास्त्र का प्रतीक हैं। एक वाक्य में कहूँ तो परशुराम शस्त्र और शास्त्र के समन्वय का नाम है, संतुलन जिसका पैगाम है।
अक्षय तृतीया को जन्मे हैं, इसलिए परशुराम की शस्त्रशक्ति भी अक्षय है और शास्त्र संपदा भी अनंत है। विश्वकर्मा के अभिमंत्रित दो दिव्य धनुषों की प्रत्यंचा पर केवल परशुराम ही बाण चढ़ा सकते थे। यह उनकी अक्षय शक्ति का प्रतीक था, यानी शस्त्रशक्ति का। पिता जमदग्नि की आज्ञा से अपनी माता रेणुका का उन्होंने वध किया। यह पढ़कर, सुनकर हम अचकचा जाते हैं, अनमने हो जाते हैं, लेकिन इसके मूल में छिपे रहस्य को/सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते।
परशुराम दरअसल ‘राम’ के रूप में सत्य के संस्करण हैं, इसलिए नैतिक-युक्ति का अवतरण हैं। यह परशुराम का तेज, ओज और शौर्य ही था कि कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का वध करके उन्होंने अराजकता समाप्त की तथा नैतिकता और न्याय का ध्वजारोहण किया। परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है।
जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी माँ का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।
‘परशु’ प्रतीक है पराक्रम का। ‘राम’ पर्याय है सत्य सनातन का। इस प्रकार परशुराम का अर्थ हुआ पराक्रम के कारक और सत्य के धारक। शास्त्रोक्त मान्यता तो यह है कि परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं, अतः उनमें आपादमस्तक विष्णु ही प्रतिबिंबित होते हैं, परंतु मेरी मौलिक और विनम्र व्याख्या यह है कि ‘परशु’ में भगवान शिव समाहित हैं और ‘राम’ में भगवान विष्णु। इसलिए परशुराम अवतार भले ही विष्णु के हों, किंतु व्यवहार में समन्वित स्वरूप शिव और विष्णु का है।
परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।
उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण।वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नमुमकिन है। जमदग्‍नि परशुराम का जन्‍म हरिशचन्‍द्र-कालीन विश्‍वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्‍कृत ग्रंथों में ‘अष्‍टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्‌य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्‍हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्‍मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस वंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्‍नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्‍नि में मतभेद उत्‍पन्‍न हो गए। परिणामस्‍वरुप जमदग्‍नि महिष्‍मति राज्‍य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्‍ठ होकर सहस्‍त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्‍नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्‍नि और उनकी पत्‍नी रेणुका ने अतिथि सत्‍कार किया। लेकिन स्‍वेच्‍छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्‍माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्‍वरुप जमदग्‍नि की हत्‍या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात्‌ छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्‍णों ने कान्‍यकुब्‍ज के राजा गाधि राज्‍य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्‍प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्‍यों की यात्राएं की जो हैह्‌य वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्‍व दक्षता के बूते परशुराम को ज्‍यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्‍ठभूमि तैयार हुई।
परशुराम ने अपने जीवनकाल में किये थे अनेक यज्ञ-
परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।
मातृ-पितृ भक्त थे परशुराम-
श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।
क्रोधी स्वभाव वाले थे परशुराम-
दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
परशुराम ने ली थी राम के पराक्रम की परीक्षा-
बताया जाता है कि परशुराम राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
भगवान परशुराम को पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त करवाने वाला अत्याचार का अंत करने वाला महापुरुष मन जाता है, इसीलिए उनके जन्मदिन पर विशेष आयोजन कर उन्हें श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है|